मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

एक्सीडेंटल या प्लान्ड उर्फ़ प्लांटेड

 एक्सीडेंटल था

उस पर किसी और का कंटरोल था


जे बातें ऐसे बता रए जैसे 

आम लोगन कू पैले से पतो ई न था। 


एक्सीडेंटल न होकर सुनियोजित होता तो उस पर किसी और का कंट्रोल

नहीं होता क्या? 


जे वाला बेलगाम हैगा क्या? 


बेलगाम कोई न होत्ता, 

बस यू देखना पड़े के यो लगाम ससुरी है किसके हाथ मै। 

आम जन के हाथ में लगाम न होती कभी। उनके हाथ में तो केवल लगान होता है 


ये बात आम जन और मैंगो पीपुल सब कू मालूम है 

कोई सिकायत भी न करता इस बात की । 

इसी को शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व कहवें (जादा एक्सप्लेन 'उखाड़ लेंगे' वाली पंक्ति के बाद किया गया हैगा)। 


तो, जे जो नियोजित किया गया है न, 

जे जो एक्सीडेंटल नाय हैगो, 

इसके बी सब सीक्रेट सब कू मालूम ऐ। 

इसके भक्तों को बी मालूम हैंगे (जैसे उसके भक्तों को मालूम थे)। 


कई तो इसके भक्त हैं ही इसीलिए के उन्हें वो सब मालूम है।  

उन भक्तों को चईए ई ऊ।

विकास लेके ऊ के करेंगे?

स्वच्छता अभियान के उनके अपने मतलब हैंगे। 


सब कौ पतौ जे नियोजित है और आन वारा बी नियोजित ई होएगो।

एक्सीडेंटल बी होयगो तौ हम्म के उखाड़ लेंगे। 


---


शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का अर्थ है आप इन्सेक्योर रहें और वो सेक्योर।

आप सिर्फ इसी बात से सुरक्षित महसूस करें के उसकी निगाह आप पर न पड़ी। 

वरना वो जब चाहे आपको मार दें और आप चूँ न करें और कातिलों को थैंक यू कहें कि वो और बुरी तरह से आपको मार सकते थे लेकिन उन्होंने बख्श दिया। 


आपमें ऐसी दिव्य भावना की मौजूदगी को वो समय-समय पर दंगों, इंकुइरी (inquiry) इत्यादि से टेस्ट करता रहता है और शासित होने का शार्ट टर्म कोर्स आपको करवाता रहता है। 

आप डर-कर-मर-कर टाइम पास करते हैं। सामने से आता कोई आपका कुशल मंगल पूछता है तो आप कह देते हो - ठीक ही चल रहा है सब।


29 December 2018

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

नागरिकता संशोधन क़ानून

 मैं बेहद ईमानदारी से यह यकीन करना चाहता हूँ कि 

जो लोग सिटीज़नशिप अमेंडमेंट क़ानून का विरोध कर रहे हैं 


18 December 2020


वे ऐसा इसे बिना पढ़े कर रहे हैं 


और यह भी कि वे लोग 

विरोध करने के आदी हैं 

और देश के विकास के विरोधी हैं 

और कभी उनकी अपने धर्म के तो क्या 

सगे भाईयों तक से नहीं बनी। 


तभी तो यह विरोधी ग़ैरमुल्की हमधर्म को आने नहीं देना चाहते


इस ब्यूटीफुल ऐक्ट का विरोध करने वाले लोग ग़ैर ज़िम्मेदार हैं और ऊलजुलूल बातें करने के शौकीन हैं। 


उनके पास बहुत पैसा और संसाधन हैं और उन्होंने सोचा कि 

बैठे-ठाले क्या करें, रुपया तो आप-से-आप पैदा हो रहा है। 

तो चलो विरोध करते हैं। और वे बग़ैर कुछ सोचे समझे 

सीएए (नागरिकता संशोधन क़ानून) का विरोध करने लगे। 


इन विरोधकों में से कइयों को तो इस सर्दी में पुलिस की लाठियाँ खाने से विशेष प्रेम है।


और जो लोग इस क़ानून (नाम एक बार फिर बता दूँ, सिटीज़नशिप अमेंडमेंट ऐक्ट) के समर्थन में हैं

वे इसे मात्र पढ़कर ही नहीं,

अपितु इसका आमूलचूल अध्ययन करके आए हैं। 


उन्हें अपने सभी हमरिलीजनों से बहुतै जादा मुहब्बत है 


कि वे सगे भाईयों से कभी नहीं लड़े और अपने धर्मिंदा लोगों को अपनी ओर से जो हक़ उन्हें अपने तौर पर देना चाहिए 

उन्होंने दिये हैं।


दिल्ली, गुजरात और मुंबई में (अमंग्स्ट अदर्स) बिहार के लोगों को जो इज़्ज़त हासिल है 


उससे कहीं अधिक ज़्यादा पुरख़ुलूस मुहब्बतो-अक़ीदत से,

बाहर से आने वाले लोगों का वेलकम 


देश के यह सच्चे समर्थक करेंगे जो मेजॉरिटेरियनिज़्म और माइनॉरटी-इज़्म से कोसों दूर हैं।


सताए हुए लोगों का बाहें खोलकर स्वागत करेंगे इस क़ानून के समर्थक क्योंकि वसुधैव कुटुंब come नामक हाई-डेफिनेशन और हाई-रिज़ॉल्यूशन के ओजस्वी विराट थॉट से सम्पृक्त हैं दीज़ लरनेड पीपल।


तो दिलाइए मुझे यक़ीन।

शनिवार, 12 दिसंबर 2020

 नॉरमली अपनी फोटो लगाता नहीं मैं फेसबुक पर अपनी पोस्टों के साथ। पर आज दो-दो लगा रखी हैं। थोड़े-बहुत अंतर के साथ दोनों लगभग एक जैसी हैं। चाहता तो था मैं सिर्फ़ हिमाचली टोपी की फोटो लगाना, पर बिना सिर के कैसे दिखाऊँ इस कोशिश में दो-तीन फोटो खींची भी पर मज़ा न आया। सोचा जब पहनकर ही दिखानी है तो सिर के साथ थोबड़ा भी आ ही जाए तो कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए।

तो मेरी इस पोस्ट की वजह यह हिमाचली टोपी है जिसे मैंने कुछ और टोपियों के साथ नवंबर 2018 में शिमला से ख़रीदा था। आज इस ऋतु में पहली बार पहनकर जब मैं लुटियंस की दिल्ली में अशोक रोड पर टहलते और तमाशा-ए-अहले करम देखने की नाकाम कोशिश में चलता हुआ मंडी हाउस की जानिब आते हुए जनपथ के गोलचक्कर से ज़रा पहले पहुँचा ही था कि मेरे पीछे से आते एक ऑटो वाले ने बेसाख़्ता मेरे पास पहुँचकर कुछ कहा।
मुझे लगा कि या तो वह मुझे कोई संभावनाओं से लबरेज़ कोई सवारी समझ रहा है या दिल्ली के इस हिस्से में अक्सर न चलने के कारण कोई रास्ता, या कोठी नंबर, इत्यादि पूछ रहा है।
अपने कानों में 70 रुपये वाला (माफ करना) चाइनीज़ हेडफोन ठूँसे हुए मैं आकाशवाणी की ख़बरें सुनता हुआ जो दिख जाए उसे देख लेने की हसरत लिये बिना कहीं पहुँचने की जल्दबाज़ी के मंथर गति से कदमताल कर रहा था।
चूंकि मैंने उसे देख लिया था और नोटिस कर लिया था कि वह कुछ कह रहा है, अतः लाज़मी था कि मैं रुकता, अपनी दुनिया से बाहर आता और उस ऑटो वाले की दुनिया और अपनी दुनिया के बीच की द्विपक्षीय किंतु सार्वजनिक दुनिया में उससे संवाद करता और पूछता - हाँ भाई क्या है।
मैंने अपने मोबाइल को ऑन किया। उसका लॉक खोला। आकाशवाणी के डाउनलोडेड ऐप में पहुँचकर उसमें चल रहे समाचार बुलेटिन को रोकने के लिये पॉज़ का बटन दबाया और फिर कानों में पैबस्त किसी चाइनीज़ कंपनी के 70 रुपये वाले ईयरफोन, जिसके माध्यम से मैं सुन रहा था कि पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन सरहदी इलाक़े में बने तनाव और वर्तमान स्थिति पर हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने क्या कहा है, को अपने कानों के कुछ देर के लिये जुदा करने के बाद मैंने उस ऑटो वाले से प्रश्नवाचक स्वर में कहा - जी कहिए क्या बात है?
उसने हिमाचली में कहा (जो मुझे समझ आती है पर बोलने का अभ्यास नहीं है हालाँकि प्रोमिला जब अच्छे मूड में होती है तो मुझसे हिमाचली में ही बात करती है) कि आप कहीं जा रहे हैं तो छोड़ दूँ।
अजनबियों को अपना से लगने वाले और अपनों को अजनबी से लगने वाले इस शहर-ए-दिल्ली में अचानक आपके पास आकर कोई अनजान आदमी जब इस तरह का प्रपोज़ल दे तो उसे अक्सर इन-डीसेंट माना जाता है।
लेकिन मेरे अंदर जो देहाती आदमी है (हालांकि मैं पैदा हुआ और पला बढ़ा दिल्ली में ही पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि मैं कोई गँवई थाट का राग हूँ, जिसे अभी तक गाया नहीं गया) उसने बात को एकदम समझ लिया। मैंने हँसते हुए कहा - इरादा तो मेरा पैदल जाने का था, किंतु अब आप आकर रुके हैं तो चलिए मंडी हाउस के गोलचक्कर तक छोड़ दीजिए। इस पर भी ऑटो वाले ने पूछा कि क्या मुझे हिमाचल भवन जाना है।
मैंने अपनी आदत के मुताबिक उससे पूछा तो उसने बताया कि वह हमीरपुर का है। उसने कहा आप देखने में हिमाचली लगते हो और आपकी टोपी देखकर मैंने ऑटो रोक लिया सोचा आप मेरे पहाड़ी भाई हो तो चलो आपको कहीं छोड़ देता हूँ। उसने काम्प्लीमेंट दिया - सर जी मैं हिमाचली हूँ पर आप तो मुझसे भी ज़्यादा हिमाचली लग रहे हो। मैंने इस तारीफ़ को मन-ही-मन स्वीकारते हुए अपने आपसे कहा आजकल होने का नहीं, लगने का ही ज़माना है।
मुझे मंडी हाउस पर उतारकर सकुचाते हुए वाजिब राशि बोहनी के नाम पर स्वीकार कर वह ऑटोवाला वापिस चला गया।
मगर उस ऑटो वाले से मुलाक़ात से कुछ पहले एक और घटना हुई थी।
पटेल चौक पर गोल डाकख़ाने के सामनेवाले चौड़े और लुटियाना-भव्य खुलेपन से सुसज्जित फुटपाथ पर चलते हुए मुझ को सामने से एक व्यक्ति आता दिखा। वह कोई पच्चीस से तीस बरस के बीच का कोई नौजवान था मगर लुटा-पिटा। इस कोहरेदार सुबह और धीरे-धीरे बढ़ती सर्दी में वह शख्स फटेहाल तो नहीं पर अपने अल्प वस्त्रों में थोड़ा-बहुत कांपता चलता हुआ, शायद अपने भीतर जलता हुआ फिर भी बेखबर और चिंताओं से भरी किसी अन्य दुनिया में दाखिल चल रहा था। उसने मेरी ओर देखकर भी नहीं देखा, जैसे आमतौर पर सड़क पर चलते हुए हम करते हैं। किंतु मैं उसकी ओर देखकर उसे अनदेखा न कर पाया। मन में ख़याल आया क्या मैं उसके लिये कुछ कर सकता हूँ? शायद आपने भी महसूस किया होगा कि आजकल ऐसे दिखने वाले लोगों की संख्या अचानक से बहुत बढ़ गई है।
तो मुझे लगा कि शायद भूख लगी हो उसे तो चाय और एक ब्रेड पकौड़ा उसे ऑफ़र करूँ। पर यह हो कैसे? उससे सीधे-सीधे तो पूछा नहीं जा सकता था। हारा हुआ-सा वह नौजवान अपनी नियति से जूझ रहा था। पर ऐसा भी नहीं था कि उसने मेरी ओर सहायता की याचना-भरी दृष्टि से एक बार भी देखा हो।
तो पहल मुझे ही करनी थी। मैं उसके रास्ते में आया और मुझे अपनी ओर आता देखकर उस व्यक्ति में एक असहजता और अपनी ख़याली दुनिया से बाहर आने की जद्दोजहद नज़र आई। वह व्यक्ति मेरे स्वागत को तैयार न था कि मुझसे पूछे जी बताएँ मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ। पर यकायक मेरे सामने पड़ जाने पर उसका मुझसे कोई छुटकारा भी न था।
उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मैंने कहा - यहाँ आसपास कहीं ब्रेडपकौड़ा बनता है क्या?
उसने असंपृक्त लापरवाही और मेरे प्रश्न की व्यर्थता पर मानों हल्की-सी चिढ़ के साथ बड़े ही बेमन से फिर भी बिना असभ्य हुए जवाव दिया - बनता होगा। और मुझे वहीं खड़ा छोड़ वह अपने रास्ते चलता गया। उसने जो एक पुरानी सी और घिसी हुई ट्रैक पैंट जैसा जेबों वाला कई दिनों से पहना हुआ पायजामा पहन रखा था, उसकी जेब में से बीड़ी का बंडल और माचिस झाँक रहे थे।
मैं कुछ देर के लिये वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। अपनी असमर्थता से टक्कर हो जाने पर लाचार-सा मैं पुनः चलने लगा।


बुधवार, 9 दिसंबर 2020

 जब भी कोई नाट्य प्रस्तुति देखता हूँ, अभिनेताओं और निर्देशक के प्रति कृतज्ञता से भर जाता हूँ। 


कई प्रस्तुतियाँ बेहद अच्छी होती हैं, कई कम अच्छी और कुछ-कुछ ऐसी भी कही जा सकती हैं जो प्रभावित न करती हों या एकदम यूँ कहें कि बेकार हों।


लेकिन एक घटिया-सी प्रस्तुति में भी काफ़ी मेहनत तो लगी ही होती है। साथ ही, उसे दर्शकों के सम्मुख लेकर आने में ग़ज़ब की हिम्मत और एक अजब-सा आत्मविश्वास चाहिए होता है। 


मेरा मन उस हिम्मत और आत्मविश्वास को सलाम करने का होता है। क्योंकि यह दोनों ही मुझमें नहीं हैं।


बतौर एक रंगकर्मी मैं जब निर्देशक होने के बारे में सोचते हुए किसी कमतर-से लगने वाले नाटक को देखता हूँ, तो पाता हूँ कि इससे अच्छा तो क्या मैं कभी ऐसा नाटक भी निर्देशित नहीं कर पाऊँगा जैसा मैं देख रहा हूँ।

9 December 2020

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

 मैं तुम्हारी बात मानूँगा

तुम मेरी बात मानोगी


इसका मतलब 

हम दोनों एक-दूसरे की बात

नहीं मानेंगे।


8 December 2018

सोमवार, 7 दिसंबर 2020

दावा और हक़ीक़त

मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे लिए चाँद तारे तोड़ लाऊँगा। वो बोली तोड़ लाओ। अब मुसीबत मेरी शुरू हो गई। इत्ती दूर जाएँ कैसे? इसरो से सेटिंग की। उनका वाला एक हवाई जहाज़ किराए पर लिया। फुल स्पीड पे उड़ाया। लेकिन जब तारों के पास पहुँचा तो पृथ्वी वहाँ से ओझल हो चुकी थी। और जो तारे पृथ्वी से मोतियों जैसे लग रहे थे, अब नज़दीक जाकर पता चला कि एक-एक तारा पृथ्वी से लाखों गुना बड़ा है। तारे भरने के लिए जो झोला ले गया था उसे ख़ाली ही लेकर वापिस आ रहा हूँ लेकिन समझ नहीं आ रहा कि ये पृथ्वी कौन से रूट पर है।


6 December 2020

Ajay Rohilla, Arun Kumar Kalra and 43 others
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गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

मैं शक्ति की ओर नहीं


3 दिसंबर 2017


 शक्ति मेरी ओर नहीं है


आराधन में रह गया अभाव

न हो पाई मौलिक कल्पना


दरअसल युद्ध जैसा कुछ मैंने माना ही नहीं

जो भी था संघर्ष

थोपा गया था मुझपर 


राम नहीं था मैं

और मेरी सीता मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही जीवन समर है


फिर क्योंकर करता मैं शक्ति की आराधना


वह शक्ति जो रावण के पास है

रहे

करे वह राज

काज मेरा केवल छोटा सा

जीवन सार्थक जीना


शक्ति आप केवल आराधन से होतीं प्रसन्न। चाहे रावण ही क्यों न हो आपका आराधक

तो क्षमा करें

आप चाहे किसी की भी ओर रहें


मैं आपकी ओर नहीं हूँ।


(राम की शक्ति पूजा पढ़ते हुए)

बुधवार, 2 दिसंबर 2020

 धीरे-धीरे दुख

मुझमें पैठता जाता है


अकेले ही

पीने में ज़हर का प्याला

मज़ा आता है।

2 December 2017

सोमवार, 30 नवंबर 2020

डिजिटल धोखा

 लेट था।

फिर भी सोचा ईएमयू कोई मिल जाए तो अच्छा हो।

अॉटो के पैसे बच जाएंगे।


काफ़ी देर तुग़लकाबाद दिखाकर व्हेयर इज़ माई ट्रेन ऐप ट्रेन को ओखला दिखा रहा था।

यानी ट्रेन निज़ामुद्दीन आने वाली थी। 

 

घर से दो किलोमीटर होगा रेलवे स्टेशन। तेज़-तेज़ पैदल चलकर, रिक्शा के पैसे बचाकर निज़ामुद्दीन पहुँचता हुआ मैं मालगोदाम के शॉर्टकट रास्ते से  स्टेशन में दाखिल हो रहा था।


मेरे और प्लैटफॉर्म दो के बीच खड़ी थी मालगाड़ी।

जोखिम लेकर पटड़ी-पटड़ी होता हुआ और न जाने किन-किन वस्तुओं से बचते-बचाते  प्लैटफॉर्म 2 पर पहुँचा ही था कि

ऐप ने नया अपडेट दिखाया।


गाड़ी निज़ामुद्दीन पार कर प्रगति मैदान पहुँच चुकी थी। 


यानी ऐप में निज़ामुद्दीन का ज़िकर ई कोई नी!! अपडेट करने वाला चला गया होगा चाय पीने। इस बीच रेलगाड़ी छलांग लगाकर ओखला से सीधे प्रगति मैदान पहुँच गई - बोल पवनपुत्र हनुमान की जै!!


उपन्यास राग दरबारी के पात्र रंगनाथ की याद हो आई जिसकी रोज़ 2 घंटा लेट आने वाली पैसेंजर आज मात्र डेढ घंटा लेट होकर ही चल दी थी। 


पर मेरे पास तो गाड़ी की स्थिति बताने वाला ऐप था जिसे मैं पल-पल देखता हुआ, आशा भरे क़दमों से स्टेशन की ओर बढ़ रहा था। निज़ामुद्दीन स्टेशन पर मेरे दाखिल होते तक जो ऐप ट्रेन को पिछले स्टेशन यानी ओखला शो कर रहा था, वह अब अचानक से प्रगति मैदान शो करने लगा। 

बोले तो गाड़ी ने फोर-जी की स्पीड को भी मात दे दी।  


डिजिटल धोखा खाया

मजबूरी में अॉटो ही से दफ्तर आया।

30 November 2018

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

ट्रेन में अकेले यात्रा

18 November 2018

भाईसाहब आप अकेले हैं?

जी हाँ
आप प्लीज़ मेरे हसबैंड की जगह ले लीजिए।
जी!!!????
मेरा मतलब मेरे हसबैंड की सीट दूसरे कोच में है, हम दोनों यहाँ साथ बैठ जाएँगे।
देखिए, अभी सामान सेट किया ही है मैंने।
आप ही वहाँ क्यों नहीं चली जातीं?
सर वहाँ कोई अकेला नहीं है जिससे सीट स्वैप की जा सके।
प्लीज़!!!
चलिये ठीक है।
मेहरबानी भाईसाहब।
सी-नाइन सिक्स्टी फाइव।
विंडो सीट है।
जी। विंडो सीट की बड़ी सौग़ात बख़्शने के लिए शुक्रिया।
वैसे मैं बता दूँ, मैं अभी कोच सी-नाइन ही से यहाँ सी-फ़ाइव में आया हूँ। सीट नंबर सिक्स्टी-थ्री से।
वहाँ पिछले स्टेशन पर चढ़े एक बुज़ुर्ग ने मुझसे यहाँ सी-फाइव में आने की रिक्वेस्ट की थी।
मेरी ओरिजनल अलॉटेड सीट सी-फोर में थर्टी-सिक्स थी।
आप देख ही रही हैं इंजन से कितना दूर है यह और इसके पीछे वाले डिब्बे।
एस्केलेटर तो पहले प्लैटफॉर्म पर ही ठहरा। घरवालों के अरमानों जैसा हैवी लगेज लेकर प्लैटफॉर्म-थ्री की सीढ़ियाँ अपने आप उतरनी पड़ीं।
ऊबड़-खाबड़ प्लैटफॉर्म पर डगमगाते अपने सूटकेस को ड्रैग करके, आधे लेटे आधे बैठे और बाक़ी टकराने को ऐंवेंई रास्ते में आते अपनी गाड़ी की इंतज़ार में गड़े मुसाफिरों को क्रॉस करके लगभग 12 डिब्बे पार करके सी-फोर तक आया था और ज़ोर लगाके हइसा के उद्-घोष के साथ सूटकेस चढ़ाकर और धकियाकर अपनी सीट पर पहुँचा ही था।
देखा कि मेरी सीट पर एक आंटीजी पहले से ही विराजमान थीं।
पसीना भी सूखा न था मेरा। गाड़ी चल दी थी।
आंटीजी के निवेदन पर सी-नाइन जाना पड़ा। वहाँ से यहाँ सी-फ़ाइव और अब फिर से सी-नाइन। बोले तो सफ़र के अंदर सफ़र एंड सफ्फर।
इन सब निवेदनकर्ताओं की आँखों में देवलोकीय कातरता थी। उम्मीद करता हूँ, अब आइ विल फेस नो मोर निवेदंस। बीच के डिब्बों वाले यात्री मॉब लिंचिंग की एक गोल्डन अपॉर्चुनिटी की तरह मुझे देखते हुए लार टपका रहे हैं।
मोरल अॉफ़ द स्टोरी -
ट्रेन में अकेले यात्रा न करें।

सोमवार, 23 नवंबर 2020

मेरी संस्कृति और गर्व

 मुझे भारतीय संस्कृति पर गर्व है।

लेकिन यह गर्व मैं दिखाऊँ कैसे?
क्या हाथ में तलवार लेकर निकल पड़ूँ और जो मुझसे सहमत नज़र न आए काट डालूँ उसे? हत्या कर दूँ उसकी?
कहूँ कि जब मुझे अपनी संस्कृति पर गर्व है तो वही और वैसा ही गर्व तुम्हें भी अपनी संस्कृति पर क्यों हो बे?

20 नवंबर 2020

रविवार, 22 नवंबर 2020

प्राइवेटाइज़ेशन बनाम अच्छे दिन

सब कुछ बाज़ार में तब्दील होता जा रहा है।


हम हर काम और उद्देश्य को मुनाफ़े के अभिप्राय से देखने लगे हैं और प्राइवेट सेक्टर का आगमन हर क्षेत्र में हो चुका है। ख़ासतौर पर हम आम लोगों का वास्ता सर्विस सेक्टर से अधिकाधिक पड़ता है। वहाँ प्राइवेट सेक्टर की मौजूदगी आश्वस्त करने के बजाय आतंकित करती है।


मिसाल के तौर पर अगर रात आठ या नौ बजे आप किसी बस स्टॉप पर खड़े हैं, तो इसकी पूरी संभावना है कि आप डीटीसी या अपने शहर की सरकारी बस की प्रतीक्षा कर रहे हों क्योंकि आपको मालूम है कि अब प्राइवेट बस अपने डिपो में जाकर खड़ी हो गई होगी। ज़ाहिर है मुनाफ़ा पीक (peak) आवर्स में ही है और सर्विस से ज़्यादा प्राइवेट वालों का सरोकार मुनाफ़े से है।


मज़े की बात यह है कि आपसे बात की जाए और आपके जनरल विचार जाने जाएँ तो आप प्राइवेटाइजेशन के समर्थक निकलेंगे।


प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं।


सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में इमारतें अच्छी न हो, ऐसा हो सकता है और होता भी है। पर वे डॉक्टर और टीचर अनेक परीक्षाएं पास करने के बाद ही वहाँ जगह पाते हैं इसलिए मैक्सिमम क्वालिफाइड होते हैं।


देश में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो प्राइवेट ट्रीटमेंट और एजुकेशन अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि अधिकतर लोग साधनहीन हैं। अच्छा और समय पर इलाज केवल प्राइवेट में मिलता है यह मानने वाले बेचारे सर्वहारा जन अपनी ज़मीने बेचकर या गहने गिरवी रखकर या एफडी तुड़वाकर इलाज करवाने या शिक्षा हासिल करने आते हैं।


ज़ाहिर है ऐसे पैसा ख़र्च करके जो बच्चा एजुकेशन हासिल करेगा वह पहले अपना रिटर्न हासिल करना चाहेगा न कि देश और समाज की सेवा की नीयत से अपना योगदान देना चाहेगा। प्राइवेट से सीख कर निकला ऐसा कोई एक उदाहरण आपके पास है तो कमेंट में लिखिएगा।


प्राइवेट अस्पतालों में इलाज का एक रास्ता मेडिकल इंश्योरेंस से होकर भी गुज़रता है। लेकिन उसका प्रीमियम भरने लायक पैसे से अधिक आपके पास उस तरह सोचने की सलाहियत यानी इंश्योरेंस माइंडेडनेस आपके पास होनी चाहिए जो एक बड़े तबके के पास नहीं है।


क्योंकि नौकरियाँ कम से और कम होती गई हैं और बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ कठिन से और कठिन। इसलिए आदमी रोज़ाना के अपने सरवाइवल के बारे में सोचेगा, मेक बोथ एंड्स मीट (making both end meet) के बारे में सोचेगा या फ्यूचर के ख़तरे के लिए सेविंग करने के बारे में? यह सेविंग गुल्लक या बैंक खाते तक ही सीमित रहती है और अब तो बैंकों का हाल भी बुरा है।


बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ के कठिनतर हो जाने की जो बात मैंनें की शायद आप उससे सहमत न हों। क्योंकि कहा जाता है कि मौजूदा निज़ाम व्यापार के मौक़े बढ़चढ़कर दे रहा है। इन लोगों ने तो रक्षा क्षेत्र को भी निजीकरण के लिए खोल दिया है।


चलिए मैं आपकी बात मान लेता हूँ। लेकिन अगर मैं कोई दुकान खोलूँ और सरकार मुझे पूरी सहायता दे भी दे उस दुकान को खोलने में, तो भी प्राइवेटाइजेशन के दौर में मेरा मुक़ाबला बड़ी दुकान से है। मॉल कल्चर पसरता जा रहा है और अंततोगत्वा वह दिन दूर नहीं जब मुझे अपनी दुकान किसी मॉल में खोलनी पड़े जहाँ दुकान का पर डे (per day) किराया ही आपके लिए चुकाना भारी पड़ जाए।


कुल मिलाकर हो यह रहा है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाएगी और खा रही है और हम जो अधिकतर छोटी मछलियाँ हैं, इसे सही ठहरा रहे हैं यानी हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। अपने जीने के अधिकार को ख़ुशी-ख़ुशी छोड़ रहे हैं आख़िर हो क्या गया है हमें?


सरकार को हम उसकी हर ज़िम्मेदारी से विमुख करते जा रहे हैं न जाने किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए!


पढ़े-लिखे लोग इसे रिफ़ॉर्म्स कह रहे हैं।


अगर सब कुछ प्राइवेटाइज़ होता गया तो क्या एक दिन पुलिस भी प्राइवेटाइज़ हो जाएगी?


अगर ऐसा हुआ तो कैसा होगा वह समय और समाज?


ऐसी पुलिस की दुकान के कस्टमर कौन होंगे?


अपराधी?


अगर हम सीधे-सादे लोग पुलिस के कस्टमर कहलाएँ तो क्या पुलिस हमसे प्रोटेक्शन मनी लेगी? यानी हफ्ता वसूलेगी!!!


मान लीजिए एक युवती प्रोबैबल (probable) बलात्कारियों से बचते हुए सड़क पर भाग रही है। एक प्राइवेट पुलिस वाला उसे दीखता है। वह उससे रक्षा की याचना करती है और पुलिस वाला पहले उसे प्रॉटेक्शन चार्जेज़ के लिए ऑनलाइन पेमेंट करने को कहता है, तो ऐसा समाज कैसा समाज होगा?


जिन्हें मैंने ऊपर प्रॉबैबल बलात्कारी कहा है, किसी रजिस्टर्ड एंटिटी (entity) के लिए वे प्रॉमिसिंग बलात्कारी भी हो सकते हैं।


सारी मर्यादाएँ और मूल्य तथा जज़्बात केवल नफे और नुकसान में सिमटकर रह जाएँगे।


फिर भी टैक्स बढ़ते जाएँगे और हमारे इलेक्टेड रेप्रेज़ेंटेटिव्ज़ प्राइवेट वालों के दल्ले बनकर लुटियंस के बंगलों में रंगीन रातें गुज़ारेंगे और हम इसे देश के लिए सही मानते हुए चुपचाप होम हो जाएँगे।


ऐसे अच्छे दिनों की सरहद में हम दाखिल हो चुके हैं।

मंगलवार, 10 नवंबर 2020

सेलेक्टर का चकराना

 एक सेलेक्टर था। 

उसे कहा गया कि तुम सेलेक्टर हो यह बात तुम्हारे और हमारे (यानी तुम्हें सेलेक्टर गर्दानने वाले) के सिवा किसी और को पता नहीं चलनी चाहिए। 

सेलेक्टर ने कहा - ओके। 

वैसे यह बात सेलेक्टर को भी सूट करती थी। हालांकि दुनिया को बताकर थोड़ा अपनी अकड़ वग़ैरह क़ायम करने का लोभ उसे था, पर उसने अपनी फनटूश इच्छा को क़ाबू किया कि अभी किसी को न बताना ही सही है कि मैं सलेक्टरों की जमात में हूँ।


मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' पढ़ चुके, नये-नये सेलेक्टर बने सेलेक्टर ने जैसे ही सेलेक्शन का काम शुरू किया उसके पास सेलेक्शनेच्छुकों के फोन आने लगे। 


सेलेक्टर चकराया।


जब उसने ख़ुद किसी को बताया ही नहीं कि वह सेलेक्टर है और ज़ाहिर है कि अधिकारियों ने भी किसी को बताया न होगा कि वह सेलेक्टर है क्योंकि अधिकारियों ने तो ख़ुद ही मना किया था किसी को बताने को कि वह सेलेक्टर है!!


फिर चयनातुरों को कैसे पता चल गया कि वह चयनकर है, मामला भयंकर है!!!


उसे माजरा समझ न आया।

आपको समझ आया? 


#एक्सटेंशनकाउंटर्स


10 नवंबर 2019

सोमवार, 9 नवंबर 2020

भारंगम में सेलेक्शन

 फेसबुक पोस्ट पढ़कर पता चला मेरे दोस्त पुंजु का नाटक आगामी भारत रंग महोत्सव के लिए सेलेक्ट न हो पाया।


इस रिजेक्शन का मुझे व्यक्तिगत अफ़सोस है।


पुंज निर्देशित पटकथा देखा है मैंने। मुझे अच्छा लगा था। 


पर सेलेक्ट न होने पर हो क्या सकता है? 

सेलेक्टर्स से हर वो आदमी नाख़ुश होगा ही जिसका सेलेक्ट नहीं हुआ। 


इस बार के ख़ुद सेलेक्टर्स भी अगले वर्ष जब अपने नाटक भरेंगे और रिजेक्ट होंगे तो सल्लनी रिसेंटियाएँगे। 


रिजेक्शन का लॉजिक जो सब पर एक सा हो दिया जा सकता है। 

पर ऐसा कहाँ होता है? 

आपने कहीं देखा है ऐसा? 

या फिर जामुन के पेड़ वाला अंडरकरेंट लॉजिक अॉटोमैटिकली एक्सेप्ट काय को नहीं कर लेते जी!


किसी फेस्टिवल इत्यादि में आपका नाटक आना-नाना आपके नाटक की श्रेष्ठता की गारंटी तो नहीं हो सकता। 


वैसे भी नाटक की श्रेष्ठता के तय पैमाने नाटक को मार देने के लिए काफ़ी हैं, चाहे वे नाटक वर्ल्ड टुअर ही क्यों न कर मारें। 


क्या किसी ऐसी संभावना पर काम किया जा सकता है कि रिजेक्टेड नाटकों का भी एक फेस्टिवल हो? 


लेकिन रिजेक्टेड नाटक भी सब-के-सब नहीं लिए जा सकते। उनमें से भी कुछ सेलेक्ट करने पड़ेंगे और उसके लिए फिर एक सेलेक्शन कमेटी बनानी पड़ेगी। 


छोड़ो यार!!


9 नवंबर 2019

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

 रूप कला पिक्चर्स के बैनर तले बनी, 1958 में आई राजकपूर और महमूद की फ़िल्म परवरिश में महमूद साहब अँडर-यूटिलाइज़्ड हैं। फ़िल्म की नामावली में भी उनका नाम छठे नंबर पर है। सागर उस्मानी लिखित इस फिल्म में माला सिन्हा और ललिता पवार प्रभावित करती हैं।


'परवरिश' (1958 वाली) के हसरत जयपुरी द्वारा लिखित और दत्ताराम द्वारा संगीतबद्ध गाने अच्छे हैं, 'मस्ती भरा है समाँ', और 'आँसूं भरी हैं ये जीवन की राहें' तो आज भी सुनने को मिलते हैं। पर 'मामा ओ मामा' और लता की आवाज़ में माला सिन्हा पर फ़िल्माया वो सोलो गीत तो ज़िक्र-ए-ख़ास होना चाहिए हालांकि मैं ख़ुद उसके बोल भूल गया अभी। हाँ याद आया - 'लुटी ज़िंदगी और ग़म मुस्कुराए, तेरे इस जहाँ से हम बाज़ आए'।

फिल्म की कहानी शुरू में ही आपको जकड़ लेती है पर धीरे-धीरे आप निश्चिंत-से होकर फ़िल्म देखने लगते हैं क्योंकि निर्देशक एस बैनर्जी की दिलचस्पी इसे रहस्य-रोमांच वाली फ़िल्म बनाने में है ही नहीं। यही कारण है कि माला सिन्हा का शराब पीने के नाटक वाला मामला जहाँ बिगड़कर अपने जलाल पर पहुँचना चाहिए था वहीं जाकर वह ईज़ीली सॉर्ट आउट हो जाता है (और सच्ची बोलूँ तो मज़ा ख़राब हो जाता है)।
फि़ल्म देखते हुए थोड़ी देर में आपको अंदाज़ा हो जाता है कि फलां एक्टर कैसे-कैसे एक्सप्रेशन देगा; क्या-क्या रिएक्शन देगा और फ़िल्म के दृश्य किस-किस लोकेशन पर हैं। जैसे ही यह एहसास हो, फ़िल्म देखना छोड़कर बस सुनना शुरू कर सकते है और अपना सफ़र भी जारी रख सकते हैं।

यह जो फ़िल्म सुनने का कॉन्सेप्ट है, मैंने रेडियो की वजह से भी अपनाया। अब एक ख़बरिया चैनल के तौर पर घिसटने को मजबूर कर दिये गए दिल्ली के मशहूर रेडियो चैनल एआईआर एफ़ एम गोल्ड 100.1 (जो कभी 106.4 था) मेगाहर्ट्ज़ पर रेडियो मैटिनी शो में फिल्म की कहानी सुनाई जाती थी। बचपन में जब फ़िल्म देखना एक ख्वाब जैसा होता था, तो फि़ल्में देख चुके अपने दोस्तों और बड़ों से भी फिल्मों की कहानी सुनने में मज़ा आता था। 'शोले' मैंने देखने से पहले सुनी थी।

पिछले दिनों मैंने फिल्म 'इजाज़त' सुनी। केवल उसका लास्ट सीन देखा। और उस अंतिम दृश्य में नसीर साहब ने जो ग़ज़ब अभिनय किया है, उसे सुनना नहीं देखना ही ज़रूरी था। जब शशि कपूर और रेखा को जाते हुए वे देखते हैं तो उनके चेहरे पर जो भाव हैं उन्हें वर्णन कर पाना मुश्किल है। आपने देखे ही होंगे। अगर नहीं, तो देख लीजिए।

बैक टू 1958 वाली 'परवरिश'।

यह मीनू कत्रक जो गाने और पार्श्व संगीत रेकॉर्ड करते हैं, लगता है हर फिल्म में इन्होंने काम किया है। गायक शैलेंद्र ने भी अपने एक इंटरव्यू में इनका ज़िक्र किया था। उन्होंने शैलेंद्र को काम दिलवाया था।

'परवरिश' में परवरिश होते हुए कहीं भी नहीं दिखाई गई। एकाध दृश्य छोड़कर सीधे बच्चों को बड़ा दिखा दिया।

फ़िल्म एक बड़ा मैसेज देती है कि सबके ख़ून का रंग लाल ही है और इसका किसी वंश, ख़ानदान, जाति, धर्म, लिंग, क़बीले अथवा राष्ट्रीयता से कुछ लेना-देना नहीं है। ज़ात-पात, ऊँचे ख़ानदान, इत्यादि सब बकवास हैं।

मैसेज अच्छा है। यह फ़िल्म इल्म इतना तो देने में सफल हो ही जाती है।

5 November 2020


शुक्रवार, 2 अक्तूबर 2020

मेरी वैसी ऐसी पोस्ट

 2 अक्तूबर 2019 

मालूम तो है ही आपको के फ़ेसबुक अपनी बात लोगों तक पहुँचाने का अच्छा माध्यम है। इस मंच से दूसरों की बातें सुनी भी जा सकती हैं जैसे इस समय आप सुन रहे हैं।


पोस्ट डलते ही आम हो जाती है इसलिए बहुत सोच-विचार कर पोस्ट डाली जाती है। कभी-कभी तो इसीलिये पोस्ट लिखने में सुबह से शाम हो जाती है या फिर हो जाती है शाम से सुबह। 


यह सब फक़त लाइक्स के लिए बीस-तीस? नहीं जी! यह आपकी ओपन डायरी भी तो हो जाती है!


आपको मालूम है कि अगर मैं अपने बारे में बात कर रहा हूँ तो आप सब को बताने के लिए कर रहा हूँ। या फिर कोई राजनीतिक पोस्ट वग़ैरह अपने आकाओं को ख़ुश करने के लिए डाल रहा हूँ। या किसी एक मुद्दे पर अपना नुक़्ता-ए-नज़र पेश कर रहा हूँ। कई बार जब बात कहने में मुश्किल होती है और किसी और ने कह दी होती है या किसी की पोस्ट आपको अच्छी लग जाती है तो आप उसे शेयर कर डालते हैं। ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को पता लगे।


लेकिन पिछले दिनों मैंने देखा कि बाज दफ़े ऐसी पोस्टें भी डाल दी जाती हैं जो किसी एक व्यक्ति को टारगेट करके लिखी जाती हैं। उसका पब्लिक से मतलब नहीं होता फिर भी डाल दी जाती हैं। 


वह व्यक्ति आपकी फ्रेंड लिस्ट में होकर भी आपका फ्रेंड नहीं होता। बट ही इज़ नॉट अ घोषित दुश्मन आल्सो।


तो वह पार्टीकुलर पोस्ट उसी व्यक्ति को व्हाट्सऐप या एसएमएस के माध्यम से क्यों नहीं कही गई? 


चूँकि वह बात नुक़्ताचीनिकल या निंदाने वाली होती है, उस व्यक्ति को सीधे-सीधे नहीं कही जाती। 

याई के मारे फेसबुक पै पोस्ट डारैं। 


मुझे मालूम नहीं अब भी यह ट्रेंड है के नहीं, पहले शहर की दीवारों पर इफ़रात से कुछ वाक्य लिखे मिलते थे जैसे 

रिश्ते-ही-रिश्ते मिल तो लें 28 रैगरपुरा, करोलबाग़ दिल्ली।

खोई हुई जवानी व भरपूर ताक़त दोबारा प्राप्त करें अशोक क्लीनिक, आज़ाद पुर या ख़ानदानी शफ़ाख़ाना, दरियागंज।

इत्यादि।

ऐसे कई वाक्य दूर तक हमारा पीछा करते, और कभी-कभी तो सामने आकर खड़े हो जाते। अगर मैं ट्रेन से कहीं जाता तो देखता रास्ते में ट्रेन की खिड़की से जो भी दीवार दिखाई देती, उस पर उपरोक्त दोनों वाक्य जुगलबंदी कर रहे होते। एक और वाक्य किसी सीमेंट और किसी सरिये के बारे में था। इन वाक्यों से मेरा कोई मतलब न होने पर भी सामने दिखाई दे जाने पर मुझे इन्हें पढ़ना पड़ता और धीरे-धीरे मैं यह समझने लगा कि ख़ानदानी शफ़ाख़ाने का रास्ता 28 रैगरपुरा से होकर गुज़रता है। और उसके बाद ओनिडा टीवी, सीमेंट और सरिये का काम पड़ता है। 


एक शहर को लांघती गाड़ी दूसरे शहर में प्रविष्ट होती लेकिन यह वाक्य गाड़ी के साथ-साथ चलते और गाड़ी की लंबाई से भी लंबे हो जाते। मुझे लगता कि सुदूर दक्षिण और नॉर्थईस्ट में भी कहीं यही कुछ चंद वाक्य लिखे न मिल जाएँ।


कहीं यही वाक्य तो नहीं थे जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध रहे थे! 


स्कूल-कालेजों के बाथरूमों, बाहर की दीवारों, गार्डनों के दरख़्तों पर एकाध ऐसा वाक्य लिखा मिलता था जिसे पढ़कर पता चलता था फलाँ लड़का फ़लाँ लड़की से प्यार करता है। या आय लव यू फलाँ लड़की। इन दो-तीन शब्दों के बीच में या इधर-उधर दिल का निशान भी बना होता था, और अधिकतर दिल के बीच में से तीर गुज़रते हुए दिखाया जाता। यह बहुत सफ़ाई से किया गया काम होता कि लगता गोया लिखने वाला प्रेमी नहीं कला-प्रेमी है, या फिर टू-इन-वन है। 


मैं अक्सर सोचता कि फलाँ लड़का फलाँ लड़की के प्रति प्यार के अपने स्वीकार को दीवार पे काय कू लिख रहा है? अबे अगर तुझे प्यार है तो उस लड़की को जाकर बता न! जैसे कुछ लोग दीवार को स्वजलधारा से सिंचित करते हैं तुम कोयले से उसकी सुँदरता बढ़ाना चाहते हो!!!


ख़ैर! 

बैक टू फ़ेसबुक।


अभी मनीष जोशी (हिसार वाले) की एक ऐसी पोस्ट देखी जिसमें उन्होंने एक व्यक्ति जिसे वो बड़ा ड्रेक्ट्र समझ रहे थे, वह चोर निकला का उलाहना अपनी पोस्ट के माध्यम से दिया है। लेकिन उन उलाहना रिसीवर का नाम अपनी पोस्ट में नहीं लिखा। मैं दुआ करता हूँ, उन उलाहना रिसीवर जी ने उस पोस्ट को पढ़ लिया होगा और विदाउट ऐनी ऐम्बिगिटी उसे स्वीकार या अस्वीकार चुपके से कर दिया होगा। वैसे भी, व्यक्ति को अपनी सफलता को ऐग्रीगेट करना चाहिए न कि चोरी जैसी छोटी-मोटी बातों पर रिग्रेट करना चाहिए।  


इस पोस्ट और ऐसी कई अन्य मितरों की आइडेंटिकल पोस्टें पढ़कर कुछ-कुछ मायने समझ में आते हैं जिनका मनीष जोशी हिसार वाले से कोई स्ट्रेट ताअल्लुक़ न माना जाए। 


जनरली इसके दो (या शायद तीन-चार) फ़ायदे होते हैं। 


एक तो यह कि अमुक को अपनी बात कहकर देल्ल (दिल) नूं ठंड पै गी, और कौनो नुकसनवा भी नहीं हुआ। 


और यह भी कि 'मइ किस्सी से डरता नक्को साफ़-साफ़ कैने वाला आदमी ऊँ' का भाव भी बना रहता है। साथ ही बंदे तक बात भी पहुँच जाती है और उससे (रि)लेशनशिप भी क़ायम रहती है। कल को आप आसानी से कह सकते हैं - मैंने आपके लिए थोड़े ही कहा था जी!! 


या हो सकता है ऊपर जो बातें मैंने कही, वैसा न होता हो बल्कि कुछ और ही होता हो। 


इस पोस्ट, और दीगर पोस्टों को पढ़कर कछु और मायने बी सम्ज आ रे ऐं पै दिल कै रा ऐ 

ओ छड्ड वी यार हुण!!


और जब अनेक मिट्रों की ऐसी पोस्टें देखीं तो मैंने सोचा क्यों न मैं भी ट्रेंडी बन फेसबुक में विचरण करूँ और ऐसी पोस्ट डालूँ!! निंदा वाली नहीं तो न सही, कुछ और सही। 


तो दोस्तो

मेरी वैसी ऐसी पोस्ट यह रही - 


आज शाम साढ़े छह बजे रिवोली सिनेमा पर मिल जाना।

बुधवार, 30 सितंबर 2020

 

राम मंदिर बनवाना उनके निकट पवित्र कार्य था।

मंदिर बनवाना एक पवित्र कार्य था/है भी।

 

लेकिन यदि मंदिर वहीं बनना था तो बस एक ही अड़चन थी। यह स्पष्ट ही था कि यदि मंदिर वहीं बनाएँगे तो वहीं जो ढाँचा, या स्पष्टतः मस्जिद मौजूद थी, उसको गिराना पड़ता।

 

यह क़ानूनन ग़लत होता। और यही हुआ भी। यह क़ानूनन ग़लत रहा आया।

 

क़ानूनन ग़लत होना कोई बड़ी बात नहीं होती अगर आपकी मंशा सही हो।

 

मान लीजिए आपको किसी बीमार या दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अनिवार्यतः तुरंत अपने दुपहिया वाहन पर अस्पताल लेकर जाना पड़े और आपके पास ट्रैफिक नियम के तहत हेलमेट ना हो तो आप थोड़े ही क़ानूनन सही होने के चक्कर में किसी की जान जाने देंगे।

बिना हेलमेट ही निकल पड़ेंगे और जुर्माना भरना पड़ जाए तो अफ़सोस न होगा।

आप तसल्ली कर सकते हैं कि नियम आपने तोड़ा, लेकिन किसी के भले के लिये तोड़ा।  

 

तो मस्जिद तोड़ना ज़रूरी था। और अनिवार्यतः तुरंत ज़रूरी था।

हिंदुओं के भले के लिये यह ज़रूरी था।

आख़िर हिंदू कब तक सोया रहता।

 

कुछ क़ानून के अंधेपन की आड़ भी उपलब्ध हो गई थी।

एक महान (अ)टल नेता ने कह दिया था कि ज़मीन समतल करने की इजाज़त मिल गई है।

 

मगर क़ानून तो क़ानून है।

ज़ाहिर है यह ढाँचा गिराना अंततः ग़लत था ही।

और इस ग़लती के लिए, देश में ज़हरीला माहौल पैदा करने के लिए सज़ा भी मुक़र्रर की गई है।

 

पर हिंदू धर्म के भले के लिये यदि एकाध क़ानून तोड़ना भी पड़ जाए और उसके लिये सूली पर भी चढ़ना पड़ जाए तो सौदा बुरा नहीं था।

 

हिंदू हृदय सम्राट के रूप में इस देश की सांप्रदायिक जनता के हृदय में सदा के लिये भी प्रतिष्ठित ही नहीं हो जाते, दूसरे भी तारीफ़ करते कि बंदे में था दम

जो कहा सो किया और कहा भी कि हाँ मैंने किया।

 

अब गांधी को ही देख लीजिए।

नमक क़ानून तोड़ा बंदे ने और डंके की चोट पर तोड़ा।

उस एक धोती पहनने वाले, अधनंगे फ़कीर ने क़ानून तोड़ने के लिये डांडी यात्रा भी की और हजारों-हजार लोगों के साथ की।

अधनंगे गांधी ने स्वीकार किया कि

हाँ बे अंग्रेज़ों मैंने नमक क़ानून तोड़ा।

और उनके साथ आए हजारो-हजार लोगों ने भी कहा कि

हाँ बे अंग्रेज़ो, बापू ने नमक क़ानून तोड़ा।

उखाड़ लो क्या उखाड़ लोगे।

 

क्योंकि गांधी बेशक़ क़ानूनन ग़लत थे, पर नैतिक तौर पर सही थे।

उसके एवज में जेल जाना भी उन्हें मंज़ूर था।

 

लेकिन

यह लीदरान हैं कि

इन्होंने हल्ला-शेरी दी

एक धक्का और दो बाबरी मस्जिद तोड़ दो

देश की जनता का ध्रुवीकरण किया

हजारों-हजार लोग इनके साथ थे और उस घटना के बाद

यह नेता लोग और इनकी साम्प्रदायिक जनता ख़ुशियाँ मना रही थी, इसके बावजूद

इन्होंने कहा - हमने तो यह किया ही नहीं

हजारों हजार जनता में से भी कोई नहीं बोला।

 

जो इनके नज़दीक पवित्र कार्य था उसकी ज़िम्मेदारी भीड़ पर डाल दी और लो

यह अँग्रेज़ों के परम् पिछलग्गू

बच गए।

 

ऐसे झूठ की नींव पर अपने धर्मस्थान बनाओगे बे?

 

फिर यह कथित कॉज़ के लिये लड़ने वाले टुल्लमटुल्लू नेता

गांधी का चरित्र हरण करते हैं और ख़ुद के लिये वैलिडिटी चाहते हैं।

 

ज़ाहिर हैं इन लीदरान की जैसी भी नैतिकता थी और उनके शरीर में यह नैतिकता

जहाँ कहीं भी वास करती थी (क्या पता मन में करती ही हो)

उसके अनुसार अपने कृत्यों का उन्हें पता था कि

यह उन्होंने ठीक नहीं किया।

 

तथाकथित हिंदू नेताओं के लिये ढाँचा गिराया जाना नैतिक तौर पर ग़लत रहा होगा तभी तो

आज तक वे उसकी ज़िम्मेदारी नहीं ले पाए और

जिस पवित्र कार्य के लिये हँसते-हँसते उन्हें सूली पर चढ़ जाने के लिये तैयार रहना चाहिए था

उसे कर जाने को कभी स्वीकार नहीं कर पाए।  

 

इनसे अच्छे तो वे आतंकवादी संगठन होते हैं जो कोई घिनौनी वारदात को अंजाम देते हैं और फिर प्रेस रिलीज़ में इसकी ज़िम्मेदारी लेते हैं।

 

ढांचा गिराना अगर सही था तो ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए न!

ज़ाहिर है ढांचा गिराना सही नहीं था।

 

यदि कोई अवैध निर्माण होता है तो दिहाड़ी कर रहे मज़दूरों को पुलिस पकड़ती है या उस ठेकेदार को और फाइनेंसर को जो वह निर्माण करवा रहे होते हैं!

 

तो ऐ मेरे दोस्तो

सांप्रदायिक हिंदुओं

धरम के तथाकथित पहरेदारों

 

आप यदि उन लीदरों के कहने पर माथे पर तिलक लगाए, भगवा कफन बाँधे अगर निकल पड़े थे जयश्रीराम की हुंकार भरते हुए

तो आज जान लो

 

आप उस धर्मांध व्यवस्था के अवैध निर्माण में केवल दिहाड़ी मज़दूर थे/हो और

इल्ज़ाम आप ही के सर है

क्योंकि जिनके कहने पर आप चल पड़े थे,

प्रतिहिंसा की आग में जल पड़े थे,

वे अपने कहने से ही मुकर गए।

वह आपकी हुंकार नहीं, हुँआ-हुँआ साबित हुई।

 

आपकी दिहाड़ी के रूप में आपको क्या मिला?

स्वाभिमान? सुरक्षित भविष्य? आत्मिक और दैवीय मोक्ष?

 

सोच कर देखो बे तुम्हें क्या मिला।

ऐसा क्या मिला जो मस्जिद न तोड़ते तो तुम्हें नहीं मिलता और अब मिल गया।

 

ऐसा ही पवित्र कार्य इन्होंने गांधी को मारने का किया था।

लेकिन आज तक उसी गोडसे को अपना आधिकारिक आइकॉन नहीं बना पाए हैं हिंदू पाकिस्तान का सपना संजोने वाले यह भाषणवीर।

 

कुछ उन्मादी छुटभैये नेता ऐसा करते भी हैं तो मुख्य हिंदू पहरेदार कह देते हैं कि हम इन्हें मन से माफ़ नहीं कर पाएँगे

 

अरे अगर उद्देश्य पवित्र है तो स्वीकार करो ना।


https://www.bbc.com/hindi/india-54357292