शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

मेरी वैसी ऐसी पोस्ट

 2 अक्तूबर 2019 

मालूम तो है ही आपको के फ़ेसबुक अपनी बात लोगों तक पहुँचाने का अच्छा माध्यम है। इस मंच से दूसरों की बातें सुनी भी जा सकती हैं जैसे इस समय आप सुन रहे हैं।


पोस्ट डलते ही आम हो जाती है इसलिए बहुत सोच-विचार कर पोस्ट डाली जाती है। कभी-कभी तो इसीलिये पोस्ट लिखने में सुबह से शाम हो जाती है या फिर हो जाती है शाम से सुबह। 


यह सब फक़त लाइक्स के लिए बीस-तीस? नहीं जी! यह आपकी ओपन डायरी भी तो हो जाती है!


आपको मालूम है कि अगर मैं अपने बारे में बात कर रहा हूँ तो आप सब को बताने के लिए कर रहा हूँ। या फिर कोई राजनीतिक पोस्ट वग़ैरह अपने आकाओं को ख़ुश करने के लिए डाल रहा हूँ। या किसी एक मुद्दे पर अपना नुक़्ता-ए-नज़र पेश कर रहा हूँ। कई बार जब बात कहने में मुश्किल होती है और किसी और ने कह दी होती है या किसी की पोस्ट आपको अच्छी लग जाती है तो आप उसे शेयर कर डालते हैं। ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को पता लगे।


लेकिन पिछले दिनों मैंने देखा कि बाज दफ़े ऐसी पोस्टें भी डाल दी जाती हैं जो किसी एक व्यक्ति को टारगेट करके लिखी जाती हैं। उसका पब्लिक से मतलब नहीं होता फिर भी डाल दी जाती हैं। 


वह व्यक्ति आपकी फ्रेंड लिस्ट में होकर भी आपका फ्रेंड नहीं होता। बट ही इज़ नॉट अ घोषित दुश्मन आल्सो।


तो वह पार्टीकुलर पोस्ट उसी व्यक्ति को व्हाट्सऐप या एसएमएस के माध्यम से क्यों नहीं कही गई? 


चूँकि वह बात नुक़्ताचीनिकल या निंदाने वाली होती है, उस व्यक्ति को सीधे-सीधे नहीं कही जाती। 

याई के मारे फेसबुक पै पोस्ट डारैं। 


मुझे मालूम नहीं अब भी यह ट्रेंड है के नहीं, पहले शहर की दीवारों पर इफ़रात से कुछ वाक्य लिखे मिलते थे जैसे 

रिश्ते-ही-रिश्ते मिल तो लें 28 रैगरपुरा, करोलबाग़ दिल्ली।

खोई हुई जवानी व भरपूर ताक़त दोबारा प्राप्त करें अशोक क्लीनिक, आज़ाद पुर या ख़ानदानी शफ़ाख़ाना, दरियागंज।

इत्यादि।

ऐसे कई वाक्य दूर तक हमारा पीछा करते, और कभी-कभी तो सामने आकर खड़े हो जाते। अगर मैं ट्रेन से कहीं जाता तो देखता रास्ते में ट्रेन की खिड़की से जो भी दीवार दिखाई देती, उस पर उपरोक्त दोनों वाक्य जुगलबंदी कर रहे होते। एक और वाक्य किसी सीमेंट और किसी सरिये के बारे में था। इन वाक्यों से मेरा कोई मतलब न होने पर भी सामने दिखाई दे जाने पर मुझे इन्हें पढ़ना पड़ता और धीरे-धीरे मैं यह समझने लगा कि ख़ानदानी शफ़ाख़ाने का रास्ता 28 रैगरपुरा से होकर गुज़रता है। और उसके बाद ओनिडा टीवी, सीमेंट और सरिये का काम पड़ता है। 


एक शहर को लांघती गाड़ी दूसरे शहर में प्रविष्ट होती लेकिन यह वाक्य गाड़ी के साथ-साथ चलते और गाड़ी की लंबाई से भी लंबे हो जाते। मुझे लगता कि सुदूर दक्षिण और नॉर्थईस्ट में भी कहीं यही कुछ चंद वाक्य लिखे न मिल जाएँ।


कहीं यही वाक्य तो नहीं थे जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध रहे थे! 


स्कूल-कालेजों के बाथरूमों, बाहर की दीवारों, गार्डनों के दरख़्तों पर एकाध ऐसा वाक्य लिखा मिलता था जिसे पढ़कर पता चलता था फलाँ लड़का फ़लाँ लड़की से प्यार करता है। या आय लव यू फलाँ लड़की। इन दो-तीन शब्दों के बीच में या इधर-उधर दिल का निशान भी बना होता था, और अधिकतर दिल के बीच में से तीर गुज़रते हुए दिखाया जाता। यह बहुत सफ़ाई से किया गया काम होता कि लगता गोया लिखने वाला प्रेमी नहीं कला-प्रेमी है, या फिर टू-इन-वन है। 


मैं अक्सर सोचता कि फलाँ लड़का फलाँ लड़की के प्रति प्यार के अपने स्वीकार को दीवार पे काय कू लिख रहा है? अबे अगर तुझे प्यार है तो उस लड़की को जाकर बता न! जैसे कुछ लोग दीवार को स्वजलधारा से सिंचित करते हैं तुम कोयले से उसकी सुँदरता बढ़ाना चाहते हो!!!


ख़ैर! 

बैक टू फ़ेसबुक।


अभी मनीष जोशी (हिसार वाले) की एक ऐसी पोस्ट देखी जिसमें उन्होंने एक व्यक्ति जिसे वो बड़ा ड्रेक्ट्र समझ रहे थे, वह चोर निकला का उलाहना अपनी पोस्ट के माध्यम से दिया है। लेकिन उन उलाहना रिसीवर का नाम अपनी पोस्ट में नहीं लिखा। मैं दुआ करता हूँ, उन उलाहना रिसीवर जी ने उस पोस्ट को पढ़ लिया होगा और विदाउट ऐनी ऐम्बिगिटी उसे स्वीकार या अस्वीकार चुपके से कर दिया होगा। वैसे भी, व्यक्ति को अपनी सफलता को ऐग्रीगेट करना चाहिए न कि चोरी जैसी छोटी-मोटी बातों पर रिग्रेट करना चाहिए।  


इस पोस्ट और ऐसी कई अन्य मितरों की आइडेंटिकल पोस्टें पढ़कर कुछ-कुछ मायने समझ में आते हैं जिनका मनीष जोशी हिसार वाले से कोई स्ट्रेट ताअल्लुक़ न माना जाए। 


जनरली इसके दो (या शायद तीन-चार) फ़ायदे होते हैं। 


एक तो यह कि अमुक को अपनी बात कहकर देल्ल (दिल) नूं ठंड पै गी, और कौनो नुकसनवा भी नहीं हुआ। 


और यह भी कि 'मइ किस्सी से डरता नक्को साफ़-साफ़ कैने वाला आदमी ऊँ' का भाव भी बना रहता है। साथ ही बंदे तक बात भी पहुँच जाती है और उससे (रि)लेशनशिप भी क़ायम रहती है। कल को आप आसानी से कह सकते हैं - मैंने आपके लिए थोड़े ही कहा था जी!! 


या हो सकता है ऊपर जो बातें मैंने कही, वैसा न होता हो बल्कि कुछ और ही होता हो। 


इस पोस्ट, और दीगर पोस्टों को पढ़कर कछु और मायने बी सम्ज आ रे ऐं पै दिल कै रा ऐ 

ओ छड्ड वी यार हुण!!


और जब अनेक मिट्रों की ऐसी पोस्टें देखीं तो मैंने सोचा क्यों न मैं भी ट्रेंडी बन फेसबुक में विचरण करूँ और ऐसी पोस्ट डालूँ!! निंदा वाली नहीं तो न सही, कुछ और सही। 


तो दोस्तो

मेरी वैसी ऐसी पोस्ट यह रही - 


आज शाम साढ़े छह बजे रिवोली सिनेमा पर मिल जाना।