शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

अब हुआ क्या कि मेरे मन में बात आई कि एक जींस की पैंट और दो जोड़ी राष्ट्रीय पोशाकें ख़रीद ली जाएँ। एक्चुअली दिल्ली में रहते हुए समय तो मिलता नहीं। प्रोमिला भी वर्किंग वुमन होने के नाते ज़्यादा कुछ कर नहीं पाती। और मेरी बनियान वग़ैरह अभी भी मेरी मम्मी ख़रीद के लाती हैं।


आजकल टूअर पर इतना रहना पड़ रहा है कि शिमला से आके जब मैं एक-दो दिनों में ही सिल्चर और वहाँ से गुवाहाटी गया तो रवि तनेजा वीर जी ने मुझसे पूछ ही लिया, 'यार इतने कपड़े थे भी तेरे पास (कि तू एक शहर से दूसरे में बिना रुके छलांगे मारता फिरे)!!!??'


टूअर पर रहते हुए अपने कपड़े ख़ुद धो लेने की आदत अब मेरे घर में रहते हुए भी कुछ-कुछ काम में आने लगी है। 


लेकिन कपड़ा प्रेस करना मेरे लिए जी का जंजाल है। यहाँ की सिलवट समेटता हूँ तो वहाँ की मुँह चिढ़ाने लगती है, सो भी ख़ास तौर पर तब जब मैं प्रेस करके शर्ट पहन चुका होता हूँ। पैंट प्रेस करना ज़्यादा आसान है। कई बार होटलों में प्रेस करवानी पड़ती है या लोकल बंदा ढूँढना पड़ता है। लोकल तो मिलता नहीं और समय भी नहीं होता। मजबूरन होटल में प्रेस करवाने पर एक कपड़े के पच्चीस रुपए तक देने पड़ जाते हैं। सोचिए, मुझ जैसा आदमी जो बस का किराया बचाने के लिए दो स्टॉप पैदल चल लेता है, कपड़े प्रेस करवाने के पच्चीस रुपए देते हुए कैसा महसूस करता होगा। 


तो सिर्फ इश्क़ ही ऐसी चीज़ नहीं जिसके बारे में कहा जाए कि नहीं आसां 

कपड़े आयरन करना भी नाको तले लोहे के चने चबाना है 

बस इतना समझ लीजे कि कपड़े को आग के दरिया में डूब के जाना है और ख़ुद को जलने से बचाना है। ख़ैर....


बहुत वर्षों तक कमीज़ें घर पर सिली पहनता रहा और अब मम्मी-डैडी की सेहत ठीक नहीं रहती तो उन्हें मजबूरन मुझे इजाज़त देनी पड़ी कि मैं रेडीमेड कपड़े ख़रीद लिया करूँ। पर ऐसा कुछ भी ख़रीदता हूँ, तो उन्हें दिखाए बिना अपने कमरे में ले जाता हूँ, क्योंकि वो कीमत पूछेंगे और यही कहेंगे कि मैं महंगा ले आया। बाप की आँखों का सामना करने की हिम्मत मेरी तो पड़ती नहीं सो मैं आएं-बाएं करके टाल देता हूँ जब सवाल रेट का उठता है तो। 


शर्ट पैंट इत्यादि ख़रीदने का अपन को यही तरीका सूझा है कि जब टूअर पर हो तो उसी शहर या कस्बे में एक कमीज़ इत्यादि ख़रीद लो। 


यह पोस्ट लिखते समय जो शर्ट मैंने पहन रखी है वो त्रिशूर में ख़रीदी थी और जो जींस की पैंट मैं धोकर डाल आया हूँ वह मैंने शिमला में खरीदी थी। इस पोस्ट को लिखते समय पहनी हुई जींस की पैंट शायद मैंने कनाट प्लेस से खरीदी थी। 


तो यहाँ गुब्बी में सोचा एक जींस की पैंट ख़रीद ली जाए। जींस की पैंट कई दिन चलती है और लोग उसे फैशन या आधुनिकता मानकर आपको अपने पास बैठने देते हैं। आप भी कोन्फिडेंट बने रहते हैं। 


कृपया कोन्फिडेंट की इस्पेलिंग को नज़रअंदाज़ करें। पर नज़रअंदाज़ की स्पेलिंग ठीक है।


तो मैं कपड़े की एक बड़ी सी कस्बाई-एथोस से ओत-प्रोत दुकान में अपने एक स्थानीय साथी के साथ गया। दुकान में सेल्समैन ने कह दिया देखते ही कि मुझे 36 की कमर चलेगी। वैसे मेरा पेट न जाने किस बात की गवाही देने को बाहर को निकला हुआ है जिससे मुझे लगता है कि इस कमबख़्त को तो चालीस की भी न बांध पाए। 


मुझे पैंटें दिखाई गईं सभी तंग मोरी की थीं, और एक जो मेरे टेम्परामेंट के सबसे नजदीक जान पड़ती थी, मैंने चुनकर ट्रायल रूम की ओर रुख किया। एक छोटे-से कैबिन में घुसने के लिए दरवाज़ा खोलते ही मैं हैरान हो गया। दरवाजे के उस पार भी मैं ही खड़ा मिला मुझे। मैं डूइंग माय ओन स्वागत!!! तो गोया इत्ती सी जगह थी कि खड़ा हुआ जा सके। मैंने आदमक़द आईने में ख़ुद से कहा, 'अबे फैब इंडिया में आया ऐ क्या तू जो नखरे दिखा रहा है।' 


आत्मसम्मान की वजह से नहीं बल्कि मेरी अकर्मण्यता के गवाह पेट के निकले होने की वजह से झुकना बड़ा मुश्किल हो चला है मेरे लिए आजकल। और नई पतलून को पहनकर देखने के लिए पुरानी पतलून उतारनी ज़रूरी थी। पतलून उतारने के लिए जूते के तस्में खोलना ज़रूरी था और जूते के फीते खोलने के लिए बैठना या झुकना ज़रूरी था। झुकना हो न पाना था तो मैंने पैर से रिक्वेस्ट की कि खुद ही उठकर पेट की ऊँचाई तक चला आए। यानी मुझे एक पैर पर खड़ा होना था। ज़ाहिर था मैं लड़खड़ाने लगा। सहारा लेने के लिए आदमक़द आईने पर हाथ रखा तो आईना टूटते-टूटते बचा। दरअसल आईना दीवार में चस्पा नहीं किया गया था केवल सहारा लेकर खड़ा कर दिया गया था। आईना टूट जाता तो मेरा भी टूटना तय था। एक जूता उतारा फिर दूसरा। और पैंट उतारकर पहले तो जी भरकर गहरी साँसे लीं और फिर खुद को योकोजुमा पहलवान स्टाइल में आईने की तरफ देखा। 


अब हमने तंग मोरी पैंट में अपनी टांग घुसाने की शुरुआत की। एक जब ठीक-ठाक घुस गई तो दूजी घुसाई और इस सफलता पर गर्व करते हुए एकम-एक बटन लगाने की कोशिश की। काज बहुत संकरा था और बटन को घुसाने में हमारे अंगूठे को नानी याद आ गई। उसके बाद हमने ज़िप ऊपर को खींचने की कोशिश की लेकिन ज़िप सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने की मांग पर अड़ गई हो जैसे। 


हमने तौबा की और जींस की पैंट की ज़िप वापिस नीचे करने में काफी मशक्कत के बाद सफलता पा ली। बटन खोलने में तो मुझसे पसीना आ गया। आखिर मैंने सेल्समैन को बुलवाकर उससे बटन खुलवाया। 

24 Dec 2017


जींस की पैंट को वापिस सलीके से उतारना हमारे बस का न था सो ज़ोर लगाके हईसा किया और छिलके या केंचुली की तरह, या फिर स्कूल से लौटे बेचैन बच्चे की तरह हमने उस पैंट को उतार फेंका और वापिस पुरानी जींस में आ गए। इस बार जूते पहनने के लिए झुकने में कुछ कम कष्ट हुआ। इस सब एक्सरसाइज़ में ऐसा लगा गोया ट्रायल रूम से नहीं बल्कि जिम से बाहर निकल रहे हों।


जींस खरीदने गए थे, कच्छा ख़रीद के लौटे।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

भौत भौत प्यार

 वो दोनों एक दूसरे को भौत-भौत प्यार करते थे। 

भौतई जादा 

इत्ता जादा कि पूछो मत 

इससे भी जादा क्या कि दोनों मरते थे एक-दूसरे पर 


एक दिन उसने कहा 

मैं तुमसे भौत प्यार करता हूँ 

वो बोली 

मैं कौन सा कम करूँ 

मैं भी तुमसे भौत प्यार करती हूँ 


वो बोला 

मैं तो इत्ता जादा करता हूँ कि तुम तो क्या मैं खुद भी अंदाजा न लगा सकता 


वो जवाब में बोली 

मेरे प्यार का न तुम अंदाजा लगा सकते न मैं 

यहाँ तक कि भगवान भी अंदाजा नहीं लगा सकता 


उसने कहा पर मेरे जितना न करती होगी मेरा तो रोम रोम तेरी याद में पागल हुआ जाए 

वो बोली अरै ज्जा मेरी तो सांस सांस में तूई बसा ऐ कमीन्ने इत्ता प्यार करूँ मैं तुझे 


बस जी फिर क्या था 

दोनों प्यार में एक दूजे को नीचा दिखाने पे तुल गए और 

अब उनमें ठन गई कौन किसको जादा प्यार करता ऐ 

प्यार की बात तू-तू मैं-मैं में बदल गई 

बात कि बात में दोनों में अबोला हो गया 

और दोनों ने एक-दूजे का थोबड़ा न देखने तक की कसम खा ली 


वर्तमान स्थिति यह है 

कि दोनों एक-दूजे को अगर देख लें 

तो चीर खाएं 

कच्चा चबा जाएँ 

और यई ऐ उनके प्यार की हद। 


नोट : 

यह पोस्ट शब्द 'स्थिति' के सही हिज्जे बताने के लिए लिखी है।

23 Dec 2017

बुधवार, 22 दिसंबर 2021

22 December 2019

 (पता नहीं लोग फोटोग्राफ को छायाचित्र क्यों कहते हैं, शायद इसके पीछे 'संसार माया है' नामक दर्शन होगा। फिलहाल मैं फोटोग्राफ को प्रकाशचित्र कहना चाहूँगा, बट दिस पोस्ट इज़ अबाउट समथिंग एल्स)


चेन्नै विमानतल पर बाहर आते हुए नटराज की प्रतिमा दीखते ही मैं स्वयं को आत्मिक सौंदर्यानुभूति में निमग्न पा रहा था।


पैठने को ही था मैं कि अचानक मुझ अकिंचन को श्रद्धा के क्षीरसागर से बाहर खींचकर डोलायमान भवसागर में अवस्थित कर दिया स्वार्थियों ने।


कुछ सहकर्मी नटराज प्रतिमा के साथ प्रकाशचित्र खिंचवाना चाह रहे थे। तो मेरे हाथ में अदृश्य शाश्वत जपमाल के स्थान पर स्थूल क्षणभंगुर मोबाइल पकड़ा दिया गया और मेरा फोकस बदल गया।


मेरे हृदय में सदा से निवास करते आए नटराज की पुनराच्छादित छवि किसी तरह सहेजता मैं हवाई अड्डे से बाहर आया लेकिन बाहर आते ही संसार की मोहमाया का कोलाज मन के तानेबाने में पुन: उभरने लगा।


तीन-दिवसीय नाट्यशास्त्र उत्सव की अंतिम संध्या में समापन-संबोधन के लिये सोनल मानसिंह जी आमंत्रित थीं। उन परम् विदूषी को सुनते हुए नटराज की छवि अपनी भव्यता के साथ मेरे हृदयपटल पर पुन: उत्कीर्ण होने लगी।


सोनल जी ने जो कुछ कहा जस-का-तस तो याद नहीं, किंतु जो मुझे समझ आया वह यह था कि नटराज के प्रथम पग में ही तीनों लोक नप गए और दूसरा पग धरने के लिए कोई स्थान न मिलने के कारण दूसरा पग उठा ही रह गया।


यह सुनकर एक भव्य विराटता का आभास मुझे हुआ। इस विराटता से भय और भक्ति दोनों भाव उत्पन्न हुए मुझ निर्लज्ज के मन में।


भय कितना था और भक्ति कितनी इसकी ठीक-ठीक नापतौल कर न पाया, संभवतः इसलिए क्योंकि यह अंतस् में सूक्ष्म जगत् के झंझावाती समुद्र में आते-जाते भाव थे। स्थायी भाव तो शांत सरोवर में ही संभव है जब ध्यानावस्था में बैठता है साधक।


यह साधक किसी गुफा या हिमालय की कंदरा में बैठने वाला पापुलर परसेप्शन वाला साधक नहीं, जो कहने को तो संन्यास धारण करता हो किंतु रीसेटल हो जाता हो मठेंद्र बनकर।


इस संघर्षशील संसार में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए, बुद्ध होने की ओर अग्रसर साधक की बात हो रही है यहाँ।


उत्सव समापन के अगले दिन दोपहर के बाद मैं निकल पड़ा एक-दिवसीय पुदुच्चेरी दौरे के लिए जो कि मेरा पूर्वनिर्धारित निजी कार्यक्रम था।


मुझे बताया गया चिदंबरम् पुदुच्चेरी से कोई एक घंटे के सफ़र जितना ही दूर है। सो अपन वहाँ से चल पड़े सीधे चिदंबरम् के दर्शनार्थ।


मुझे बताया गया कि पंचभूतों (वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश) में निवास करने वाले महादेव, आद्य गुरू शंकर पिता यहाँ अर्थात् चिदंबरम् में आकाश रूप में, नटराज रूप में विद्यमान हैं। 


यह सुनकर एक पल को मैं चकित रह गया। चेन्नई विमानतल पर नटराज मूर्ति के दर्शन से लेकर कलाक्षेत्र  में सोनल जी के संबोधन तक, सब घटनाएँ अब मुझे संकेत प्रतीत हुई भगवान शिव के इस रूप के दर्शन निमित्त।


जी चाहा कि कहूँ - 'मुझे पिता शिव-शंकर ने बुलाया है'। किंतु मैं कह न सका। 


जब से ‘मुझे माँ गंगा ने बुलाया है’ नामक वक्रोक्ति सुनी है तब से बहुत से शब्दों और वाक्यों - जिनमें से कईयों पर से पहले ही उठा हुआ था, भरोसा उठ गया है जैसे, संविधान का पालन, मैं देश नहीं बिकने दूँगा, देशभक्ति, बहुत हुआ नारी पर वार, न्यायपालिका की निष्पक्षता, आदि। राम समेत सभी श्रद्धा प्रतीक साम्प्रदायिक सत्ता की भेंट चढ़ चुके हैं। अगर कोई हर हर महादेव का उच्चार करता है तो सुनने वाले उसमें कुछ और ही सुन लेते हैं और ऐसे लोगों को पुदुच्चेरी से वणक्कम करना पड़ता है। 


आंगिकम् भुवनम यस्य

वाचिकं सर्व वाङ्ग्मयम

आहार्यं चन्द्र ताराधि

तं नुमः (वन्दे) सात्विकं शिवम्


जब से उपरोक्त शिव-स्तुति को सुना-जाना था, आराध्य शिव के इस रूप के दर्शनों की इच्छा प्रगाढ़ होती गई थी। 


किंतु मुझ अन्जान को यह न पता था कि वे इस स्वरूप में चिदंबरम् में विद्यमान हैं। 

और चिदंबरम् पुदुच्चेरी से मात्र एक घंटे की दूरी पर है 

और जब से चेन्नई उतरा हूँ वे किसी-न-किसी संदर्भ द्वारा अपने भाव से मुझको आलोकित करते आ रहे हैं, कि।


मंदिर के विशाल प्रांगण में प्रवेश करते हुए मेरा भयशून्य चित्त वंदन-ध्वनि से तरंगित हो रहा था। 


विस्तीर्ण प्राचीरें, अट्टालिकाएँ, प्रासाद मुझमें एक आश्वस्ति का भाव उत्पन्न कर रहे थे। भवन निर्माण की अनुपम कला का विराट उदाहरण मेरे सम्मुख था। 


मंदिर में अंदर जाते हुए मन में प्रभु दर्शनों की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी। और वह क्षण आया जब मैं मुख्य मंदिर के ठीक सामने था। भगवान जिस गर्भ गृह में सुशोभित थे। उसके बाहर बरामदा था और यह सब एक बड़े लगभग पाँच फुट ऊँचे चबूतरे पर था। चबूतरे के बाहर परिक्रमा मार्ग था और इसके इस पार नटराज प्रभु की मूर्ति के ठीक सामने हम दर्शनों की अभिलाषा में हाथ जोड़े अनारक्षित सर्वहारा जन के समूह में सम्मिलित हो गए। 


हमने देखा कि कुछ लोगों को चबूतरे (कनकसभा) पर जाने की आज्ञा है। पूछने पर मालूम हुआ कि कुछ राशि देकर (रु. 100/-  प्रति व्यक्ति) हम लोग भी कनकसभा में जाने के अधिकारी हो जाएँगे।


मुझे झटका-सा लगा। अपने प्रभु के दर्शन के लिए मुझे पैसा देना पड़ेगा!! चलिए मैं तो दे भी दूँगा और मेरे जैसे कई और भी होंगे। पर जो नहीं दे सकते उनका क्या!! 


क्या वे ईश्वर के दर्शनों के अधिकारी नहीं!! 


बात छोटी-सी ही थी पर जैसे मुझे किसी 'सत्य' का साक्षात्कार करवा रही थी। 


दूध जैसा झक्क चिट्टा मन था मेरा उनकी आलोकित छवि को समो लेने के लिए।


महादेव के दर्शनों को उतावले थे नैन पियासे। 


किंतु पैसे की बात सुनते ही जैसे दूध में किसी ने चायपत्ती डाल दी हो। चाहे थोड़ी-सी ही सही, पर दूध का रंग जैसे जाता रहा और बेशक़ वह अब भी दूध था बिना पानी मिला पर दही या मक्खन अब उसमें से न निकल सकता था। 


इस पैसे देने के मामले ने दो काम किए - 

पहला :  मुझे दर्शन का अधिकारी केवल इस बिना पर बना दिया गया कि आइ कैन अफोर्ड इट मॉनिटेरिली। 


दूसरा :  एक फीजिकल या लिटल जियोग्राफिकल दूरी पर भावभीनी श्रद्धा में हाथ जोड़े खड़े भक्तों जिनमें बच्चे, बड़े, बूढ़े, पुरुष-स्रियाँ, सम्पन्न-विपन्न सभी शामिल थे, का जो सरोवर बन रहा था उससे मैं दूर हो गया। कनकसभा में एक ऊँचाई पर खड़ा उन भक्तों को इग्नोरिंगली मैं देख रहा था और न चाहते हुए भी यह भाव मुझमें आ रहा था कि मैं उनसे अलग हूँ, शायद श्रेष्ठ हूँ, बिकॉज़ आइ कैन पे और रादर चोज़न टू पे। 


अब मन प्रैक्टिकैलिटी की ओर उन्मुख हुआ और मेरे 'श्याम मन' को ज्ञान देने लगा कि अरे मूर्ख जब पइसे दिए हैं तो आगे बढ़कर दर्शन कर। किंतु सौ रुपये दे देने के बाद भी हमारी पहुँच गर्भगृह के द्वार से कुछ बाहर तक ही थी। यानी इत्ते पैसे में इत्ता ही मिलता है। 


गर्भगृह के अंदर तो केवल पुजारी जाते हैं। आरक्षण इसी का नाम है।


मुख्य मूर्ति के कक्ष में आधुनिक आविष्कृत विद्युत आपूर्ति से चमत्कृत बल्ब अथवा ट्यूबलाइट नामक उपकरण अनुपस्थित थे और दीये के हिलजुल प्रकाश में किंचित् दृश्यमान मूर्ति के दर्शन बहुत कठिनाई से हो पा रहे थे। नटराज महाराज को आभूषण और फूलमाला से कुछ इस प्रकार अलंकृत किया गया था कि मन में बसी मूरत और सामने खड़ी प्रतिमा का मिलान करना बहुत कठिन लग रहा था। 


इतनी दूर से आकर भी, ईश्वर के इतने निकट पहुँचकर भी आस निरास भयी!! उनके उठे हुए पग को देखने का प्रयास निष्फल रहा क्योंकि दीये का प्रकाश आभास मात्र ही उत्पन्न कर पा रहा था। 


एक बात अच्छी हुई, कि विश्व में केवल यहीं स्फटिक शिवलिंग के दर्शन होते हैं और मैं जिस समय कनकसभा में प्रविष्ट हुआ स्फटिक शिवलिंग पर दूध, दही, घी, चावल इत्यादि अर्पित किए जा रहे थे। और कुछ ही समय पश्चात शिवलिंग को एक स्वर्ण मंजूषा में रख गर्भगृह में ले जाया गया। अब हमें कनकसभा से प्रस्थान करने की आज्ञा दी गई जिसका हमने पालन किया और नीचे उतरकर परिक्रमा-उपरांत नागरिक समूह में सम्मिलित हो गए। आरती के स्वरों, घंटानाद और समवेत गान से मंदिर प्रांगण गुँजायमान हो उठा और नटराज भगवान के जो दर्शन उतने सहज 'अप क्लोज़' नहीं थे, उस 'डिस्टंस' या दूरी से कुछ अधिक संभव जान पड़े। 


मुझे याद आया इसी वर्ष अप्रैल में मथुरा में द्वारकाधीश मंदिर में भी दर्शनों का कितना लोचा हुआ था। भगवान की मूर्ति के ठीक सामने आकर दर्शन करने के लिए गलियारा बंद था, बस दोनों तरफ़ की रेलिंग से उचक-उचककर दर्शन कर पाया था मैं भीड़ के धक्के झेलता हुआ उचक्का। 


मैं तो चलो नालायक था। दर्शनों का अधिकारी नहीं था। लेकिन दूर-दूर से आए और लोग भी थे। उन्हें तो दर्शन देते प्रभु। 


मंदिर में एक स्थान से आगे जाने के लिए नक़द चढ़ावा क्यों देना पड़ता है?  यह पैसा सरकार लेती है या कोई और? इसका किया क्या जाता है? लोग तो वैसे भी (इस पैसे के अतिरिक्त) दान-दक्षिणा देते ही हैं। यह किस किस्म की दादागिरी है? ऐसे प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ना ही उचित लगा मुझे।  


क़ैद में हैं भगवान!!

सोमवार, 13 दिसंबर 2021

 वे हार गए 

यह भी उनकी 

किरपा ही है।


वरना जीत तो उनके सदावत्सल चरणों में 

वंदन कर-कर लोट लोट

गई थी हार कि हे नाथ! 

मोहे ना इग्नोरो!


उनके त्रिविक्रम चरणों को आँसुओं से सींचती जीत 

छिने जाने के डर से कांप रही थी।


वे कुछ ऐतिहासिक क्षणों के लिए सिंहासन से अनारूढ़ हुए।

उन्होंने पैरों पड़ी बेचारी अबला विजय की पीठ थपथपाई, 

चरणों से उठा अपने युगबाहुओं में ले 

अपने छपंची सीने से लगाते हुए 

रोती हुई सफलता को पुचकारकर अलग करते हुए दिलासापूर्ण स्वर में बोले - 

हम 2019 में तुम्हें लेने आएँगे प्रिये! 

तब तक तुम धैर्य धरो। 

अपने सत्तरवर्षीय पुराने घर में रहो 

आख़िर वहाँ भी हमारे भाई-बंधू सखा-मित्र ही हैं। 

अभी यू हैव अ डेट विद देम!


हमारी सेना सुस्त न पड़ जाए इसीलिए यह उपक्रम है। 

वरना तुम्हारे लिए हमीं क्या कम हैं?


कुछ कुसंस्कारी भक्त तुम्हें लाइटली लेने लगे थे प्रियंके

अच्छा हुआ जो उनके 

लग गए लंके

जो स्टार परचारक बने-बने घूमते थे

मुझे रिप्लेस करने को 

भागवत चरण चूमते थे।


 

कुछ तुम्हारे हमारे 

अंक से बंक मारने से 

इवीएमीकली भी विराम रहेगा 

फिर कुछ ही माह पश्चात प्रेम परवान चढ़ेगा


वैसे भी इस हार का ठीकरा हम पर न किसी ने फोड़ा है 

आपण अभी भी लंबी रेस का घोड़ा है


जीतते तो श्रेय किंतु हमें जाता 

तड़ीपार 

फिर एक बार

मास्टरमाइंड कहलाता।


देखो 

फॉर द टाइम बीइंग

धैर्य हमने धरा है

गोकि दिल अभी न भरा है 


प्रिये अभी तुम्हें जाना होगा 

पिज़्ज़ा खाकर आना होगा


लेट देम रिमेन कॉन्फिडेंट

जिसे फिर हम करेंगे डेंट 

कर लेने दो न हमें 

कुछ नये नारे इन्वेंट।


13 दिसंबर 2018

रविवार, 12 दिसंबर 2021

 नॉरमली अपनी फोटो लगाता नहीं मैं फेसबुक पर अपनी पोस्टों के साथ। पर आज दो-दो लगा रखी हैं। थोड़े-बहुत अंतर के साथ दोनों लगभग एक जैसी हैं। चाहता तो था मैं सिर्फ़ हिमाचली टोपी की फोटो लगाना, पर बिना सिर के कैसे दिखाऊँ इस कोशिश में दो-तीन फोटो खींची भी पर मज़ा न आया। सोचा जब पहनकर ही दिखानी है तो सिर के साथ थोबड़ा भी आ ही जाए तो कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए। 


तो मेरी इस पोस्ट की वजह यह हिमाचली टोपी है जिसे मैंने कुछ और टोपियों के साथ नवंबर 2018 में शिमला से ख़रीदा था। आज इस ऋतु में पहली बार पहनकर जब मैं लुटियंस की दिल्ली में अशोक रोड पर टहलते और तमाशा-ए-अहले करम देखने की नाकाम कोशिश में चलता हुआ मंडी हाउस की जानिब आते हुए जनपथ के गोलचक्कर से  ज़रा पहले पहुँचा ही था कि मेरे पीछे से आते एक ऑटो वाले ने बेसाख़्ता मेरे पास पहुँचकर कुछ कहा। 


मुझे लगा कि या तो वह मुझे कोई संभावनाओं से लबरेज़ कोई सवारी समझ रहा है या दिल्ली के इस हिस्से में अक्सर न चलने के कारण कोई रास्ता, या कोठी नंबर, इत्यादि पूछ रहा है। 


अपने कानों में 70 रुपये वाला (माफ करना) चाइनीज़ हेडफोन ठूँसे हुए मैं आकाशवाणी की ख़बरें सुनता हुआ जो दिख जाए उसे देख लेने की हसरत लिये बिना कहीं पहुँचने की जल्दबाज़ी के मंथर गति से कदमताल कर रहा था। 


चूंकि मैंने उसे देख लिया था और नोटिस कर लिया था कि वह कुछ कह रहा है, अतः लाज़मी था कि मैं रुकता, अपनी दुनिया से बाहर आता और उस ऑटो वाले की दुनिया और अपनी दुनिया के बीच की द्विपक्षीय किंतु सार्वजनिक दुनिया में उससे संवाद करता और पूछता - हाँ भाई क्या है। 


मैंने अपने मोबाइल को ऑन किया। उसका लॉक खोला। आकाशवाणी के डाउनलोडेड ऐप में पहुँचकर उसमें चल रहे समाचार बुलेटिन को रोकने के लिये पॉज़ का बटन दबाया और फिर कानों में पैबस्त किसी चाइनीज़ कंपनी के 70 रुपये वाले ईयरफोन, जिसके माध्यम से मैं सुन रहा था कि पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन सरहदी इलाक़े में बने तनाव और वर्तमान स्थिति पर हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने क्या कहा है, को अपने कानों के कुछ देर के लिये जुदा करने के बाद मैंने उस ऑटो वाले से प्रश्नवाचक स्वर में कहा - जी कहिए क्या बात है?


उसने हिमाचली में कहा (जो मुझे समझ आती है पर बोलने का अभ्यास नहीं है हालाँकि प्रोमिला जब अच्छे मूड में होती है तो मुझसे हिमाचली में ही बात करती है) कि आप कहीं जा रहे हैं तो छोड़ दूँ।


अजनबियों को अपना से लगने वाले और अपनों को अजनबी से लगने वाले इस शहर-ए-दिल्ली में अचानक आपके पास आकर कोई अनजान आदमी जब इस तरह का प्रपोज़ल दे तो उसे अक्सर इन-डीसेंट माना जाता है। 


लेकिन मेरे अंदर जो देहाती आदमी है (हालांकि मैं पैदा हुआ और पला बढ़ा दिल्ली में ही पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि मैं कोई गँवई थाट का राग हूँ, जिसे अभी तक गाया नहीं गया) उसने बात को एकदम समझ लिया। मैंने हँसते हुए कहा - इरादा तो मेरा पैदल जाने का था, किंतु अब आप आकर रुके हैं तो चलिए मंडी हाउस के गोलचक्कर तक छोड़ दीजिए। इस पर भी ऑटो वाले ने पूछा कि क्या मुझे हिमाचल भवन जाना है।    


मैंने अपनी आदत के मुताबिक उससे पूछा तो उसने बताया कि वह हमीरपुर का है। उसने कहा आप देखने में हिमाचली लगते हो और आपकी टोपी देखकर मैंने ऑटो रोक लिया सोचा आप मेरे पहाड़ी भाई हो तो चलो आपको कहीं छोड़ देता हूँ। उसने काम्प्लीमेंट दिया - सर जी मैं हिमाचली हूँ पर आप तो मुझसे भी ज़्यादा हिमाचली लग रहे हो। मैंने इस तारीफ़ को मन-ही-मन स्वीकारते हुए अपने आपसे कहा आजकल होने का नहीं, लगने का ही ज़माना है। 


मुझे मंडी हाउस पर उतारकर सकुचाते हुए वाजिब राशि बोहनी के नाम पर स्वीकार कर वह ऑटोवाला वापिस चला गया। 


मगर उस ऑटो वाले से मुलाक़ात से कुछ पहले एक और घटना हुई थी। 


पटेल चौक पर गोल डाकख़ाने के सामनेवाले चौड़े और लुटियाना-भव्य खुलेपन से सुसज्जित फुटपाथ पर चलते हुए मुझ को सामने से एक व्यक्ति आता दिखा। वह कोई पच्चीस से तीस बरस के बीच का कोई नौजवान था मगर लुटा-पिटा। इस कोहरेदार सुबह और धीरे-धीरे बढ़ती सर्दी में वह शख्स फटेहाल तो नहीं पर अपने अल्प वस्त्रों में थोड़ा-बहुत कांपता चलता हुआ, शायद अपने भीतर जलता हुआ फिर भी बेखबर और चिंताओं से भरी किसी अन्य दुनिया में  दाखिल चल रहा था। उसने मेरी ओर देखकर भी नहीं देखा, जैसे आमतौर पर सड़क पर चलते हुए हम करते हैं। किंतु मैं उसकी ओर देखकर उसे अनदेखा न कर पाया। मन में ख़याल आया क्या मैं उसके लिये कुछ कर सकता हूँ? शायद आपने भी महसूस किया होगा कि आजकल ऐसे दिखने वाले लोगों की संख्या अचानक से बहुत बढ़ गई है। 


तो मुझे लगा कि शायद भूख लगी हो उसे तो चाय और एक ब्रेड पकौड़ा उसे ऑफ़र करूँ। पर यह हो कैसे? उससे सीधे-सीधे तो पूछा नहीं जा सकता था। हारा हुआ-सा वह नौजवान अपनी नियति से जूझ रहा था। पर ऐसा भी नहीं था कि उसने मेरी ओर सहायता की याचना-भरी दृष्टि से एक बार भी देखा हो। 


तो पहल मुझे ही करनी थी। मैं उसके रास्ते में आया और मुझे अपनी ओर आता देखकर उस व्यक्ति में एक असहजता और अपनी ख़याली दुनिया से बाहर आने की जद्दोजहद नज़र आई। वह व्यक्ति मेरे स्वागत को तैयार न था कि मुझसे पूछे जी बताएँ मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ। पर यकायक मेरे सामने पड़ जाने पर उसका मुझसे कोई छुटकारा भी न था। 


उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मैंने कहा - यहाँ आसपास कहीं ब्रेडपकौड़ा बनता है क्या?


उसने असंपृक्त लापरवाही और मेरे प्रश्न की व्यर्थता पर मानों हल्की-सी चिढ़ के साथ बड़े ही बेमन से फिर भी बिना असभ्य हुए जवाव दिया - बनता होगा। और मुझे वहीं खड़ा छोड़  वह अपने रास्ते चलता गया। उसने जो एक पुरानी सी और घिसी हुई ट्रैक पैंट जैसा जेबों वाला कई दिनों से पहना हुआ पायजामा पहन रखा था, उसकी जेब में से बीड़ी का बंडल और माचिस झाँक रहे थे।


मैं कुछ देर के लिये वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। अपनी असमर्थता से टक्कर हो जाने पर लाचार-सा मैं पुनः चलने लगा।


12 दिसंबर 2020

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

 मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे लिए चाँद तारे तोड़ लाऊँगा। वो बोली तोड़ लाओ। अब मुसीबत मेरी शुरू हो गई। इत्ती दूर जाएँ कैसे? इसरो से सेटिंग की। उनका वाला एक हवाई जहाज़ किराए पर लिया। फुल स्पीड पे उड़ाया। लेकिन जब तारों के पास पहुँचा तो पृथ्वी वहाँ से ओझल हो चुकी थी। और जो तारे पृथ्वी से मोतियों जैसे लग रहे थे, अब नज़दीक जाकर पता चला कि एक-एक तारा पृथ्वी से लाखों गुना बड़ा है। तारे भरने के लिए जो झोला ले गया था उसे ख़ाली ही लेकर वापिस आ रहा हूँ लेकिन समझ नहीं आ रहा कि ये पृथ्वी कौन से रूट पर है।

6 Dec 2020

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

समर्थन

 न जाने कब से 

वो मुझसे नाता तोड़ लेना चाहती है

मैं भी यही चाहता हूँ कि वो तोड़ ही ले।


सदियों से मैं उससे दूर जाना चाहता हूँ 

वो भी इस बात पर मेरी हिमायत करती आई है कि मुझे चले ही जाना चाहिए उससे दूर।


एक-दूसरे को इसी समर्थन की वजह से हम दोनों 

एक-दूसरे के जीवन साथी हैं।

1 December 2017