बुधवार, 2 नवंबर 2011


नवम्बर दस्तक देकर
अनायास आ चुका है भीतर-बाहर सब जगह 
तुम कहाँ हो 

खोजा तुम्हें 
भीतर 
वहां तो बस सपना है 

बाहर 
मेरी पहुँच के बाहर है 

शायद तुम एक अलग ही दुनिया में हो जहाँ मुझे आने के लिए एक विशेष एंट्री पास बनवाना पड़ेगा और बदलना पड़ेगा अपना रूप और शायद हो सकता है मैं मैं रह ही न जाऊं और सिर्फ देह बचे या सिर्फ नाम भर बाकी रह जाए और बाद में तुम्हें खोजता हुआ मैं लगूं खुद को ही खोजने और न तुम मिलो न मैं ही मिल पाऊँ खुद को और समझ भी न आए किसका हाथ पकड़ चला चलूँ किस राह और रौशनी के किस बिंदु को मान लूं के बस जाना है उसी ओर ही मुझे 

और इतना सब कुछ हो चुकने के बाद होने वाले मिलन की कल्पना सुखद नहीं लगती पता नहीं क्यों 
शायद तुम ही कुछ बता पाओ

शायद इंतज़ार को ही मिलन कहते हैं