रविवार, 18 मई 2025

तुम्हारी याद का समंदर

 तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


दिन कट जाता है वजूद की लड़ाई में 

संध्या समय जब कटी-फटी लौटती हूँ देहरी के इस पार 

अब तक शांत सरोवर सरीखा, मौन, तुम्हारी स्मृति का रत्नाकर 

प्रतीक्षारत, सुप्त ज्वालामुखी अचानक से भभक उठता है, जी उठता है, 

ठाठें मारने लगता है सागर 

जिस की लहरों में डूबती-उतराती भीगती पूरी-की-पूरी नमकीन हो जाती हूँ मैं

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


जी उठते हैं वो मेरे सभी घाव, मन पर पड़ी खरोंचें मुझसे बात करने लगती हैं

पपड़ियों के बीच से ख़ून का रिस-रिसकर बहना मेरे ज़िंदा होने का सबूत बन जाता है

लहरें हैं या वक़्त के नाख़ून हैं 

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


नमक से भीगा जल मेरी आँखें अर्पित करती हैं तुम्हें संध्या वंदन में

जान गई हूँ नहीं पहुँचता वह अर्घ्य तुम्हें फिर भी  

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


हर रोज़ निकलकर आते हैं मेरे सामने ही दाग़-ए-निहाँ

मुस्कुराती हूँ

पार कर रही होती हूँ सोच के दरिया को 

कि मैं नींद में हूँ

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


जब अमावस होती है 

घुप्प अंधेरे के आवरण में विलीन हो जाता है मेरा अपना वजूद 

मैं हवा-सी हल्की ख़ुद से जुदा 

अनिश्चित असहाय 

अपने नन्हें से अहम को बचा ले जाना चाहती हुई इस स्वार्थी जगत के सत्तापिपासु गलियारों में जो लोग मुझे कमोडिफाई करके बस एक चीज़ की तरह देखते हैं मेरे आर-पार अमावस की रात उनकी चमकती हुई उनकी खा जाने वाली नज़रों से बच बचाकर लड़खड़ाती कभी सहमकर उनकी ज़द में आ जाती हुई  मैं 

जान तो गई हूँ तुम अब नहीं हो, दीखते नहीं कहीं मेरे मन की अंतस गहराईयों के स्वामी होने के बावजूद, 

मैं ख़ुद को तैयार करने लगती हूँ कि अब जीना तुम्हारे बिना ही होगा मुझे लेकिन 

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


लहरें रुकती नहीं

मैं जो तुम्हारी लहरों के सहारे पार उतरने की विवशता को ही तुम्हारा आगोश समझकर इस दुनिया को बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल समझे बैठी थी 

अमावस की रात समंदर भी दीखता नहीं

साहिल पर खड़ी मैं तुम्हारी लहरों के शोर से जान जाती हूँ 

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


इस तरह फिर-फिर तुम्हारी याद के पारावार में डूबती हूँ शायद जानबूझकर या फिर मेरी ख़ुद पर ही कोई मर्ज़ी चलती नहीं और ज्यों-ज्यों दवा करने का साहस करती रही मर्ज़ बढ़ता गया, 

देखती क्या हूँ कि हर पगडंडी तुम तक ही ले जाती है और नई राह पर चलने का दम समेटती हूँ देखती हूँ क्या होता है

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


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