बुधवार, 29 सितंबर 2021

 एक न एक दिन सब यहीं छोड़ जाना है। यह तो फिर भी होटल का कमरा है।

इंसानी फितरत ही है जहाँ रुके वहाँ अपना घर बना लेने की, चाहे ट्रेन में मिली बर्थ ही क्यों न हो।
मुझे लगता है, क़ैदी भी रिहा होने से पहले, या फांसी के लिए लेकर जाए जाने से पहले, अपनी कोठरी को मुड़कर ज़रूर देखता होगा जो जैसी भी थी, घर थी।
जिस दिन आपने होटल का कमरा छोड़ना हो, उस दिन सुबह से ही कमरे से अलग वाइब्रेशन आने लगती है। एक उजाड़ जैसा महसूस होने लगता है।
कमरे से निकलने से पहले आख़िरी बार बिना ज़रूरत के, बाथरूम यूज़ कर लेने को जी सा करने लगता है।
बाहर निकलने से पहले एक बार एक नज़र पूरे कमरे और अपने बेड पर डालता हूँ और लगता है जैसे मेरे जाने को कमरा भी महसूस कर रहा है।
मैं उससे कहना चाहता हूँ दोस्त मैं फिर आऊँगा, मगर ऐसा कह नहीं पाता। 20 से 29 अप्रैल 2011 में अहमदाबाद के जिस होटल में ठहरा था, उसका नाम भी याद नहीं हालांकि लोकेशन याद है, पर ड्राइवर का कहना है उधर बहुत जाम होता है।
कमरा भी इस बात को समझता है, इसलिए कोई ज़िद या निवेदन या आग्रह नहीं है उसकी उदासी में।
अभी-अभी इस होटल में अपना आख़िरी लंच लिया है, मगर खाना बड़ी मुश्किल से गले से नीचे उतरा है। हालांकि सब कुछ वही और वैसा ही है, जैसा रोज़ होता है।

20 September 2021
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होटल के एक ही फ्लोर पर एक दफ्तर के कुलीग्स फॉर्मल नहीं, घरेलू महसूस करते हैं। उन्हें एक-दूसरे के कमरों में आराम से राष्ट्रीय पोशाक में आते-जाते देखा जा सकता है।
हम अपने कमरों के दरवाज़े बंद रखने की ज़हमत नहीं उठाते ताकि निर्बाध आवाजाही फैसिलिटेट की जा सके। इस प्रकार से, आपके बाथरूम लगे मिरर से सामनेवाले का बाथरूम नज़र आता है और यह भी कि वो क्या कर रहा है, उसके वस्त्र का ब्रांड कौन सा है और उसका टूथपेस्ट भारतीय संस्कृति को फ्लाउंट करता है या नहीं।
कुल मिलाकर होटल का वो फ्लोर दफ्तरी कुलीग्स का एक पुराना मोहल्ला बन जाता है।

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शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

 होटल में आते ही

'मैं तो केवल फलाहार करूँगा'

नामक बीमारी हो जाती है।


जो घर पर नाश्ते में

अम्मा की डाँट के साथ

रात की बची दाल 

और सुबह की चार रोटियाँ

खाकर उतरती है।

24 September 2018

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

बावजूद के साथ भी?

 कल मम्मी-डैडी नहीं थे घर पर तो....


तो कल मैंने बहुत दिनों बाद टीवी देखा। 


अपने माँ-बाप से डर उतनी वजह नहीं है टीवी न देखने की। 


असल वजह यह है कि टीवी मम्मी-डैडी के कमरे में है जो ग्राउंड फ्लोर पर है। और मैं सेकंड फ्लोर पर रहता हूँ।


मैं रात दस बजे के बाद ही घर दाखिल होता हूँ तब तक मम्मी-डैडी सो चुके होते हैं और मुझे भी अपने कमरे में लेट कर लैपटॉप देखना होता है। 


मेरे बच्चे और प्रोमिला भी - जो तब तक सोये नहीं होते, मेरे आने का इंतज़ार करते हैं क्योंकि मेरे फोन का वायफाय लैपटॉप से जोड़कर कोई फ़िल्म-शिल्म देखी जाती है। 


मेरे फोन में अच्छा ख़ासा इंटरनेट डाटा है और स्पीड भी उसकी ठीक-ठाक है। प्रोमिला और बच्चे अपना डाटा ख़त्म करके मेरी उडीक (इंतज़ार) में बैठे रहते हैं। 


सुबह कुछ समय के लिए मम्मी-डैडी के पास बैठता हूँ तो घर-परिवार की बातें होती हैं, इत्यादि। तो टीवी उस समय चलाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 


मेरे कमरे में टीवी नहीं है। 

कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वैल। 


दिन में या अर्ली ईवनिंग जब ये सब लोग घर में ग्राउंड फ्लोर पर होते हैं तो भी टीवी केवल कुछ ही देर के लिए देखते हैं। 

मम्मी-डैडी से डर केवल मुझे ही नहीं लगता।


वैसे टीवी लगभग सारा दिन चलता है। मेरे बापू को टीवी न्यूज़ देखनी होती है और वो एनडीटीवी को छोड़कर बाक़ी सभी न्यूज़ चैनलों की न्यूज़ें देखते हैं।

कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वैल। 


उन चैनलों में जो थोबड़े बार-बार दिखाये जाते हैं उन्हें हमारे घर में और कोई देखना नहीं चाहता। ख़ैर..।


मम्मी-डैडी पंजाब से रात की ट्रेन से लौट रहे थे। वे केवल दो रातों के लिए घर से बाहर थे। तो दोनों रात हमें उनके कमरे में सोना था। कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वेल। 


देश सुरक्षित हाथों में हैं बोलने वालों को सपोर्ट करते मेरे बाप को न जाने क्या हो जाता है जब रात नौ बजे के बाद वो मुझे बार-बार फोन करके मेरी लोकेशन जानना चाहते हैं और कहते हैं अज्जकल टैम बड़ा ख़राब ऐ छेती (जल्दी) घर आ जाया कर। ख़ैर...।


तो एक रात पंजाब में, और दूसरी रात वापसी के सफ़र में, मम्मी-डैडी घर से बाहर थे।


उनके पंजाब जाने का सफ़र दिन में ही पूरा हो गया था। सुबह पौने सात बजे की गाड़ी पकड़ वे दोपहर बाद तक गंतव्य स्टेशन उतर गए थे। 


मैंने अपने मोबाइल ऐप से दोनों की टिकट बुकिंग सीनियर सिटीजन कन्सेशन के साथ की थी और सीट प्रेफ्रेंस में विंडो लिखा था। मुए रेलवे ऐप को न जाने क्या हुआ एक को सीट नंबर 8 दिया और दूसरे को 18, यानी दूर-दूर। 


आप कह सकते हैं कि जो सीट अवेलेबल होगी वही मिलेगी। पर जनाब! जब मैं बुकिंग कर रहा था तो 452 सीटें अवेलेबल थीं जी। इन अच्छे दिनों में दो बुज़ुर्गों को आमने-सामने सीट भी न दे सकी रेलवे!! 

ख़ैर...।


मम्मी-डैडी दो रातों के लिए घर से बाहर थे और मुझे, प्रोमिला और हमारे एक बच्चे को नीचे, यानी ग्राउंड फ्लोर वाले कमरे में सोना था। 


पहली रात मैं घर जाते ही सो गया क्योंकि बहुत थका हुआ था। दूसरी रात थोड़ा-सा टीवी देख के सोया क्योंकि घर में जब घुसा तो बच्चे टेलीविजन लगाकर बैठे थे और केबीसी आ रहा था। 


मुझे जैसे यह मालूम नहीं है कि साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम इंडिया आई हुई है, उसी तरह मुझे यह भी पता न था कि केबीसी अब भी आता है। 


तो उस समय केबीसी आ रहा था। 

शो के एंकर जिन्हें इस सदी का महानायक कहा जाता है, के सम्मुख एक ज़ोरदार अभिनेता की हट्टी-कट्टी बेटी - एक हीरोइन बैठी थी। वह सदी के महानायक के सम्मुख हॉट सीट पर एक उद्यमशील महिला के साथ बैठी थी। 


रानी पद्मावती की (कुछ लोगों के अनुसार) काल्पनिक या अवांतर-वास्तविक कथा पर आई फिल्म का पुरज़ोर विरोध करने वालों के आन-बान जैसा ही गाँव रहा होगा जहाँ यह उद्यमशील महिला पैदा हुई और पली-बढ़ी थी। जैसा कि शो से पता चल रहा था, उस घोर चाउवनिस्टिक समाज में रहकर भी ख़ुद को और साथी महिलाओं को आगे बढ़ाने, उनकी आर्थिक स्थिति सुधरवाने में उस उद्यमशील महिला ने उल्लेखनीय काम किया था।


जिस प्रकार के उसके कामों और सब महिलाओं के साथ से सबके वाकई और किसी नारेबाज़ी से दूर सच्चे विकास का काम वह करती आ रही थी, मुझे वह वामा वामपंथी प्रतीत हुई। 


उसने मार्क्स और समाजवाद भले न पढ़ा हो, मगर पद्मावती सरीखी-सुंदर, महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता की पक्षधर वह महिला समाजवाद और कम्यूनिज़्म के दर्शन को जी रही थी (बोले तो, आय फेल्ट लाइक दैट)। 


केबीसी में पूछे गए एक रामायण आधारित प्रश्न का सीधा-सादा उत्तर दमदार अभिनेता की वह हट्टी-कट्टी हीरोइन न दे सकी, न ही दे सकी उस प्रश्न का उत्तर वह उद्यमशील महिला ही, जिसके साथ थी बैठी वह हीरोइन। उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन दोनों महिलाओं को लाइफलाइन रूपी एक एक्सपर्ट का सहारा लेना पड़ा जो कि येट अगेन एक महिला थी। उस एक्सपर्ट ने बचपन या कैशोर्यावस्था में देखे एक टेलीविजन सीरीयल का वास्ता या हवाला देकर बताया था कि हनुमान संजीवनी बूटी लक्ष्मण के लिए लाए थे। और जैसे लक्ष्मण की बची थी, इस लाइफलाइन से उन दोनों महिलाओं की जान बची थी। गोया वह महिला गंधमादन पर्वत से ही अवतरित हुई हो। 


हट्टी-कट्टी हीरोइन के इस आसान-सा जवाब दे पाने में अक्षम रहने को लोगों या ट्रोलों, जो भी आप कहें, ने हाथों-हाथ लिया और सोशल मीडिया पे दे पोस्ट-पे-पोस्ट पेलकर हट्टी-कट्टी हीरोइन को निंदाने लगे (इस सेन्टेंस को आप लास्ट वाले 'दे' के बिना भी पढ़ सकते हैं अगर चाहें)।


सोशल मीडिया पर उस उद्यमशील वामा की उद्योगिता की प्रशंसा में लेकिन एक भी पोस्ट न थी।


हैरानी इस बात पर भी थी कि उस मोस्ट ईज़ी क्वेश्चन का सिंपलेस्ट आन्सर वह उद्यमशील महिला भी न दे पाई थी किन्तु उसकी इस अज्ञानता को आराम से इग्नोर दिया गया। सबको शिक़ायत थी तो केवल हट्टी-कट्टी हीरोइन से जिसके पापा का नाम रामायण के चरित्रों में से एक पर था और चचा-ताऊ के नाम भी जस्ट लाइक दैट थे। और तो और, दमदार अभिनेता की बेटी हट्टी-कट्टी हीरोइन के घर का नाम भी रामायण था।  तो जनाब ट्रोलों ने तो ट्रोलना था और वे जी भर के ट्रोले भी।


ओह हो!! मेरी यह पोस्ट सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है, या हनुमान की पूँछ की तरह लंबी होती जा रही है। 


अब तक वह बात नहीं आई जिसे लिखने के लिए यह पोस्ट शुरू की थी।


तो मैंने जब कई दिनों बाद टीवी देखा, और टीवी में उस समय आ रहा केबीसी देखा तो मैं क्या देखता हूँ कि अमिताभ बच्चन किसी बात को कहते हुए 'बावजूद भी' बोल रहे हैं। यानी शब्द 'बावजूद' के साथ शब्द 'भी' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं।


मैंने सुना है कि 'बावजूद' के साथ 'भी' का प्रयोग नहीं होता क्योंकि 'भी' बावजूद में अंतर्निहित है।


एक समय टीवी पर सत्यमेव जयते नामक कार्यक्रम में मैंने अभिनय की खान आमिर ख़ान को भी 'बावजूद' के बाद 'भी' का प्रयोग करते देखा था। 


मुझे उस दिन कोफ़्त हुई थी। पर कोफ़्ते जो उस दिन घर में बने थे टेस्टी बने होने के कारण मेरी खीझ की एनर्जी  डाइवर्ट होकर खाने की तारीफ़ में कन्वर्ट हो गई थी।  


आमिर ख़ान से तो जो शिक़ायत थी, सो थी, पर अब अमिताभ बच्चन ने भी 'बावजूद' के बाद 'भी' बोल डाला। इस बात से मेरा कान्फिडेंस थोड़ा हिल गया, कि यार कहीं मैं ई तो गल्त नईऊँ? 


तो आज की रात, जब मैं यह पोस्ट लिखते हुए आधी रात के इस पार आ गया हूँ, मैं, प्रोमिला, हमारे ज्वाइंट फैमिली के बच्चे-कच्चे हमारे ऊपर वाले अपने कमरे में सो रहे हैं। और आज (यानी टेक्निकली कल) हमने लैपटॉप पर एक नहीं, पूरी दो-दो फ़िल्में देखीं। एक तो थी राजेश खन्ना और नंदा अभिनीत सस्पेंस फिल्म इत्तेफाक। और दूसरी में भी नंदा थी। दूसरी फ़िल्म का नाम था गुमनाम। 


फ़िल्म इत्तेफाक के एक सीन में जब मैंने इफ़्तेख़ार जैसे मँझे हुए अनुभवी अभिनेता को एक संवाद में 'बावजूद भी' बोलते देखा तो क़सम से मुझपे क्या गुज़री होगी अल्ला ही जानता है। 


तो अब आप ही बताइए भाईसाहब 

क्या 'बावजूद' के बाद 'भी' लगाना करेक्ट है?

23 सितंबर 2019

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

9 सितंबर 2013

सच तो यह है कि मैं टूटा हुआ हूँ। अपने ही हाथों से छूटा हुआ हूँ।किस्मत से अपनी ख़ुद रूठा हुआ हूँ। अपने ही सच से लड़ता हुआ झूठा हुआ हूँ।

रविवार, 5 सितंबर 2021

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