हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित हिंदी फ़िल्म 'अनुपमा' देख रहा था कि फ़िल्म में देवेन वर्मा की एन्ट्री आते ही फ़िल्म आगे देखने के बजाय, इस फ़िल्म को देखने पर जो दिलचस्पी बढ़ रही है आपसे शेयर करने का लोभ हुआ।
10 अप्रैल 2020
मैं हैरान हूँ कि यह फ़िल्म मैंने अब तक क्यों नहीं देखी थी। शायद इसलिए क्योंकि मैंने बहुत कम फ़िल्में देखी हैं।
संभवतः यह हृषिकेश दा की पहली निर्देशित फिल्म है। इसे उन्होंने बिमल दा ( विमल रॉय) को समर्पित किया है जिनके वे असिस्टेंट थे।
अभी तक की फ़िल्म बेहद नपीतुली है। खिड़की के परदे तक आधा इंच फ़ालतू नहीं हिलते। अभिनेताओं की भाव-भंगिमाएं ग़ज़ब तौर पर संयत और स्वाभाविक हैं। कैमरा मूवमेंट बिल्कुल स्मूद और सधी हुई। कैमरा प्लेसमेंट भी मन के भावों को उभारती हुई। हेमंत कुमार का संगीत फ़िल्म की गरिमा और भावों को और स्पष्टता से मन तक ले जाता है।
फ़िल्म में जैसे ही देवेन वर्मा दाखिल होते हैं, मुझे याद आया शर्मिला टैगोर, देवेन वर्मा और धर्मेंद्र ने फ़िल्म 'देवर' में भी एक साथ काम किया है।
फ़िल्म 'देवर' 'अनुपमा' से पहले आई थी या बाद में, यह मुझको ध्यान नहीं। चूंकि मैंने पहले 'देवर' देखी है, इसलिए कृपया मेरी क्रोनोलॉजी इसी प्रकार से समझिए।
'देवर' अपने कथ्य को लेकर मेरे लिए एक हिंदी फ़िल्मों के संबंध में एक इलहाम जैसी थी। भला किस फ़िल्म में ऐसा देखा होगा कि शादी के लिए लड़की देखने आया हीरो लड़की से मोंपासा के साहित्य पर सवाल पूछे? और ख़ास बात यह कि हीरो को ख़ुद मोंपासा के साहित्य का कोई अता-पता नहीं है, इस बात पर वह नर्वस है। प्लीज़, मैं फ़िलहाल जेंडर क्वेश्चन को यहाँ डिस्कोर्स में नहीं ला रहा। वरना बात किसी अन्य दिशा में मुड़ जाएगी।
तो 'देवर' में देवेन वर्मा ने जिस तरह का खलनायकी क़िरदार निभाया है वह उनकी अभिनय क्षमता की बेहतरीन बानगी पेश करता है। इससे पहले मैं उन्हें हास्य कलाकार ही जानता था।
'देवर' से पहले धर्मेंद्र की एक फ़िल्म आई थी 'फूल और पत्थर'। निर्देशक ने धर्मेंद्र की हीमैन जैसी, ग्रीक गॉड्स से मेल खाती शानदार पर्सनैलिटी को इस फ़िल्म में अत्यंत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया था। यह फ़िल्म धर्मेंद्र के लिए भी संग-ए-मील साबित हुई। धर्मेंद्र चाहते तो एंग्री यंग मैन जैसी छवि में बंध सकते थे लेकिन नहीं। 'फूल और पत्थर' के बाद 'देवर' आई जिसमें संस्कारों और परिस्थितियों के आगे मजबूर व्यक्ति का सजीव चित्रण धर्मेंद्र ने अपनी अदाकारी के ज़रिए किया है।
धर्मेंद्र अभिनीत 'फूल और पत्थर' के सामने अमिताभ बच्चन अभिनीत 'ज़ंजीर' फिल्मांकन, कथ्य और उद्देश्य के दृष्टिकोण से काफ़ी कमज़ोर फ़िल्म है बाय द वे। धर्मेंद्र जिस प्रतिष्ठा के हक़दार थे वह उन्हें नहीं मिली। जिस तरह की फ़िल्में उन्हें ध्यान में रखकर लिखी जानी चाहिए थी, नहीं लिखी गई। कहना चाहिए कि धर्मेंद्र की ज़मीन से जुड़े रहने की प्रकृति और स्वाभाविक विनम्रता भी उनकी अपनी संपूर्ण संभावनाओं का खनन करने में बाधा बनी होगी। ख़ैर...।
बैक टू 'अनुपमा'
शर्मिला टैगोर का पर्सोना एस्टैब्लिश हो चुका है।
देवेन वर्मा अपने पात्र की पृष्ठभूमि के साथ पट पर प्रस्तुत हो गए हैं। धर्मेंद्र अभी तक नहीं आए हैं। आने वाले होंगे।
फ़िल्म देखने में मज़ा आने वाला है।