एक न एक दिन तो जाना ही था तुम्हें
तुम
जो अनंतकाल से बाट जोह रही थी कि न आओ
तो आ गया वो दिन कि जब तुम नहीं हो
क्या इसी दिन के लिए ही तो नहीं की थी वापसी मैंने
कि देखने को फिर से खाली नए शीशे से चमचमाता टेबल
कि खाली-खाली-सा मैं और चुप दराजें, और फ़ाईले
क्या फिर उन क्षणों को खींच लाने या उनमें जीने की चाह करूँ
असफल
अंतिम विदा बाक़ी है अभी
जिसे लेने कि तुम्हारी बेचैनी को समझ सकते हुए भी नहीं चाहता मैं समझना
मैं रुक कर तुम्हारी अनुपस्थिति से सिक्त होना चाहता हूँ
भीगता था जो तुम्हारी मौजूदगी में भी...
2 मई 2011
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