शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

 बहुत कुछ कर जाना चाहता हूँ मरने से पहले। मगर कुछ करने के लिए जीना सबसे पहली शर्त है और जीना आया ही नहीं। 


बस केवल आसन्न किंतु अदृश्य मृत्यु को टालने भर को जीता रहा हूँ अब तक। इतने भर को अपनी सक्सेस मानकर संतोष की सांस ली है, इस सफलता का जश्न मनाना तो दूर की बात ठहरी क्योंकि हरेक की तरह मैं भी, मानता तो नहीं पर जानता हूँ कि मृत्यु टाली नहीं जा सकती। 


अब कुछ यूँ सोचता हूँ कि चाय पी लूँ मरने से पहले।

26 November 2019

सोमवार, 22 नवंबर 2021

अच्छे दिन

 #वामपंथीएजेंडेवालीपोस्ट


सब कुछ बाज़ार में तब्दील होता जा रहा है। 


हम हर काम और उद्देश्य को मुनाफ़े के अभिप्राय से देखने लगे हैं और प्राइवेट सेक्टर का आगमन हर क्षेत्र में हो चुका है। ख़ासतौर पर हम आम लोगों का वास्ता सर्विस सेक्टर से अधिकाधिक पड़ता है। वहाँ प्राइवेट सेक्टर की मौजूदगी आश्वस्त करने के बजाय आतंकित करती है। 


मिसाल के तौर पर अगर रात आठ या नौ बजे आप किसी बस स्टॉप पर खड़े हैं, तो इसकी पूरी संभावना है कि आप डीटीसी या अपने शहर की सरकारी बस की प्रतीक्षा कर रहे हों क्योंकि आपको मालूम है कि अब प्राइवेट बस अपने डिपो में जाकर खड़ी हो गई होगी। ज़ाहिर है मुनाफ़ा पीक (peak) आवर्स में ही है और सर्विस से ज़्यादा प्राइवेट वालों का सरोकार मुनाफ़े से है। 


मज़े की बात यह है कि आपसे बात की जाए और आपके जनरल विचार जाने जाएँ तो आप प्राइवेटाइजेशन के समर्थक निकलेंगे। 


प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं। 


सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में इमारतें अच्छी न हो, ऐसा हो सकता है और होता भी है। पर वे डॉक्टर और टीचर अनेक परीक्षाएं पास करने के बाद ही वहाँ जगह पाते हैं इसलिए मैक्सिमम क्वालिफाइड होते हैं। 


देश में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो प्राइवेट ट्रीटमेंट और एजुकेशन अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि अधिकतर लोग साधनहीन हैं। अच्छा और समय पर इलाज केवल प्राइवेट में मिलता है यह मानने वाले बेचारे सर्वहारा जन अपनी ज़मीने बेचकर या गहने गिरवी रखकर या एफडी तुड़वाकर इलाज करवाने या शिक्षा हासिल करने आते हैं। 


ज़ाहिर है ऐसे पैसा ख़र्च करके जो बच्चा एजुकेशन हासिल करेगा वह पहले अपना रिटर्न हासिल करना चाहेगा न कि देश और समाज की सेवा की नीयत से अपना योगदान देना चाहेगा। प्राइवेट से सीख कर निकला ऐसा कोई एक उदाहरण आपके पास है तो कमेंट में लिखिएगा। 


प्राइवेट अस्पतालों में इलाज का एक रास्ता मेडिकल इंश्योरेंस से होकर भी गुज़रता है। लेकिन उसका प्रीमियम भरने लायक पैसे से अधिक आपके पास उस तरह सोचने की सलाहियत यानी इंश्योरेंस माइंडेडनेस आपके पास होनी चाहिए जो एक बड़े तबके के पास नहीं है। 


क्योंकि नौकरियाँ कम से और कम होती गई हैं और बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ कठिन से और कठिन। इसलिए आदमी रोज़ाना के अपने सरवाइवल के बारे में सोचेगा, मेक बोथ एंड्स मीट (making both end meet) के बारे में सोचेगा या फ्यूचर के ख़तरे के लिए सेविंग करने के बारे में? यह सेविंग गुल्लक या बैंक खाते तक ही सीमित रहती है और अब तो बैंकों का हाल भी बुरा है। 


बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ के कठिनतर हो जाने की जो बात मैंनें की शायद आप उससे सहमत न हों। क्योंकि कहा जाता है कि मौजूदा निज़ाम व्यापार के मौक़े बढ़चढ़कर दे रहा है। इन लोगों ने तो रक्षा क्षेत्र को भी निजीकरण के लिए खोल दिया है। 


चलिए मैं आपकी बात मान लेता हूँ। लेकिन अगर मैं कोई दुकान खोलूँ और सरकार मुझे पूरी सहायता दे भी दे उस दुकान को खोलने में, तो भी प्राइवेटाइजेशन के दौर में मेरा मुक़ाबला बड़ी दुकान से है। मॉल कल्चर पसरता जा रहा है और अंततोगत्वा वह दिन दूर नहीं जब मुझे अपनी दुकान किसी मॉल में खोलनी पड़े जहाँ दुकान का पर डे (per day) किराया ही आपके लिए चुकाना भारी पड़ जाए। 


कुल मिलाकर हो यह रहा है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाएगी और खा रही है और हम जो अधिकतर छोटी मछलियाँ हैं, इसे सही ठहरा रहे हैं यानी हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। अपने जीने के अधिकार को ख़ुशी-ख़ुशी छोड़ रहे हैं आख़िर हो क्या गया है हमें? 


सरकार को हम उसकी हर ज़िम्मेदारी से विमुख करते जा रहे हैं न जाने किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए! 


पढ़े-लिखे लोग इसे रिफ़ॉर्म्स कह रहे हैं। 


अगर सब कुछ प्राइवेटाइज़ होता गया तो क्या एक दिन पुलिस भी प्राइवेटाइज़ हो जाएगी? 


अगर ऐसा हुआ तो कैसा होगा वह समय और समाज? 


ऐसी पुलिस की दुकान के कस्टमर कौन होंगे?

अपराधी?


अगर हम सीधे-सादे लोग पुलिस के कस्टमर कहलाएँ तो क्या पुलिस हमसे प्रोटेक्शन मनी लेगी? यानी हफ्ता वसूलेगी!!!


मान लीजिए एक युवती प्रोबैबल (probable) बलात्कारियों से बचते हुए सड़क पर भाग रही है। एक प्राइवेट पुलिस वाला उसे दीखता है। वह उससे रक्षा की याचना करती है और पुलिस वाला पहले उसे प्रॉटेक्शन चार्जेज़ के लिए ऑनलाइन पेमेंट करने को कहता है, तो ऐसा समाज कैसा समाज होगा? 


जिन्हें मैंने ऊपर प्रॉबैबल बलात्कारी कहा है, किसी रजिस्टर्ड एंटिटी (entity) के लिए वे प्रॉमिसिंग बलात्कारी भी हो सकते हैं। 


सारी मर्यादाएँ और मूल्य तथा जज़्बात केवल नफे और नुकसान में सिमटकर रह जाएँगे। 


फिर भी टैक्स बढ़ते जाएँगे और हमारे इलेक्टेड रेप्रेज़ेंटेटिव्ज़ प्राइवेट वालों के दल्ले बनकर लुटियंस के बंगलों में रंगीन रातें गुज़ारेंगे और हम इसे देश के लिए सही मानते हुए चुपचाप होम हो जाएँगे। 


ऐसे अच्छे दिनों की सरहद में हम दाखिल हो चुके हैं।

22 November 2020

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

विजय सिंह के बारे में

होशियारपुर, पंजाब से आए और दिल्ली में संघर्षरत माता-पिता के यहाँ  20 अप्रैल 1971 (लेकिन काग़ज़ों में 24 अप्रैल, वर्ष वही) को दिल्ली में आश्रम नामक जगह के नज़दीक, गुरद्वारा बाला साहिब के सामने एक जेजेकॉलोनी में जन्में विजय सिंह पिछले लगभग तीन दशकों से रंगमंच में सक्रिय हैं। आरंभिक शिक्षा घर के नज़दीक एक सरकारी स्कूल में (हिंदी मीडियम), माध्यमिक शिक्षा घर के नज़दीक एक सरकारी स्कूल (हिंदी मीडियम), राजनीति विज्ञान में स्नातक स्तर की शिक्षा घर के नज़दीक एक सरकारी कॉलेज (हिंदी मीडियम) और परफार्मेंस स्टडीज़ में परास्नातक स्तर की शिक्षा घर से दूर कश्मीरी गेट स्थित अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली से अंग्रेज़ी मीडियम में।  कई काम किये। ट्यूशन पढ़ाई, जूता बनाने वाली फीनिक्स कंपनी में एक्साइज़ असिस्टेंट और पेप्सी बनाने वाली दिल्ली कूल ड्रिंक्स में स्टैटिस्टीशियन की नौकरियाँ की। यह सब कुछ इसलिये किया कि थियेटर करने से मम्मी-डैडी न रोकें।   

मुख्य तौर पर हिंदी रंगमंच में बतौर अभिनेता काम करते रहे हैं और अंग्रेज़ी और पंजाबी थियेटर भी किया है। एम एस सथ्यू, कीर्ति जैन, महेश दत्तानी, दीपन् शिवरामन् जैसे निर्देशकों के साथ काम किया है। एक फ्रीलांसर के तौर पर रेडियो माध्यम से भी जुड़े हैं और रेडियो नाटकों के अलावा पंजाबी न्यूज़, एफ एम गोल्ड में काम किया है। दूरदर्शन के लिये भी अनेक वॉइसओवर किये हैं और ट्रांसलेशन, लेखन इत्यादि करते रहते हैं। पाकिस्तान, दुबई, चीन की यात्राएँ रंगमंच के सिलसिले में कर चुके हैं। अपनी दो सोलो प्रस्तुतियाँ - मंटो कृत शहीदसाज़, और उदय प्रकाश कृत पॉल गोमरा का स्कूटर जहाँ अवसर मिल जाए करते रहते हैं। संगीत नाटक अकादेमी में लगभग पक्के तौर पर एक कच्ची नौकरी पकड़ कर पिछले 10 से भी अधिक वर्षों से अपनी जीविका की गाड़ी के पहियों में कुछ तेल डालने का जुगाड़ बिठा रखा है। 


उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातक की डिग्री पीजीडीएवी कॉलेज से बीए के पाँचवें वर्ष में हासिल की। फिर उन्हें यह अहसास होने में कई वर्ष, शायद पंद्रह-एक बीत गए कि उन्हें एमए कर लेनी चाहिए। एमए हिंदी में करने की ठानी और ठान कर, दिल्ली यूनिवर्सिटी से दूर शिक्षा स्कूल में एडमिशन पाने के बाद भी पढ़ाई नहीं की और फिर उसके कई और वर्षों बाद महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पत्राचार से एमए हिंदी के प्रथम वर्ष में प्रवेश पाया और 54 प्रतिशत मार्क्स लाने की ख़ुशी में दूसरे वर्ष में एडमिशन लेना भूल गए और एमए बीच में ही छूट गई। आख़िरकार सन् 2013 में इन्होंने अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली से परफार्मेंस स्टडीज़ में गिरते-पड़ते एमए की डिग्री हासिल करने में सफलता हासिल कर ही ली। हिंदी में एम ए न कर पाने की टीस अभी बाक़ी है। सो पिछले ही महीने इग्नू की फीस भरी है, एम ए प्रथम वर्ष में दाखिला पा लिया है। देखें, आगे क्या होता है। 


ख़ुद को बहुत बड़ा ऐक्टर समझने की ग़लतफ़हमी अभी तक दूर न कर पाने में कामयाब विजय सिंह एनएसडी से नहीं हैं। इस ग़लतफ़हमी का ज़िम्मेदार वे अकेले नहीं हैं, इसमें काफ़ी कुछ योगदान उन प्रस्तुतियों का भी है जो न जाने कैसे ठीकठाक सी हो गईँ और दर्शकों ने तालियाँ बजा दीं तो इन्होंनें समझा कि इन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। इनकी एक क़ामयाबी कई फिल्मों, वेबसीरीज़ इत्यादि के ऑडिशन्स में नाकाम होने की भी है जिस कारण थियेटर का परचम इन्हें थामें रखना होता है क्योंकि सिर्फ़ थियेटर ही है, जहाँ हरेक के लिये जगह है।