बुधवार, 30 सितंबर 2020

 

राम मंदिर बनवाना उनके निकट पवित्र कार्य था।

मंदिर बनवाना एक पवित्र कार्य था/है भी।

 

लेकिन यदि मंदिर वहीं बनना था तो बस एक ही अड़चन थी। यह स्पष्ट ही था कि यदि मंदिर वहीं बनाएँगे तो वहीं जो ढाँचा, या स्पष्टतः मस्जिद मौजूद थी, उसको गिराना पड़ता।

 

यह क़ानूनन ग़लत होता। और यही हुआ भी। यह क़ानूनन ग़लत रहा आया।

 

क़ानूनन ग़लत होना कोई बड़ी बात नहीं होती अगर आपकी मंशा सही हो।

 

मान लीजिए आपको किसी बीमार या दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अनिवार्यतः तुरंत अपने दुपहिया वाहन पर अस्पताल लेकर जाना पड़े और आपके पास ट्रैफिक नियम के तहत हेलमेट ना हो तो आप थोड़े ही क़ानूनन सही होने के चक्कर में किसी की जान जाने देंगे।

बिना हेलमेट ही निकल पड़ेंगे और जुर्माना भरना पड़ जाए तो अफ़सोस न होगा।

आप तसल्ली कर सकते हैं कि नियम आपने तोड़ा, लेकिन किसी के भले के लिये तोड़ा।  

 

तो मस्जिद तोड़ना ज़रूरी था। और अनिवार्यतः तुरंत ज़रूरी था।

हिंदुओं के भले के लिये यह ज़रूरी था।

आख़िर हिंदू कब तक सोया रहता।

 

कुछ क़ानून के अंधेपन की आड़ भी उपलब्ध हो गई थी।

एक महान (अ)टल नेता ने कह दिया था कि ज़मीन समतल करने की इजाज़त मिल गई है।

 

मगर क़ानून तो क़ानून है।

ज़ाहिर है यह ढाँचा गिराना अंततः ग़लत था ही।

और इस ग़लती के लिए, देश में ज़हरीला माहौल पैदा करने के लिए सज़ा भी मुक़र्रर की गई है।

 

पर हिंदू धर्म के भले के लिये यदि एकाध क़ानून तोड़ना भी पड़ जाए और उसके लिये सूली पर भी चढ़ना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं था।

 

हिंदू हृदय सम्राट के रूप में इस देश की सांप्रदायिक जनता के हृदय में सदा के लिये भी प्रतिष्ठित ही नहीं हो जाते, दूसरे भी तारीफ़ करते कि बंदे में था दम

जो कहा सो किया और कहा भी कि हाँ मैंने किया।

 

अब गांधी को ही देख लीजिए।

नमक क़ानून तोड़ा बंदे ने और डंके की चोट पर तोड़ा।

उस एक धोती पहनने वाले, अधनंगे फ़कीर ने क़ानून तोड़ने के लिये डांडी यात्रा भी की और हजारों-हजार लोगों के साथ की।

अधनंगे गांधी ने स्वीकार किया कि

हाँ बे अंग्रेज़ों मैंने नमक क़ानून तोड़ा।

और उनके साथ आए हजारो-हजार लोगों ने भी कहा कि

हाँ बे अंग्रेज़ो, बापू ने नमक क़ानून तोड़ा।

उखाड़ लो क्या उखाड़ लोगे।

 

क्योंकि गांधी बेशक़ क़ानूनन ग़लत थे, पर नैतिक तौर पर सही थे।

उसके एवज में जेल जाना भी उन्हें मंज़ूर था।

 

लेकिन

यह लीदरान हैं कि

इन्होंने हल्ला-शेरी दी

एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो

देश की जनता का ध्रुवीकरण किया

हजारों-हजार लोग इनके साथ थे और उस घटना के बाद

यह नेता लोग और इनकी साम्प्रदायिक जनता ख़ुशियाँ मना रही थी, इसके बावजूद

इन्होंने कहा - हमने तो यह किया ही नहीं

हजारों हजार जनता में से भी कोई नहीं बोला।

 

जो इनके नज़दीक पवित्र कार्य था उसकी ज़िम्मेदारी भीड़ पर डाल दी और लो

यह अँग्रेज़ों के परम् पिछलग्गू

बच गए।

 

ऐसे झूठ की नींव पर अपने धर्मस्थान बनाओगे बे?

 

फिर यह कथित कॉज़ के लिये लड़ने वाले टुल्लमटुल्लू नेता

गांधी का चरित्र हरण करते हैं और ख़ुद के लिये वैलिडिटी चाहते हैं।

 

ज़ाहिर हैं इन लीदरान की जैसी भी नैतिकता थी और उनके शरीर में यह नैतिकता

जहाँ कहीं भी वास करती थी (क्या पता मन में करती ही हो)

उसके अनुसार अपने कृत्यों का उन्हें पता था कि

यह उन्होंने ठीक नहीं किया।

 

तथाकथित हिंदू नेताओं के लिये ढाँचा गिराया जाना नैतिक तौर पर ग़लत रहा होगा तभी तो

आज तक वे उसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले पाए और

जिस पवित्र कार्य के लिये हँसते-हँसते उन्हें सूली पर चढ़ जाने के लिये तैयार रहना चाहिए था

उसे कर जाने को कभी स्वीकार नहीं कर पाए।  

 

इनसे अच्छे तो वे आतंकवादी संगठन होते हैं जो कोई घिनौनी वारदात को अंजाम देते हैं और फिर प्रेस रिलीज़ में इसकी ज़िम्मेदारी लेते हैं।

 

ढांचा गिराना अगर सही था तो ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए न!

ज़ाहिर है ढांचा गिराना सही नहीं था।

 

यदि कोई अवैध निर्माण होता है तो दिहाड़ी कर रहे मज़दूरों को पुलिस पकड़ती है या उस ठेकेदार को और फाइनेंसर को जो वह निर्माण करवा रहे होते हैं!

 

तो ऐ मेरे दोस्तो

सांप्रदायिक हिंदुओं

धरम के तथाकथित पहरेदारों

 

आप यदि उन लीदरों के कहने पर माथे पर तिलक लगाए, भगवा कफन बाँधे अगर निकल पड़े थे जयश्रीराम की हुंकार भरते हुए

तो आज जान लो

 

आप उस धर्मांध व्यवस्था के अवैध निर्माण में केवल दिहाड़ी मज़दूर थे/हो और

इल्ज़ाम आप ही के सर है

क्योंकि जिनके कहने पर आप चल पड़े थे,

प्रतिहिंसा की आग में जल पड़े थे,

वे अपने कहने से ही मुकर गए।

वह आपकी हुंकार नहीं, हुँआ-हुँआ साबित हुई।

 

आपकी दिहाड़ी के रूप में आपको क्या मिला?

स्वाभिमान? सुरक्षित भविष्य? आत्मिक और दैवीय मोक्ष?

 

सोच कर देखो बे तुम्हें क्या मिला।

ऐसा क्या मिला जो मस्जिद न तोड़ते तो तुम्हें नहीं मिलता और अब मिल गया।

 

ऐसा ही पवित्र कार्य इन्होंने गांधी को मारने का किया था।

लेकिन आज तक उसी गोडसे को अपना आधिकारिक आइकॉन नहीं बना पाए हैं हिंदू पाकिस्तान का सपना संजोने वाले यह भाषणवीर।

 

कुछ उन्मादी छुटभैये नेता ऐसा करते भी हैं तो मुख्य हिंदू पहरेदार कह देते हैं कि हम इन्हें मन से माफ़ नहीं कर पाएँगे

 

अरे अगर उद्देश्य पवित्र है तो स्वीकार करो ना।


https://www.bbc.com/hindi/india-54357292

बुधवार, 23 सितंबर 2020

बावजूद भी!!!

 

23 September 2019


कल मम्मी-डैडी नहीं थे घर पर तो....


तो कल मैंने बहुत दिनों बाद टीवी देखा। 


अपने माँ-बाप से डर उतनी वजह नहीं है टीवी न देखने की। 


असल वजह यह है कि टीवी मम्मी-डैडी के कमरे में है जो ग्राउंड फ्लोर पर है। और मैं सेकंड फ्लोर पर रहता हूँ।


मैं रात दस बजे के बाद ही घर दाखिल होता हूँ तब तक मम्मी-डैडी सो चुके होते हैं और मुझे भी अपने कमरे में लेट कर लैपटॉप देखना होता है। 


मेरे बच्चे और प्रोमिला भी - जो तब तक सोये नहीं होते, मेरे आने का इंतज़ार करते हैं क्योंकि मेरे फोन का वायफाय लैपटॉप से जोड़कर कोई फ़िल्म-शिल्म देखी जाती है। 


मेरे फोन में अच्छा ख़ासा इंटरनेट डाटा है और स्पीड भी उसकी ठीक-ठाक है। प्रोमिला और बच्चे अपना डाटा ख़त्म करके मेरी उडीक (इंतज़ार) में बैठे रहते हैं। 


सुबह कुछ समय के लिए मम्मी-डैडी के पास बैठता हूँ तो घर-परिवार की बातें होती हैं, इत्यादि। तो टीवी उस समय चलाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 


मेरे कमरे में टीवी नहीं है। 

कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वैल। 


दिन में या अर्ली ईवनिंग जब ये सब लोग घर में ग्राउंड फ्लोर पर होते हैं तो भी टीवी केवल कुछ ही देर के लिए देखते हैं। 

मम्मी-डैडी से डर केवल मुझे ही नहीं लगता।


वैसे टीवी लगभग सारा दिन चलता है। मेरे बापू को टीवी न्यूज़ देखनी होती है और वो एनडीटीवी को छोड़कर बाक़ी सभी न्यूज़ चैनलों की न्यूज़ें देखते हैं।

कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वैल। 


उन चैनलों में जो थोबड़े बार-बार दिखाये जाते हैं उन्हें हमारे घर में और कोई देखना नहीं चाहता। ख़ैर..।


मम्मी-डैडी पंजाब से रात की ट्रेन से लौट रहे थे। वे केवल दो रातों के लिए घर से बाहर थे। तो दोनों रात हमें उनके कमरे में सोना था। कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वेल। 


देश सुरक्षित हाथों में हैं बोलने वालों को सपोर्ट करते मेरे बाप को न जाने क्या हो जाता है जब रात नौ बजे के बाद वो मुझे बार-बार फोन करके मेरी लोकेशन जानना चाहते हैं और कहते हैं अज्जकल टैम बड़ा ख़राब ऐ छेती (जल्दी) घर आ जाया कर। ख़ैर...।


तो एक रात पंजाब में, और दूसरी रात वापसी के सफ़र में, मम्मी-डैडी घर से बाहर थे।


उनके पंजाब जाने का सफ़र दिन में ही पूरा हो गया था। सुबह पौने सात बजे की गाड़ी पकड़ वे दोपहर बाद तक गंतव्य स्टेशन उतर गए थे। 


मैंने अपने मोबाइल ऐप से दोनों की टिकट बुकिंग सीनियर सिटीजन कन्सेशन के साथ की थी और सीट प्रेफ्रेंस में विंडो लिखा था। मुए रेलवे ऐप को न जाने क्या हुआ एक को सीट नंबर 8 दिया और दूसरे को 18, यानी दूर-दूर। 


आप कह सकते हैं कि जो सीट अवेलेबल होगी वही मिलेगी। पर जनाब! जब मैं बुकिंग कर रहा था तो 452 सीटें अवेलेबल थीं जी। इन अच्छे दिनों में दो बुज़ुर्गों को आमने-सामने सीट भी न दे सकी रेलवे!! 

ख़ैर...।


मम्मी-डैडी दो रातों के लिए घर से बाहर थे और मुझे, प्रोमिला और हमारे एक बच्चे को नीचे, यानी ग्राउंड फ्लोर वाले कमरे में सोना था। 


पहली रात मैं घर जाते ही सो गया क्योंकि बहुत थका हुआ था। दूसरी रात थोड़ा-सा टीवी देख के सोया क्योंकि घर में जब घुसा तो बच्चे टेलीविजन लगाकर बैठे थे और केबीसी आ रहा था। 


मुझे जैसे यह मालूम नहीं है कि साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम इंडिया आई हुई है, उसी तरह मुझे यह भी पता न था कि केबीसी अब भी आता है। 


तो उस समय केबीसी आ रहा था। 

शो के एंकर जिन्हें इस सदी का महानायक कहा जाता है, के सम्मुख एक ज़ोरदार अभिनेता की हट्टी-कट्टी बेटी - एक हीरोइन बैठी थी। वह सदी के महानायक के सम्मुख हॉट सीट पर एक उद्यमशील महिला के साथ बैठी थी। 


रानी पद्मावती की (कुछ लोगों के अनुसार) काल्पनिक या अवांतर-वास्तविक कथा पर आई फिल्म का पुरज़ोर विरोध करने वालों के आन-बान जैसा ही गाँव रहा होगा जहाँ यह उद्यमशील महिला पैदा हुई और पली-बढ़ी थी। जैसा कि शो से पता चल रहा था, उस घोर चाउवनिस्टिक समाज में रहकर भी ख़ुद को और साथी महिलाओं को आगे बढ़ाने, उनकी आर्थिक स्थिति सुधरवाने में उस उद्यमशील महिला ने उल्लेखनीय काम किया था।


जिस प्रकार के उसके कामों और सब महिलाओं के साथ से सबके वाकई और किसी नारेबाज़ी से दूर सच्चे विकास का काम वह करती आ रही थी, मुझे वह वामा वामपंथी प्रतीत हुई। 


उसने मार्क्स और समाजवाद भले न पढ़ा हो, मगर पद्मावती सरीखी-सुंदर, महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता की पक्षधर वह महिला समाजवाद और कम्यूनिज़्म के दर्शन को जी रही थी (बोले तो, आय फेल्ट लाइक दैट)। 


केबीसी में पूछे गए एक रामायण आधारित प्रश्न का सीधा-सादा उत्तर दमदार अभिनेता की वह हट्टी-कट्टी हीरोइन न दे सकी, न ही दे सकी उस प्रश्न का उत्तर वह उद्यमशील महिला ही, जिसके साथ थी बैठी वह हीरोइन। उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन दोनों महिलाओं को लाइफलाइन रूपी एक एक्सपर्ट का सहारा लेना पड़ा जो कि येट अगेन एक महिला थी। उस एक्सपर्ट ने बचपन या कैशोर्यावस्था में देखे एक टेलीविजन सीरीयल का वास्ता या हवाला देकर बताया था कि हनुमान संजीवनी बूटी लक्ष्मण के लिए लाए थे। और जैसे लक्ष्मण की बची थी, इस लाइफलाइन से उन दोनों महिलाओं की जान बची थी। गोया वह महिला गंधमादन पर्वत से ही अवतरित हुई हो। 


हट्टी-कट्टी हीरोइन के इस आसान-सा जवाब दे पाने में अक्षम रहने को लोगों या ट्रोलों, जो भी आप कहें, ने हाथों-हाथ लिया और सोशल मीडिया पे दे पोस्ट-पे-पोस्ट पेलकर हट्टी-कट्टी हीरोइन को निंदाने लगे (इस सेन्टेंस को आप लास्ट वाले 'दे' के बिना भी पढ़ सकते हैं अगर चाहें)।


सोशल मीडिया पर उस उद्यमशील वामा की उद्योगिता की प्रशंसा में लेकिन एक भी पोस्ट न थी।


हैरानी इस बात पर भी थी कि उस मोस्ट ईज़ी क्वेश्चन का सिंपलेस्ट आन्सर वह उद्यमशील महिला भी न दे पाई थी किन्तु उसकी इस अज्ञानता को आराम से इग्नोर दिया गया। सबको शिक़ायत थी तो केवल हट्टी-कट्टी हीरोइन से जिसके पापा का नाम रामायण के चरित्रों में से एक पर था और चचा-ताऊ के नाम भी जस्ट लाइक दैट थे। और तो और, दमदार अभिनेता की बेटी हट्टी-कट्टी हीरोइन के घर का नाम भी रामायण था।  तो जनाब ट्रोलों ने तो ट्रोलना था और वे जी भर के ट्रोले भी।


ओह हो!! मेरी यह पोस्ट सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है, या हनुमान की पूँछ की तरह लंबी होती जा रही है। 


अब तक वह बात नहीं आई जिसे लिखने के लिए यह पोस्ट शुरू की थी।


तो मैंने जब कई दिनों बाद टीवी देखा, और टीवी में उस समय आ रहा केबीसी देखा तो मैं क्या देखता हूँ कि अमिताभ बच्चन किसी बात को कहते हुए 'बावजूद भी' बोल रहे हैं। यानी शब्द 'बावजूद' के साथ शब्द 'भी' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं।


मैंने सुना है कि 'बावजूद' के साथ 'भी' का प्रयोग नहीं होता क्योंकि 'भी' बावजूद में अंतर्निहित है।


एक समय टीवी पर सत्यमेव जयते नामक कार्यक्रम में मैंने अभिनय की खान आमिर ख़ान को भी 'बावजूद' के बाद 'भी' का प्रयोग करते देखा था। 


मुझे उस दिन कोफ़्त हुई थी। पर कोफ़्ते जो उस दिन घर में बने थे टेस्टी बने होने के कारण मेरी खीझ की एनर्जी  डाइवर्ट होकर खाने की तारीफ़ में कन्वर्ट हो गई थी।  


आमिर ख़ान से तो जो शिक़ायत थी, सो थी, पर अब अमिताभ बच्चन ने भी 'बावजूद' के बाद 'भी' बोल डाला। इस बात से मेरा कान्फिडेंस थोड़ा हिल गया, कि यार कहीं मैं ई तो गल्त नईऊँ? 


तो आज की रात, जब मैं यह पोस्ट लिखते हुए आधी रात के इस पार आ गया हूँ, मैं, प्रोमिला, हमारे ज्वाइंट फैमिली के बच्चे-कच्चे हमारे ऊपर वाले अपने कमरे में सो रहे हैं। और आज (यानी टेक्निकली कल) हमने लैपटॉप पर एक नहीं, पूरी दो-दो फ़िल्में देखीं। एक तो थी राजेश खन्ना और नंदा अभिनीत सस्पेंस फिल्म इत्तेफाक। और दूसरी में भी नंदा थी। दूसरी फ़िल्म का नाम था गुमनाम। 


फ़िल्म इत्तेफाक के एक सीन में जब मैंने इफ़्तेख़ार जैसे मँझे हुए अनुभवी अभिनेता को एक संवाद में 'बावजूद भी' बोलते देखा तो क़सम से मुझपे क्या गुज़री होगी अल्ला ही जानता है। 


तो अब आप ही बताइए भाईसाहब 

क्या 'बावजूद' के बाद 'भी' लगाना करेक्ट है?