शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

फैज़ अंकल से हुई बात-चीत

मैं ऊपर गया था.

स्पेसबुक में एक पेज बुक है न सबके वास्ते
बस वहीं तक खुल गए थे मेरे रास्ते

फैज़ू अंकल से पूछा मैंने
मुहब्बत माँगने से क्यों रोका तैने
और क्या-क्या नहीं माँगना है
दिल के कटोरे को क्या अलगनी पे टाँगना है?
मैने कही के
मेरे तो माँगने पे भी कोई इनवीटेशन नहीं आत्ता
याए जीने से अच्छो तू भाड़ में काए नई जात्ता

उन्होंने कहा मुहब्बत माँगने से कहाँ रोका मैंने
यार मेरे गलत सुनली तैने
बस पहली सी मुहब्बत न  माँग
दिल को चाहे कहीं भी टाँग

कहा नहीं कुछ उन्होंने राँग
जब कुएँ में ही पड़ गई भाँग
शोर मचाने लग गए साँग
नाक हो गई सबकी लाँग
तो मेरे, इसके, उसके और न जाने किस-किसके
महबूब
भईया पहली सी मुहब्बत न माँग

1 टिप्पणी:

  1. मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
    वरना मेरे दूसरे महबूब कहाँ जायेंगे
    और महबूब भी हैं दुनिया में ओ तेरे सिवा
    रास्ते और भी हैं जाना तेरे दर के सिवा
    एक तेरे दर पे ही क्या जूतियाँ चटकाता रहूँ
    एक ही डिश,तो क्या हर बार यूँ ही खाता रहूँ
    दिल मेरा लालची है क्या कीजे
    लज्ज़तें और भी हैं क्या कीजे
    एक खिलौने से फ़क़त कैसे दिल बहलाऊं में
    गर मिला है तो फिर भर पेट क्यूँ न खाऊँ मैं
    तभी तो देता हूँ मुर्ग़े की तरह रह-रह बाँग-
    "मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग"

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