रविवार, 29 जून 2025
चलते हुए ट्रैफिक के बीच
20 जून 2025
आप इसे मेरी मजबूरी कह सकते हैं या दिल्ली में पड़ी आदत कह सकते हैं। इस मजबूरी या आदत का नाम है चलते ट्रैफिक के बीच से सड़क क्रॉस करना।
वाहनों को भी हमारी आदत है और हमें वाहनों की। हो सकता है किसी दिन सड़क पार करते हुए ही मारा जाऊं।
लेकिन दिल्ली में वाहन बिना कुछ कहे शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के उसूल के तहत बचते-बचाते निकल जाते हैं। गाली भी देते हो तो अपन को कौन सा पता चलता है उन्हें भी नहीं पता चलता होगा।
भोपाल में बस एक वेरिएशन मिला।
चलते ट्रैफिक के बीच मेरे पास से गुजरते एक स्कूटर वाले महोदय ने मुझसे एक हॉस्पिटल का रास्ता पूछ लिया - 'दादा फलाँ हॉस्पिटल क्या इधर को ही पड़ेगा?'
जी तो चाहा जड़ हो जाऊं। गूगल मैप खोलकर उसे रास्ता बताऊँ। भूल जाऊं ट्रैफिक को और सड़क पार करने को।
मगर वह सदैव ब्लिसफुल अवस्थित संभवत सर्वोदय से अंत्योदय की यात्रा में आगे निकल गया था।
मंगलवार, 10 जून 2025
भविष्य
कोई ऐसा भी समय था जब भविष्य हुआ करता था
अब भविष्य अतीत की बात हो गई है
वर्तमान खोद रहा है अतीत की कब्र और देख रहा है उसमें भविष्य का स्वप्न
यही प्रमाण है
भविष्य के ना होने का
भविष्य तो अवश्यंभावी होता है पर
जानने वाले लोग बताते हैं कि भविष्य ख़ुद चलकर नहीं आता
वर्तमान को दांव पर लगाना पड़ता है
देख पाने वाले लोग बता रहे हैं कि भयावह है वह
अंधकारमय नहीं है पर
रौशनी आँख को अंधा कर देने के लिये होगी
लेकिन उनकी बात अतीत के जश्न के शोर में डूब रही है
छोड़ो कल की बातें।
रविवार, 18 मई 2025
तुम्हारी याद का समंदर
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
दिन कट जाता है वजूद की लड़ाई में
संध्या समय जब कटी-फटी लौटती हूँ देहरी के इस पार
अब तक शांत सरोवर सरीखा, मौन, तुम्हारी स्मृति का रत्नाकर
प्रतीक्षारत, सुप्त ज्वालामुखी अचानक से भभक उठता है, जी उठता है,
ठाठें मारने लगता है सागर
जिस की लहरों में डूबती-उतराती भीगती पूरी-की-पूरी नमकीन हो जाती हूँ मैं
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
जी उठते हैं वो मेरे सभी घाव, मन पर पड़ी खरोंचें मुझसे बात करने लगती हैं
पपड़ियों के बीच से ख़ून का रिस-रिसकर बहना मेरे ज़िंदा होने का सबूत बन जाता है
लहरें हैं या वक़्त के नाख़ून हैं
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
नमक से भीगा जल मेरी आँखें अर्पित करती हैं तुम्हें संध्या वंदन में
जान गई हूँ नहीं पहुँचता वह अर्घ्य तुम्हें फिर भी
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
हर रोज़ निकलकर आते हैं मेरे सामने ही दाग़-ए-निहाँ
मुस्कुराती हूँ
पार कर रही होती हूँ सोच के दरिया को
कि मैं नींद में हूँ
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
जब अमावस होती है
घुप्प अंधेरे के आवरण में विलीन हो जाता है मेरा अपना वजूद
मैं हवा-सी हल्की ख़ुद से जुदा
अनिश्चित असहाय
अपने नन्हें से अहम को बचा ले जाना चाहती हुई इस स्वार्थी जगत के सत्तापिपासु गलियारों में जो लोग मुझे कमोडिफाई करके बस एक चीज़ की तरह देखते हैं मेरे आर-पार अमावस की रात उनकी चमकती हुई उनकी खा जाने वाली नज़रों से बच बचाकर लड़खड़ाती कभी सहमकर उनकी ज़द में आ जाती हुई मैं
जान तो गई हूँ तुम अब नहीं हो, दीखते नहीं कहीं मेरे मन की अंतस गहराईयों के स्वामी होने के बावजूद,
मैं ख़ुद को तैयार करने लगती हूँ कि अब जीना तुम्हारे बिना ही होगा मुझे लेकिन
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
लहरें रुकती नहीं
मैं जो तुम्हारी लहरों के सहारे पार उतरने की विवशता को ही तुम्हारा आगोश समझकर इस दुनिया को बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल समझे बैठी थी
अमावस की रात समंदर भी दीखता नहीं
साहिल पर खड़ी मैं तुम्हारी लहरों के शोर से जान जाती हूँ
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
इस तरह फिर-फिर तुम्हारी याद के पारावार में डूबती हूँ शायद जानबूझकर या फिर मेरी ख़ुद पर ही कोई मर्ज़ी चलती नहीं और ज्यों-ज्यों दवा करने का साहस करती रही मर्ज़ बढ़ता गया,
देखती क्या हूँ कि हर पगडंडी तुम तक ही ले जाती है और नई राह पर चलने का दम समेटती हूँ देखती हूँ क्या होता है
तुम्हारी याद का समंदर कभी सूखता नहीं
बुधवार, 30 अप्रैल 2025
1 August 2012
पचास रूपए का पास बनाम यह माटी सभी की कहानी कहेगी
डिज़ाईनर चप्पलें पहने आधा दर्जन चपल बालाएं
उम्रें जिनकी रहीं होंगी - कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक वाली
खाता जा
गया खा
कमाल है उस तरफ और इस तरफ की दिल्ली का कंट्रास्ट और कैरेक्टर शहर की पूरी आब-ओ-हवा और चाल-ढाल मुझे बिलकुल अलग लगीं. यानि जगहों का रूप-रंग, तेवर और मिज़ाज हर कुछ किलोमीटर के बाद बदल जाता है?
गुरुवार, 6 फ़रवरी 2025
क्या हुए वो दिन
क्या हुए वो दिन
जब तुझे
चैन न था देखे बिन
बस मुझे
लम्हे और पल गिन
होता था इंतज़ार
शाम के आने का
सोचा था एक बार
दुनिया अलग बसाने का
जो देखती थी सिर्फ़ मुझे और जो बस मेरे लिये थी वह दुनिया
जिसकी आँखों में मेरा होना लाज़िम-ए-नूर की शर्त थी वह दुनिया और
जिसकी बाहों में ख़ुद को समेटे ख़ुद को महसूस करने हुनर से वाबस्ता होना सीखा था
वो दुनिया
अब कहाँ गई है
मेरे अंधेरेपन की गली
रौशनी में नहा गई है
पर इतने जाहो जलाल में भी
तू आता नज़र नहीं क्यों होते हुए भी
ज़िंदगी भर रहेगा क्या मलाल ये भी
6 फ़रवरी 2025
शुक्रवार, 17 जनवरी 2025
लड़का
1995 के आसपास लिखी गई पंक्तियाँ
लड़का
भाग रहा है
सड़क पर
नंगे पाँव
पहिया दौडाते हुए
मैं
देख रहा हूँ उसे
पहिया बनते हुए...
विजय सिंह
किरण मैम के लिये (उनकी रिटायरमेंट के कुछ दिन बाद लिखी पंक्तियाँ)
2 मई 2011
किरण मैम के लिये
(उनकी रिटायरमेंट के कुछ दिन बाद लिखी पंक्तियाँ)
एक न एक दिन तो जाना ही था तुम्हें
तुम
जो अनंतकाल से बाट जोह रही थी कि न आओ
तो आ गया वो दिन कि जब तुम नहीं हो
क्या इसी दिन के लिए ही तो नहीं की थी वापसी मैंने
कि देखने को फिर से खाली नए शीशे से चमचमाता टेबल
कि खाली-खाली-सा मैं और चुप दराजें, और फ़ाईले
क्या फिर उन क्षणों को खींच लाने या उनमें जीने की चाह करूँ
असफल
अंतिम विदा बाक़ी है अभी
जिसे लेने कि तुम्हारी बेचैनी को समझ सकते हुए भी नहीं चाहता मैं समझना
मैं रुक कर तुम्हारी अनुपस्थिति से सिक्त होना चाहता हूँ
भीगता था जो तुम्हारी मौजूदगी में भी...