बुधवार, 31 जुलाई 2013

वो ख़ुशी मिली के बस
अपने ख़ाली पर्स में जब
मुझे दस का नोट दिखा।
वो नहीं चाहता था मुझसे मुख मोड़ना
मेरी ओर तकते हुए पीछे वो हटता गया।
मैं उससे प्यार करता हूँ, पर
इक़रार नहीं कर पाता, क्योंकि
वो मेरी बीवी है ।

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

बारिश में मैं 
भीग भी गया 
तो क्या 
छाते को तो भीगने से बचा लिया । 

                                           विजय सिंह 

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

चल रही हैं साँसे
इस उम्मीद में 
के किसी दिन जी उठूँगा 

                      विजय सिंह 

सोमवार, 8 जुलाई 2013

रात जो जवाँ थी
थिरकती और धड़कती थी
धीरे-धीरे ढलान पर है
फिसलती जा रही है
जैसे आंसुओं का जमा हुआ कोई ग्लेशियर हो

जाने कब से छाए हैं आँखों में ग़मों के बादल
और एक घुटन है जो बहकर बाहर आना चाहती है धीरे-धीरे
और इस घुटन को रात का बड़ा सहारा है
ताकि बाहर आते हुए
टप-टप कर आँसू बनकर गिरते हुए
मन के ज़ख्मों से रिस-रिसकर बहते हुए
इसे कोई देख न ले

ढलान पर है रात
जो जवाँ थी
थिरकती थी
अब सूखे पत्ते-सी कांपती है
एक सुनहरी झील में समां जाने से पहले
धीरे-धीरे डूबती-उतराती
ये रात आख़िर एक धुंधलके में सिमटकर
रह जाएगी जिसने अभी थोड़ी देर पहले तक
उस नशे को समेट रखा था अपने आग़ोश में
जिसे मुहब्बत कहते हैं।

बेदर्द उजियारा
इस रात को हमसे छीन लेगा
हमारे दामन में सिमटी
ये बेहद अपनी-सी सखी-सी प्यारी-सी रात
बेशक ये वक़्त का तकाज़ा है।

लेकिन इस रात ने जो ख्वाब दिखाए
वो दिन के उजियारे में खो न जाएं
ख़याल रखना मेरे दोस्त

संभलकर चलना दिन में
क्योंकि ज्यादा रौशनी से भी
आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है
और दिन में तो गिरते हुए को सँभालने को
कोई हाथ नहीं बढ़ता
क्योंकि सब-के-सब बंधे हुए हाथों से
बेड़ी डले पैरों से
चले जा रहे हैं बाज़ार में बिकने की ख़ातिर
कमज़ोर कन्धों पर
जाने कितनी उम्मीदों का बोझ उठाए

दिन की जद्दोजहद के बाद
रात के आने की उम्मीद न छोड़ना
ख़ुद के पास जाने की उम्मीद न छोड़ना
जब तक खुद तुम्हारी नींद तुम्हें तरसाती रहे
आंसुओं के ग्लेशियर पर लेटे-लेटे
चाँद को ढँकते-छुपते देखते हुए
धीरे-धीरे फिसलते जाना
सुनहरी झील की तरफ    
   

मंगलवार, 2 जुलाई 2013

रात और मैं

तीन बजकर चालीस मिनट हो चुके हैं
थोड़ी-सी रात और बची है
बस थोडा-सा ही बचा हूँ मैं
और कितनी ही कोशिश क्यों न कर लूं
ये रात
आखिरी बस की तरह निकल जाएगी

और मैं दिन का सामना करने को
अकेला रह जाऊंगा
एक भीड़ होगी मेरे चारों तरफ
मुझमें से अपना हिस्सा मांगती हुई
और मैं सब में बंट जाऊंगा
कट-फट जाऊंगा

पूरा का पूरा खुद को मिलना चाहूंगा
अगली रात आने तक
थोडा-सा खुद को बचा रखूंगा
अपने लिए।


गुरुवार, 27 जून 2013

घुप्प अंधेरा हर तरफ
देखी-भाली ज़िंदगी 

है एक गाली ज़िंदगी 
यह साली ज़िंदगी 

पेट भरने तक रही  
एक थाली ज़िंदगी 

उम्र भर भरते गए 
खाली की खाली ज़िंदगी 

जी न पाए फिर भी लेकिन 
प्यार से पाली ज़िंदगी

वक़्त लाया जो भी साँचे 
सब में ढाली ज़िंदगी 

मरने से डरते हुए 
हर वक़्त टाली ज़िंदगी 


गुरुवार, 21 मार्च 2013

सोमवार, 4 मार्च 2013

शनिवार, 2 मार्च 2013

डरे हुए लोगों की रेप्रेज़ेन्टेशन


लोग - इन्क्लूडिंग मी
धड़ल्ले से
पूरे जोर-शोर से
दसों दिशाओं चहुँ ओर से
पूरे गर्व के साथ
डरे हुए हैं
किसी-न-किसी विपत्ति से

कहना मुश्किल है
विपत्ति डर से पैदा हुई
या विपत्ति से डर

अभी तक नहीं हो सके एक शोध के
न आ सकने वाले नतीजे बताते हैं
कि दोनों साथ-साथ पैदा हुए थे
फिर भी
आने वाली विपत्ति का डर
बड़ा साबित होता रहा
शायद इसीलिए मनुष्य ने डर को ढाल बना लिया
जो हमेशा टूटती रही

डरना मात्र फैशन नहीं है
बल्कि इससे आप सेफ भी हो जाते हैं
क्योंकि आप पूर्ण बहुमत में आ जाते हैं

बाक़ी दो तरह के लोग अल्पमत में हैं
एक - डराने वाले यानि पावरफुल
दो- निडर होकर अपना काम करने वाले

अफ़सोस ! पहले वाली क्लास में हम हो नहीं सकते
थैंक गॉड हम निडर नहीं हैं

बीकॉज़ देयर इज नो हार्म डर कर जीने में
क्यों लिए-लिए फिरें व्यर्थ की आग सीने में

डर कर खुले आम घूमना जेब के लिए फायदेमंद है
वर्ना तो आपके लिए सभी रास्ते बंद हैं
निडर होकर युद्ध लड़ना बेमतलब की सजा है
डर कर उह-आह-आउच कहने का अपना मज़ा है
बस इतना ही तो कहना है सर फ़रमाया आपने बजा है
बाक़ी सब कुछ बेजा है
बस आपही के पास भेजा है
और हमारे पास जो दिल है
मात्र चूहे का बिल है

कुछ लोग जाने क्यों चिल्लाते हैं
हमें जो नज़र नहीं आतीं
सिस्टम की उन्हीं खामियों पर आवाज़ उठाते हैं
न जाने बदले में क्या पाते हैं
ज़रूर कुछ उन्हीं का अपना मन्तव्य होगा
या फिर महान कहलाना उनका गंतव्य होगा

वरना क्यों उन्होंने मशाल उठाई हाथ में
क्या जानते न थे
हम लोग न आएँगे साथ में
और जो जितने आएँगे
अल्पसंख्यक कहलाएंगे
अजी हमारा क्या है
अपना ही सीस गंवाएंगे

भले ही उनकी जद्दोजहद से
हमारा भी कुछ फायदा हो जाए
पर इसी बात पर हम क्यों उनसे हाथ मिलाएं?
जब आलरेडी हुए हैं हमने हाथ फैलाए

बेहतर दुनिया के बंद दरवाज़े खटखटाने वालो
बेशक खटखटाते रहो
खुल जाएं तो हमें बुला लेना
हम तुम्हारी बस में सवार हो जाएंगे
पार हो जाएंगे

अरे ओ निडर लोगो
डर के जियो
और डर के जीने दो
डरने के अपने जन्मसिद्ध अधिकार का उपयोग करो
अच्छा है हम थोडा-सा अपमान सह लें
जिस तरफ की हवा हो उसी ओर बह लें
डरे हुए लोगों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व में रह लें

न जाने क्यों
बहुसंख्यक होने के बावजूद
यह शंकालु मन डंकालु होकर गर्व से कहने की हिम्मत नहीं दिखाता
कि हम डरालु हैं
कोई हमें आरसी दिखाए तो हम डरते हुए इधर-उधर देखकर नापतौल कर निडर होकर
कह देते हैं
हम किसी से डरते नहीं

न जाने क्यों
सेफ रहने के बावजूद
कुछ है जो
कहता है - ग़लत कर रीए ओ मियाँ

कुछ-न-कुछ है ज़रूर
जो अन्दर से कचोटता है

क्या आप पास आएँगे
मेरी हरदम गुम सिट्टी-पिट्टी का खयाल करते हुए
मेरे कान में चुपके से
बतलाएँगे
कि ऐसा क्यों है ?
मिस्टर निडर जी
प्लीज़...