गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

क्या कहूं
नहीं आ पाया बस
और अपनी बेटियों को दिया वादा भी पूरा नहीं कर पाया 
उन्हें आलू की टिक्की खिलाने का
पत्नी के साथ मार्केट जाने का 
अपने बचे हुए अख़बार भी पूरी तरह नहीं पढ़ पाया 
कुछ कविताएँ पढ़नी थीं 
कुछ लेख लिखने थे 
कुछ किताबों को पढ़ना था 
कुछ दोस्तों से मिलना था 
कुछ काग़ज़ों को सहेजना था 
कुछ हिसाब किताब रखने थे 
कुछ चीज़ें छांटनी थीं 
कुछ जूतों चप्पलों को रिपेयर करवाना था 
और कुछ कपड़ों को उनके पास भिजवाना था 
जिनके पास नहीं हैं 
(मुझे भी तो दिए ही थे किसी ने)
कुछ लोगों को घर बुलाना था 
और टाइम टेबल बनाना था 
सुनना था रेडियो और टेलिविज़न पे आ रही एक फिल्म को पूरा देखना था 
तय करना था कि आगे से सब कुछ पहले से तय कर लूँगा 
और जिसका जो हिस्सा बनता है 
उसको दूंगा
पर देखते ही देखते शाम आ गई 
और एक पुकार मेरे नाम आ गई 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

तुमसे प्यार नहीं है बार-बार खुद को याद दिलाता हूँ फिर क्यूँ आती है तुम्हारी याद 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

पटाखे न चलाएँ

पटाखे न चलाएँ
कहीं दिवाली की शुभकामनाएँ 
बन जाएँ 
न संवेदनाएँ 



बुधवार, 19 अक्तूबर 2011