रविवार, 29 जून 2025

लड़ाई के बाद अबोला होने के कारण पत्नी के लिये व्हाट्सऐप स्टेटस

 

सुनो तुम कल रात से घर नहीं आई हो। 


नहीं, नहीं भई अब इस बात को लड़ाई का मुद्दा मत बना लेना। 


तुम पर इल्ज़ाम नहीं लगा रहा हूँ, पता है तुम अपने घर से दो रात के लिये बाप के घर गई हो। 


हम दोनों में हुए कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार कोई किसी को कहीं जाने से रोकेगा नहीं। केवल बताकर जाना होगा। इसलिये मुझे तो बस यह बताना था कि मैं अपने दोस्त के घर जा रहा हूँ।


सुबह निकला हूँ और बस में बैठकर यह स्टेटस लिख रहा हूँ। शाम को आ जाऊँगा। तुम घर आओगी तो मुझे नहीं पाओगी, फिर मत कहना कि उस कलकत्ते वाली या मुंबई वाली के साथ कहीं भाग गया।


इस बारे में कॉन्ट्रैक्ट रिन्यूअल के समय रिव्यू करते हुए चर्चा करेंगे।  


अब बताऊँ कैसे कि सुबह-सुबह निकल गया हूँ, अपने पति को ही तुमने ब्लॉक मार रखा है। तो यह स्टेटस पढ़ लोगी, मुझे पता चल जाएगा कि बात तुम तक पहुँच गई। 


ठीक है, मानता हूँ कि औरों तक भी पहुँच गई। लेकिन डर्टी लिनेन वाली नज़ीर यहाँ पेश नहीं की जाएगी क्योंकि जो स्टेटस पढ़ रहे हैं उनकी अपनी कहानियाँ है। वो पढ़कर हँस लेंगे तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा। 


चिंता मत करो वे सभी मेरे फोन बुक कॉन्टेैक्ट वाले हैं, बेशक तुम्हारी-मेरी तरह सभी कॉन्ट्रैक्ट वाले ना हों। 


झाड़ू लगाने में सफल रहा, इसी वजह से मेरी गुमी हुई चेक बुक बेड के नीचे जमी धूल के साथ बाहर आ गई। वहाँ पहुँची कैसे, मेरी बेज़बान चेक बुक के पास कोई जवाब ना था। 


यह भी पता चला कि छुट्टी पर गई कामवाली बहनजी कामचलाऊ ही झाड़ू लगाती हैं। तुम देख लिया करो उसे प्लीज़। मैं देखूँगा तो कहोगी कि देखता है।  


कपड़े धोकर जिस रस्सी पर सुखा रहा था वह टूट गई है। कई दिनों से घिसती जा रही थी। बहुत सारे कपड़े, बालकनी में जो अब तक फैला दिये थे रस्सी पर, जल्दी से उतार लिये, वरना नीचे सड़क पर जाकर उठाने पड़ते। 


हमारे फ्लोर से ऊपर वालों की बालकनी में सूखते कपड़ों में से एक बनियान जैसा कुछ गिरकर हमारी रस्सी में अटक गया है, तुम्हीं जाकर वापस कर आना, मुझसे ना हो पाएगा। 


सारे कपड़े सूखने के लिये कमरे के अंदर फर्श पर डालकर रात को ही पंखा फुल पर चला दिया था। कच्छे शर्ट के नीचे हैं, एकदम से कोई आए तो दिखाई ना दें इसलिये। 


दूध उबाल दिया है, फ्रिज में नहीं रखा। बिल्ली आकर पी ना जाए इसलिये पतीले को ढक कर, ढक्कन के ऊपर एक गिलास, कटोरी और चम्मच रख दिया है ताकि ढक्कन हटने पर वे गिरें और आवाज़ हो तो बिल्ली भाग जाए, या हमें पता चल जाए। 


गैस चूल्हा बंद कर दिया है, सिलेंडर का नॉब भी नीचे से बंद कर दिया है। कैसे बंद करते हैं पापा ने सिखाया था। 


दूध उबलकर थोड़ा सा गिरा था, चूल्हा साफ़ करने का प्रयास किया है। काकरोच को ख़बर ना होने पाए इसलिये चूल्हे के चारो तरफ लक्ष्मण रेखा बना दी थी। फिर ख़याल आया कि रसोई में उसका इस्तेमाल ठीक नहीं, इसलिये मिटा दी है। 


पानी की मोटर चला दी है, टंकी भरने के बाद बंद कर दी थी या नहीं, याद नहीं  आ रहा। आकर देख लेना कि स्विच ऑफ है या नहीं। टंकी भरने का अलार्म तो तब से ही ख़राब है जब हमारी पिछली सुलह हुई थी। इस बार यह तुमने ठीक करवाना है। 


मोटर का स्विच देख लेना प्लीज़ ऑफ है कि नहीं। ऐसा ना हो कि सिक्योरिटी गार्ड आकर बताए, भैनजी आपकी मोटर चल रही या जल रही है। फिर वह उम्मीद करे कि इस सूचना के एवज में तुम उसे चाय भिजवाओ कि आगे भी ध्यान रखता रहे।  


चार चम्मच, तीन गिलास, चाय का एक भगौना, दो कटोरी, और छह कप मांज दिये हैं। विम का लिक्विड ख़त्म हो गया था तो उसी में पानी डालकर बचे-खुचे लिक्विड को निकालकर यूज़ कर लिया। 


तुम्हारे मायके के पास जो जनरल स्टोर है जहाँ से मैं शादी से पहले तुम्हें चाकलेट ख़रीदकर दिया करता था जब तुम अमूल टोंड मिल्क थैली ख़रीदने ठीक उसी समय वहाँ आया करती थी, वहीं से विम लेकर बैग में रख लेना। 

दुकान वाली आंटी को मेरा नमस्ते कहना। 


कढ़ाई, जिसमें तुम्हारे फ़र्ज़ंद-ए-अव्वल ने मैगी बनाई थी, ने मेरे हाथों धुलने से इन्कार कर दिया है। बहरहाल, मैगी का ख़ाली पैकेट सूखे कूड़े के बिन में डाल दिया है। 


दाल जो तुम बनाकर गई थी कल शाम ख़त्म हुई है इसलिये कुकर धोना मुश्किल है मेरे लिये क्योंकि कुकर की दीवारों पर जो दाल की जमी परत है वह कमबख्त मेरे जिम वाले हाथों के ज़ोर के बावजूद छूटती नहीं, अल्ला जाने तुम्हारे हाथों में कौन सी ताकत है जो कुकर नई नवेली दुल्हन सा चमक उछता है तुम्हारे हाथों धुलकर। 


बहरहाल, हमारे कान्ट्रैक्ट की शर्तों के अनुसार हाथ बँटाने के लिेये कुकर का ढक्कन धो दिया है। 


और हाँ चाय की छाननी या छन्नी भी धो दी है। 


सिंक के बीच में जमें हुए अचार के टुकड़े, मिर्च की पूँछ, और एक अधखाया आलू का टुकड़ा निकालकर गीले कूड़े वाले बिन में डाल दिया है। तुम्हारे आने तक सिंक साफ मिलेगा। 


उपध्या जी बीटेक कचौड़ीवाले के यहाँ से अर्ली मॉर्निंग लाई गई कचौड़ियाँ और ब्रेड पकौड़े रोटियों वाले स्टील के कासे में रख दिये हैं पोणे (रोटियाँ ढकने वाला कपड़ा) में लपेटकर रख दिये हैं। आते ही तुम्हें खाना बनाना नहीं पड़ेगा। 


आलू की सब्ज़ी जो कचौड़ी के साथ मिली है, लोटे में डालकर रख दी है, कोई और बर्तन नहीं सूझा मुझे। 


बच्चे के लिये सैंडविच बनाकर पैक कर दिया था, फिर याद आया आज संडे है। तो मैं उस सैंडविच को खाकर और ग्रीन टी पीकर जा रहा हूँ। दोस्त का घर दो घंटे दूर है जाकर फुल नाश्ता करूँगा। 


नहाकर बाथरूम वाइपर के साथ साफ कर दिया है। जाली पर जमा बाल (पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं) उठाकर पॉलीथीन में डाल दिये हैं, सूखे कूड़े वाली बिन में। साबुनदानी और साबुन दोनों को धो दिया है ताकि सूखी झाग तुम्हें गुस्सा ना दिला पाए। 


शीशा साफ नहीं कर पाया क्योंकि फिर साफ़ शीशे में ख़ुद को देखकर पार्लर जाने का मन करने लगता है। इस महीने के बजट में ना हो पाएगा पार्लर विजिट। 


जाते हुए सुमित्रा को कपड़े प्रेस करने के लिये देकर जाऊँगा। मंगवा लेना उससे फोन करके। अभी एक शर्ट ख़ुद प्रेस करनी पड़ी जैसे-तैसे कर ली, बस थोड़ी सी जल गई है, शर्ट नहीं, मेरी कलाई। 


मैं कोशिश करके भी बता नहीं पाऊँगा कि मेरी कलाई प्रेस के नीचे कैसे आ गई। चलो बता ही देता हूँ, बेड पर ही रखकर प्रेस कर रहा था, गर्मागर्म प्रेस खड़ी की थी और जब गद्दे पर संतुलन कायम ना रख पाने के कारण गिरी तो ठीक उसी वक्त मेरी कलाई वहाँ से किसी काम से गुज़र रही थी। 


तुम्हारी सलवार कमीज़ प्रेस करने की हिम्मत ना जुटा पाया, क्रीज़-से-क्रीज़ कैसे मिले समझ ना पाया। वैसे भी यह कॉन्ट्रैक्ट में नहीं है। 


लेकिन एक बात जो कॉन्ट्रैक्ट में नहीं है, फिर भी मैं कर रहा हूँ - 


तुम्हें मिस कर रहा हूँ। 


अगर ब्लॉक हटा दोगी तो जान जाऊँगा कि यही काम तुम भी कर रही हो, 

बिना शर्त। 

चलते हुए ट्रैफिक के बीच

20 जून 2025


आप इसे मेरी मजबूरी कह सकते हैं या दिल्ली में पड़ी आदत कह सकते हैं। इस मजबूरी या आदत का नाम है चलते ट्रैफिक के बीच से सड़क क्रॉस करना।


वाहनों को भी हमारी आदत है और हमें वाहनों की। हो सकता है किसी दिन सड़क पार करते हुए ही मारा जाऊं।


लेकिन दिल्ली में वाहन बिना कुछ कहे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के उसूल के तहत बचते-बचाते निकल जाते हैं। गाली भी देते हो तो अपन को कौन सा पता चलता है उन्हें भी नहीं पता चलता होगा।


भोपाल में बस एक वेरिएशन मिला।


चलते ट्रैफिक के बीच मेरे पास से गुजरते एक स्कूटर वाले महोदय ने मुझसे एक हॉस्पिटल का रास्ता पूछ लिया - 'दादा फलाँ हॉस्पिटल क्या इधर को ही पड़ेगा?'


जी तो चाहा जड़ हो जाऊं। गूगल मैप खोलकर उसे रास्ता बताऊँ। भूल जाऊं ट्रैफिक को और सड़क पार करने को।


मगर वह सदैव ब्लिसफुल अवस्थित संभवत सर्वोदय से अंत्योदय की यात्रा में आगे निकल गया था।


मंगलवार, 10 जून 2025

भविष्य

 कोई ऐसा भी समय था जब भविष्य हुआ करता था

अब भविष्य अतीत की बात हो गई है

वर्तमान खोद रहा है अतीत की कब्र और देख रहा है उसमें भविष्य का स्वप्न

यही प्रमाण है 

भविष्य के ना होने का


भविष्य तो अवश्यंभावी होता है पर 

जानने वाले लोग बताते हैं कि भविष्य ख़ुद चलकर नहीं आता 

वर्तमान को दांव पर लगाना पड़ता है


देख पाने वाले लोग बता रहे हैं कि भयावह है वह

अंधकारमय नहीं है पर 

रौशनी आँख को अंधा कर देने के लिये होगी

लेकिन उनकी बात अतीत के जश्न के शोर में डूब रही है


छोड़ो कल की बातें।

शुक्रवार, 30 मई 2025

 मैं जहाँ था वहीं हूँ

बस मेरे पैर तले की 

ज़मीन खिसक गई है

रविवार, 18 मई 2025

तुम्हारी याद का समंदर

 तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


दिन कट जाता है वजूद की लड़ाई में 

संध्या समय जब कटी-फटी लौटती हूँ देहरी के इस पार 

अब तक शांत सरोवर सरीखा, मौन, तुम्हारी स्मृति का रत्नाकर 

प्रतीक्षारत, सुप्त ज्वालामुखी अचानक से भभक उठता है, जी उठता है, 

ठाठें मारने लगता है सागर 

जिस की लहरों में डूबती-उतराती भीगती पूरी-की-पूरी नमकीन हो जाती हूँ मैं

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


जी उठते हैं वो मेरे सभी घाव, मन पर पड़ी खरोंचें मुझसे बात करने लगती हैं

पपड़ियों के बीच से ख़ून का रिस-रिसकर बहना मेरे ज़िंदा होने का सबूत बन जाता है

लहरें हैं या वक़्त के नाख़ून हैं 

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


नमक से भीगा जल मेरी आँखें अर्पित करती हैं तुम्हें संध्या वंदन में

जान गई हूँ नहीं पहुँचता वह अर्घ्य तुम्हें फिर भी  

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


हर रोज़ निकलकर आते हैं मेरे सामने ही दाग़-ए-निहाँ

मुस्कुराती हूँ

पार कर रही होती हूँ सोच के दरिया को 

कि मैं नींद में हूँ

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


जब अमावस होती है 

घुप्प अंधेरे के आवरण में विलीन हो जाता है मेरा अपना वजूद 

मैं हवा-सी हल्की ख़ुद से जुदा 

अनिश्चित असहाय 

अपने नन्हें से अहम को बचा ले जाना चाहती हुई इस स्वार्थी जगत के सत्तापिपासु गलियारों में जो लोग मुझे कमोडिफाई करके बस एक चीज़ की तरह देखते हैं मेरे आर-पार अमावस की रात उनकी चमकती हुई उनकी खा जाने वाली नज़रों से बच बचाकर लड़खड़ाती कभी सहमकर उनकी ज़द में आ जाती हुई  मैं 

जान तो गई हूँ तुम अब नहीं हो, दीखते नहीं कहीं मेरे मन की अंतस गहराईयों के स्वामी होने के बावजूद, 

मैं ख़ुद को तैयार करने लगती हूँ कि अब जीना तुम्हारे बिना ही होगा मुझे लेकिन 

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं 


लहरें रुकती नहीं

मैं जो तुम्हारी लहरों के सहारे पार उतरने की विवशता को ही तुम्हारा आगोश समझकर इस दुनिया को बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल समझे बैठी थी 

अमावस की रात समंदर भी दीखता नहीं

साहिल पर खड़ी मैं तुम्हारी लहरों के शोर से जान जाती हूँ 

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


इस तरह फिर-फिर तुम्हारी याद के पारावार में डूबती हूँ शायद जानबूझकर या फिर मेरी ख़ुद पर ही कोई मर्ज़ी चलती नहीं और ज्यों-ज्यों दवा करने का साहस करती रही मर्ज़ बढ़ता गया, 

देखती क्या हूँ कि हर पगडंडी तुम तक ही ले जाती है और नई राह पर चलने का दम समेटती हूँ देखती हूँ क्या होता है

तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं


बुधवार, 30 अप्रैल 2025

 1 August 2012

पचास रूपए का पास बनाम यह माटी सभी की कहानी कहेगी

पिछले रविवार दिन में एक ज़रूरी काम से रोहिणी जाकर वापस आना था और डीटीसी का 50 रूपए का पास सुबह ही बनवा लिया था.  सच बताऊँ तो दोपहर तक पचास से ज्यादा रूपए का सफ़र तय कर भी लिया था और घर पर वापिस पहुँच भी गया था.  पर उस पास को यूज़ करनेयूज़ क्या वही पुरानी मिडल क्लास मेंटेलिटीबुरी तरह से उसका दोहन करने के चक्कर में मेट्रो नहीं ली जबकि जल्दी घर वापसी के बाद  बच्चो को भी समय देना था. पर बनवा जो रखा था पास पचास रूपए का.

कॉलेज के दिन भी याद आए जब आल रूट पास में पूरी दिल्ली नाप लेते थे. अच्छा भी लगा की दिल्ली के उस हिस्से में कम जाना या लगभग न ही जाना होता है. अब तो खैर मेट्रो की वजह से दक्षिण दिल्ली वालों को रोहिणी और द्वारका दूर नहीं लगते पर एक ज़माने में तो यह जगहें परदेस लगती थीं. ज्यादा पुरानी बात नहीं है बस सन  दो हज़ार एक या दो की बात है,  एक बार जब दिल्ली विकास प्राधिकरण ने द्वारका में अपने उद्यानों का प्रबंधन दिखाने के लिए पत्रकारों का एक दौरा आयोजित किया था.  डिप्लोमा कोर्स करने के बाद भी किसी अख़बार में जगह नहीं मिल पा रही थी तो 'नेशनल हेराल्डमें बतौर ट्रेनी प्रश्रय मिला था.  अब तो नेशनल हेराल्ड भी बंद हो गया है.  उन दिनों मुझे उस दौरे की कवरेज के लिए भेजा गया था. तो द्वारका पहुंचकर विभिन्न उद्यानों को देखते हुए रास्ते में डी टी सी की एक बस देखते ही कुछ पत्रकार भाइयों ने हैरानी मिश्रित चुटकी लेते हुए कहा था कि 'अरे! वो देखो! डी टी सी की बस!'   

खैरशाम को नियान रौशनी में चमकती दिल्ली के उस हिस्से की रौनक ही निराली थी।

बसें बदल-बदल कर गया और बसें ही बदल-बदल कर आया। बीच में एक जगह ग्रामीण सेवा की टेम्पुलिया में पांच रूपए देने पड़ेबहुत खटका। जब जेब में पचास रूपए का पास हो तो ट्रेवल पर पैसे खर्चने वाला बेवक़ूफ़ ही कहलाएगा न मिडल किल्लास के हिसाब से।

एक और बस बदलते हुए रास्ते में अवंतिका नामक उपनगर में थक-हार के एक जगह जलजीरा भी पिया। उस आदमी के पास उस जल को पीने के वास्ते सिर्फ महिलाएं ही खड़ी थीं। मैंने डरते-डरते उस भाई से पूछ लिया कि वो मुझे भी जलजीरा पिलाएगा या मैं जीरे-सा मुंह ले के कहीं और जल मरूं. पर उसने मुस्कुरा कर 10 रुपल्ली झडवा लिए और पिला दिया मुझे तैरती बूंदी वाला (या शायद मुनक्के वाला) जलजीरा.

इन चिर-प्यासे नयनों के सामने
सदैव सद्यस्नात-सी फ्रेश
षोडशी रहने का बिना एक्सपायरी डेट वाला लाइसेंस धारिणी
डिज़ाईनर चप्पलें पहने आधा दर्जन चपल बालाएं
उम्रें जिनकी रहीं होंगी - कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक वाली

उस पर जलजीरा
उसमें बूंदी
धनिया
और मैं...
अजी थकान गई भाड़ में!

कुल मिला के अच्छा लगा।

कमाल है रास्ते में इतने माल और दुकाने आईं पर कोई भी खाली नहीं थी। मुझे तो एकबारगी ऐसा लगा कि लोग पैनिक में हैं जल्दी जल्दी खरीद लो भईया पता नहीं कल मिले न मिले। पत्नियों के ज़रखरीद गुलाम पति तो बस खरीद करने का ज़रिया यानी द्रव्य उपलब्ध कराने भर को यूजफुल लग रहे थे। बोयफ्रेंड़ो की हालत भी कुछ बेहतर नहीं रही होगी. बेचारे... चलती-फिरती ए टी एम मशीन...बस। मुझे लगा अच्छा हुआ मैं न हुआबस हुआ-हुआ करता हुआ करने लगा हूँ ढेंचू-ढेंचू. और अब चर्र-मर्रजाऊंगा यूं ही मर.

हर रेस्तरां में खाने वाले लोग (हे भगवान मेरी नज़र ने उन्हें भी नहीं बख्शा!!) तो ऐसे लग रहे थे मानो सदियों से भूख से पीड़ित लोगों में ज्यादा खाना तेज़ खाने की रेस लगी हो।

खा खा खा
खामखा खा
खाने के लिए आ 
जा खा कर जा
खोल बैंक में खाता
खुल के खा
खाता जा
आता-जाता खा
बिल चुका
आ कल फिर आ
घर पर कुछ मत बना
कमा
कायम रहने के लिए चूरन खा
पेट खाली करके आ
और फिर खा
जब भी वो मिला
पिला
था खाने पे पड़ा पिला
जो भी मिला
गया खा
खिलखिला
खिला
खा खा खा
खाक में मिलने से पहले खा

रेस्तरां से निकाले गए नाकाम चूहे फ्लाई ओवरों पर चढ़ती-उतरती बस में हिचकोले खाने के कारण अपनी जगह से सरके मेरे आधे ग्लोबल पेट में शेयर बाज़ार में मंदी के कारण किसी मल्टीनेशनल के हाय-दैया करते हुए सी ई ओ की तरह बेचैनी में कुलबुला रहे थे. मैं घर जाकर दाल रोटी (क्या करूं मेरी फेवरेट डिश हई येई) खाने के लिए मरा जा रहा था।

बस जब रिंग रोड से होती हुई धौला कुआँ में दाखिल हुई तो लगा जैसे घर आ गया.  हालाँकि घर वहां से भी 15-20 किलोमीटर दूर होगा पर अब सड़कें और इमारतें जानी-पहचानी लगने लगीं.  यह भी सोचा जो लोग रोजाना अप-डाउन करते हैं वो क्या सोचते होंगे इस बारे में.  और जो लोग दिल्ली के उस हिस्से में रहते हैं वो जब कभी कभी इस तरफ आते होंगे तो कैसा लगता होगा उन्हें. शायद उनका इस तरफ आना ज्यादा होता होगा बनिस्पत दिल्ली के इस तरफ वाले लोगों के वहां जाना.


कमाल है उस तरफ और इस तरफ की दिल्ली का कंट्रास्ट और कैरेक्टर शहर की पूरी आब-ओ-हवा और चाल-ढाल मुझे बिलकुल अलग लगीं. यानि जगहों का रूप-रंगतेवर और मिज़ाज हर कुछ किलोमीटर के बाद बदल जाता है?

कुल मिलाके अच्छा लगा।

विजय सिंह 

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025

क्या हुए वो दिन

क्या हुए वो दिन

जब तुझे

चैन न था देखे बिन

बस मुझे

लम्हे और पल गिन

होता था इंतज़ार

शाम के आने का

सोचा था एक बार

दुनिया अलग बसाने का

 

जो देखती थी सिर्फ़ मुझे और जो बस मेरे लिये थी वह दुनिया

जिसकी आँखों में मेरा होना लाज़िम-ए-नूर की शर्त थी वह दुनिया और

जिसकी बाहों में ख़ुद को समेटे ख़ुद को महसूस करने हुनर से वाबस्ता होना सीखा था

वो दुनिया

अब कहाँ गई है

मेरे अंधेरेपन की गली

रौशनी में नहा गई है

पर इतने जाहो जलाल में भी

तू आता नज़र नहीं क्यों होते हुए भी

ज़िंदगी भर रहेगा क्या मलाल ये भी 


6 फ़रवरी 2025