सोमवार, 30 नवंबर 2020

डिजिटल धोखा

 लेट था।

फिर भी सोचा ईएमयू कोई मिल जाए तो अच्छा हो।

अॉटो के पैसे बच जाएंगे।


काफ़ी देर तुग़लकाबाद दिखाकर व्हेयर इज़ माई ट्रेन ऐप ट्रेन को ओखला दिखा रहा था।

यानी ट्रेन निज़ामुद्दीन आने वाली थी। 

 

घर से दो किलोमीटर होगा रेलवे स्टेशन। तेज़-तेज़ पैदल चलकर, रिक्शा के पैसे बचाकर निज़ामुद्दीन पहुँचता हुआ मैं मालगोदाम के शॉर्टकट रास्ते से  स्टेशन में दाखिल हो रहा था।


मेरे और प्लैटफॉर्म दो के बीच खड़ी थी मालगाड़ी।

जोखिम लेकर पटड़ी-पटड़ी होता हुआ और न जाने किन-किन वस्तुओं से बचते-बचाते  प्लैटफॉर्म 2 पर पहुँचा ही था कि

ऐप ने नया अपडेट दिखाया।


गाड़ी निज़ामुद्दीन पार कर प्रगति मैदान पहुँच चुकी थी। 


यानी ऐप में निज़ामुद्दीन का ज़िकर ई कोई नी!! अपडेट करने वाला चला गया होगा चाय पीने। इस बीच रेलगाड़ी छलांग लगाकर ओखला से सीधे प्रगति मैदान पहुँच गई - बोल पवनपुत्र हनुमान की जै!!


उपन्यास राग दरबारी के पात्र रंगनाथ की याद हो आई जिसकी रोज़ 2 घंटा लेट आने वाली पैसेंजर आज मात्र डेढ घंटा लेट होकर ही चल दी थी। 


पर मेरे पास तो गाड़ी की स्थिति बताने वाला ऐप था जिसे मैं पल-पल देखता हुआ, आशा भरे क़दमों से स्टेशन की ओर बढ़ रहा था। निज़ामुद्दीन स्टेशन पर मेरे दाखिल होते तक जो ऐप ट्रेन को पिछले स्टेशन यानी ओखला शो कर रहा था, वह अब अचानक से प्रगति मैदान शो करने लगा। 

बोले तो गाड़ी ने फोर-जी की स्पीड को भी मात दे दी।  


डिजिटल धोखा खाया

मजबूरी में अॉटो ही से दफ्तर आया।

30 November 2018

मंगलवार, 24 नवंबर 2020

ट्रेन में अकेले यात्रा

18 November 2018

भाईसाहब आप अकेले हैं?

जी हाँ
आप प्लीज़ मेरे हसबैंड की जगह ले लीजिए।
जी!!!????
मेरा मतलब मेरे हसबैंड की सीट दूसरे कोच में है, हम दोनों यहाँ साथ बैठ जाएँगे।
देखिए, अभी सामान सेट किया ही है मैंने।
आप ही वहाँ क्यों नहीं चली जातीं?
सर वहाँ कोई अकेला नहीं है जिससे सीट स्वैप की जा सके।
प्लीज़!!!
चलिये ठीक है।
मेहरबानी भाईसाहब।
सी-नाइन सिक्स्टी फाइव।
विंडो सीट है।
जी। विंडो सीट की बड़ी सौग़ात बख़्शने के लिए शुक्रिया।
वैसे मैं बता दूँ, मैं अभी कोच सी-नाइन ही से यहाँ सी-फ़ाइव में आया हूँ। सीट नंबर सिक्स्टी-थ्री से।
वहाँ पिछले स्टेशन पर चढ़े एक बुज़ुर्ग ने मुझसे यहाँ सी-फाइव में आने की रिक्वेस्ट की थी।
मेरी ओरिजनल अलॉटेड सीट सी-फोर में थर्टी-सिक्स थी।
आप देख ही रही हैं इंजन से कितना दूर है यह और इसके पीछे वाले डिब्बे।
एस्केलेटर तो पहले प्लैटफॉर्म पर ही ठहरा। घरवालों के अरमानों जैसा हैवी लगेज लेकर प्लैटफॉर्म-थ्री की सीढ़ियाँ अपने आप उतरनी पड़ीं।
ऊबड़-खाबड़ प्लैटफॉर्म पर डगमगाते अपने सूटकेस को ड्रैग करके, आधे लेटे आधे बैठे और बाक़ी टकराने को ऐंवेंई रास्ते में आते अपनी गाड़ी की इंतज़ार में गड़े मुसाफिरों को क्रॉस करके लगभग 12 डिब्बे पार करके सी-फोर तक आया था और ज़ोर लगाके हइसा के उद्-घोष के साथ सूटकेस चढ़ाकर और धकियाकर अपनी सीट पर पहुँचा ही था।
देखा कि मेरी सीट पर एक आंटीजी पहले से ही विराजमान थीं।
पसीना भी सूखा न था मेरा। गाड़ी चल दी थी।
आंटीजी के निवेदन पर सी-नाइन जाना पड़ा। वहाँ से यहाँ सी-फ़ाइव और अब फिर से सी-नाइन। बोले तो सफ़र के अंदर सफ़र एंड सफ्फर।
इन सब निवेदनकर्ताओं की आँखों में देवलोकीय कातरता थी। उम्मीद करता हूँ, अब आइ विल फेस नो मोर निवेदंस। बीच के डिब्बों वाले यात्री मॉब लिंचिंग की एक गोल्डन अपॉर्चुनिटी की तरह मुझे देखते हुए लार टपका रहे हैं।
मोरल अॉफ़ द स्टोरी -
ट्रेन में अकेले यात्रा न करें।

सोमवार, 23 नवंबर 2020

मेरी संस्कृति और गर्व

 मुझे भारतीय संस्कृति पर गर्व है।

लेकिन यह गर्व मैं दिखाऊँ कैसे?
क्या हाथ में तलवार लेकर निकल पड़ूँ और जो मुझसे सहमत नज़र न आए काट डालूँ उसे? हत्या कर दूँ उसकी?
कहूँ कि जब मुझे अपनी संस्कृति पर गर्व है तो वही और वैसा ही गर्व तुम्हें भी अपनी संस्कृति पर क्यों हो बे?

20 नवंबर 2020

रविवार, 22 नवंबर 2020

प्राइवेटाइज़ेशन बनाम अच्छे दिन

सब कुछ बाज़ार में तब्दील होता जा रहा है।


हम हर काम और उद्देश्य को मुनाफ़े के अभिप्राय से देखने लगे हैं और प्राइवेट सेक्टर का आगमन हर क्षेत्र में हो चुका है। ख़ासतौर पर हम आम लोगों का वास्ता सर्विस सेक्टर से अधिकाधिक पड़ता है। वहाँ प्राइवेट सेक्टर की मौजूदगी आश्वस्त करने के बजाय आतंकित करती है।


मिसाल के तौर पर अगर रात आठ या नौ बजे आप किसी बस स्टॉप पर खड़े हैं, तो इसकी पूरी संभावना है कि आप डीटीसी या अपने शहर की सरकारी बस की प्रतीक्षा कर रहे हों क्योंकि आपको मालूम है कि अब प्राइवेट बस अपने डिपो में जाकर खड़ी हो गई होगी। ज़ाहिर है मुनाफ़ा पीक (peak) आवर्स में ही है और सर्विस से ज़्यादा प्राइवेट वालों का सरोकार मुनाफ़े से है।


मज़े की बात यह है कि आपसे बात की जाए और आपके जनरल विचार जाने जाएँ तो आप प्राइवेटाइजेशन के समर्थक निकलेंगे।


प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं।


सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में इमारतें अच्छी न हो, ऐसा हो सकता है और होता भी है। पर वे डॉक्टर और टीचर अनेक परीक्षाएं पास करने के बाद ही वहाँ जगह पाते हैं इसलिए मैक्सिमम क्वालिफाइड होते हैं।


देश में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो प्राइवेट ट्रीटमेंट और एजुकेशन अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि अधिकतर लोग साधनहीन हैं। अच्छा और समय पर इलाज केवल प्राइवेट में मिलता है यह मानने वाले बेचारे सर्वहारा जन अपनी ज़मीने बेचकर या गहने गिरवी रखकर या एफडी तुड़वाकर इलाज करवाने या शिक्षा हासिल करने आते हैं।


ज़ाहिर है ऐसे पैसा ख़र्च करके जो बच्चा एजुकेशन हासिल करेगा वह पहले अपना रिटर्न हासिल करना चाहेगा न कि देश और समाज की सेवा की नीयत से अपना योगदान देना चाहेगा। प्राइवेट से सीख कर निकला ऐसा कोई एक उदाहरण आपके पास है तो कमेंट में लिखिएगा।


प्राइवेट अस्पतालों में इलाज का एक रास्ता मेडिकल इंश्योरेंस से होकर भी गुज़रता है। लेकिन उसका प्रीमियम भरने लायक पैसे से अधिक आपके पास उस तरह सोचने की सलाहियत यानी इंश्योरेंस माइंडेडनेस आपके पास होनी चाहिए जो एक बड़े तबके के पास नहीं है।


क्योंकि नौकरियाँ कम से और कम होती गई हैं और बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ कठिन से और कठिन। इसलिए आदमी रोज़ाना के अपने सरवाइवल के बारे में सोचेगा, मेक बोथ एंड्स मीट (making both end meet) के बारे में सोचेगा या फ्यूचर के ख़तरे के लिए सेविंग करने के बारे में? यह सेविंग गुल्लक या बैंक खाते तक ही सीमित रहती है और अब तो बैंकों का हाल भी बुरा है।


बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ के कठिनतर हो जाने की जो बात मैंनें की शायद आप उससे सहमत न हों। क्योंकि कहा जाता है कि मौजूदा निज़ाम व्यापार के मौक़े बढ़चढ़कर दे रहा है। इन लोगों ने तो रक्षा क्षेत्र को भी निजीकरण के लिए खोल दिया है।


चलिए मैं आपकी बात मान लेता हूँ। लेकिन अगर मैं कोई दुकान खोलूँ और सरकार मुझे पूरी सहायता दे भी दे उस दुकान को खोलने में, तो भी प्राइवेटाइजेशन के दौर में मेरा मुक़ाबला बड़ी दुकान से है। मॉल कल्चर पसरता जा रहा है और अंततोगत्वा वह दिन दूर नहीं जब मुझे अपनी दुकान किसी मॉल में खोलनी पड़े जहाँ दुकान का पर डे (per day) किराया ही आपके लिए चुकाना भारी पड़ जाए।


कुल मिलाकर हो यह रहा है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाएगी और खा रही है और हम जो अधिकतर छोटी मछलियाँ हैं, इसे सही ठहरा रहे हैं यानी हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। अपने जीने के अधिकार को ख़ुशी-ख़ुशी छोड़ रहे हैं आख़िर हो क्या गया है हमें?


सरकार को हम उसकी हर ज़िम्मेदारी से विमुख करते जा रहे हैं न जाने किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए!


पढ़े-लिखे लोग इसे रिफ़ॉर्म्स कह रहे हैं।


अगर सब कुछ प्राइवेटाइज़ होता गया तो क्या एक दिन पुलिस भी प्राइवेटाइज़ हो जाएगी?


अगर ऐसा हुआ तो कैसा होगा वह समय और समाज?


ऐसी पुलिस की दुकान के कस्टमर कौन होंगे?


अपराधी?


अगर हम सीधे-सादे लोग पुलिस के कस्टमर कहलाएँ तो क्या पुलिस हमसे प्रोटेक्शन मनी लेगी? यानी हफ्ता वसूलेगी!!!


मान लीजिए एक युवती प्रोबैबल (probable) बलात्कारियों से बचते हुए सड़क पर भाग रही है। एक प्राइवेट पुलिस वाला उसे दीखता है। वह उससे रक्षा की याचना करती है और पुलिस वाला पहले उसे प्रॉटेक्शन चार्जेज़ के लिए ऑनलाइन पेमेंट करने को कहता है, तो ऐसा समाज कैसा समाज होगा?


जिन्हें मैंने ऊपर प्रॉबैबल बलात्कारी कहा है, किसी रजिस्टर्ड एंटिटी (entity) के लिए वे प्रॉमिसिंग बलात्कारी भी हो सकते हैं।


सारी मर्यादाएँ और मूल्य तथा जज़्बात केवल नफे और नुकसान में सिमटकर रह जाएँगे।


फिर भी टैक्स बढ़ते जाएँगे और हमारे इलेक्टेड रेप्रेज़ेंटेटिव्ज़ प्राइवेट वालों के दल्ले बनकर लुटियंस के बंगलों में रंगीन रातें गुज़ारेंगे और हम इसे देश के लिए सही मानते हुए चुपचाप होम हो जाएँगे।


ऐसे अच्छे दिनों की सरहद में हम दाखिल हो चुके हैं।

मंगलवार, 10 नवंबर 2020

सेलेक्टर का चकराना

 एक सेलेक्टर था। 

उसे कहा गया कि तुम सेलेक्टर हो यह बात तुम्हारे और हमारे (यानी तुम्हें सेलेक्टर गर्दानने वाले) के सिवा किसी और को पता नहीं चलनी चाहिए। 

सेलेक्टर ने कहा - ओके। 

वैसे यह बात सेलेक्टर को भी सूट करती थी। हालांकि दुनिया को बताकर थोड़ा अपनी अकड़ वग़ैरह क़ायम करने का लोभ उसे था, पर उसने अपनी फनटूश इच्छा को क़ाबू किया कि अभी किसी को न बताना ही सही है कि मैं सलेक्टरों की जमात में हूँ।


मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' पढ़ चुके, नये-नये सेलेक्टर बने सेलेक्टर ने जैसे ही सेलेक्शन का काम शुरू किया उसके पास सेलेक्शनेच्छुकों के फोन आने लगे। 


सेलेक्टर चकराया।


जब उसने ख़ुद किसी को बताया ही नहीं कि वह सेलेक्टर है और ज़ाहिर है कि अधिकारियों ने भी किसी को बताया न होगा कि वह सेलेक्टर है क्योंकि अधिकारियों ने तो ख़ुद ही मना किया था किसी को बताने को कि वह सेलेक्टर है!!


फिर चयनातुरों को कैसे पता चल गया कि वह चयनकर है, मामला भयंकर है!!!


उसे माजरा समझ न आया।

आपको समझ आया? 


#एक्सटेंशनकाउंटर्स


10 नवंबर 2019

सोमवार, 9 नवंबर 2020

भारंगम में सेलेक्शन

 फेसबुक पोस्ट पढ़कर पता चला मेरे दोस्त पुंजु का नाटक आगामी भारत रंग महोत्सव के लिए सेलेक्ट न हो पाया।


इस रिजेक्शन का मुझे व्यक्तिगत अफ़सोस है।


पुंज निर्देशित पटकथा देखा है मैंने। मुझे अच्छा लगा था। 


पर सेलेक्ट न होने पर हो क्या सकता है? 

सेलेक्टर्स से हर वो आदमी नाख़ुश होगा ही जिसका सेलेक्ट नहीं हुआ। 


इस बार के ख़ुद सेलेक्टर्स भी अगले वर्ष जब अपने नाटक भरेंगे और रिजेक्ट होंगे तो सल्लनी रिसेंटियाएँगे। 


रिजेक्शन का लॉजिक जो सब पर एक सा हो दिया जा सकता है। 

पर ऐसा कहाँ होता है? 

आपने कहीं देखा है ऐसा? 

या फिर जामुन के पेड़ वाला अंडरकरेंट लॉजिक अॉटोमैटिकली एक्सेप्ट काय को नहीं कर लेते जी!


किसी फेस्टिवल इत्यादि में आपका नाटक आना-नाना आपके नाटक की श्रेष्ठता की गारंटी तो नहीं हो सकता। 


वैसे भी नाटक की श्रेष्ठता के तय पैमाने नाटक को मार देने के लिए काफ़ी हैं, चाहे वे नाटक वर्ल्ड टुअर ही क्यों न कर मारें। 


क्या किसी ऐसी संभावना पर काम किया जा सकता है कि रिजेक्टेड नाटकों का भी एक फेस्टिवल हो? 


लेकिन रिजेक्टेड नाटक भी सब-के-सब नहीं लिए जा सकते। उनमें से भी कुछ सेलेक्ट करने पड़ेंगे और उसके लिए फिर एक सेलेक्शन कमेटी बनानी पड़ेगी। 


छोड़ो यार!!


9 नवंबर 2019

शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

 रूप कला पिक्चर्स के बैनर तले बनी, 1958 में आई राजकपूर और महमूद की फ़िल्म परवरिश में महमूद साहब अँडर-यूटिलाइज़्ड हैं। फ़िल्म की नामावली में भी उनका नाम छठे नंबर पर है। सागर उस्मानी लिखित इस फिल्म में माला सिन्हा और ललिता पवार प्रभावित करती हैं।


'परवरिश' (1958 वाली) के हसरत जयपुरी द्वारा लिखित और दत्ताराम द्वारा संगीतबद्ध गाने अच्छे हैं, 'मस्ती भरा है समाँ', और 'आँसूं भरी हैं ये जीवन की राहें' तो आज भी सुनने को मिलते हैं। पर 'मामा ओ मामा' और लता की आवाज़ में माला सिन्हा पर फ़िल्माया वो सोलो गीत तो ज़िक्र-ए-ख़ास होना चाहिए हालांकि मैं ख़ुद उसके बोल भूल गया अभी। हाँ याद आया - 'लुटी ज़िंदगी और ग़म मुस्कुराए, तेरे इस जहाँ से हम बाज़ आए'।

फिल्म की कहानी शुरू में ही आपको जकड़ लेती है पर धीरे-धीरे आप निश्चिंत-से होकर फ़िल्म देखने लगते हैं क्योंकि निर्देशक एस बैनर्जी की दिलचस्पी इसे रहस्य-रोमांच वाली फ़िल्म बनाने में है ही नहीं। यही कारण है कि माला सिन्हा का शराब पीने के नाटक वाला मामला जहाँ बिगड़कर अपने जलाल पर पहुँचना चाहिए था वहीं जाकर वह ईज़ीली सॉर्ट आउट हो जाता है (और सच्ची बोलूँ तो मज़ा ख़राब हो जाता है)।
फि़ल्म देखते हुए थोड़ी देर में आपको अंदाज़ा हो जाता है कि फलां एक्टर कैसे-कैसे एक्सप्रेशन देगा; क्या-क्या रिएक्शन देगा और फ़िल्म के दृश्य किस-किस लोकेशन पर हैं। जैसे ही यह एहसास हो, फ़िल्म देखना छोड़कर बस सुनना शुरू कर सकते है और अपना सफ़र भी जारी रख सकते हैं।

यह जो फ़िल्म सुनने का कॉन्सेप्ट है, मैंने रेडियो की वजह से भी अपनाया। अब एक ख़बरिया चैनल के तौर पर घिसटने को मजबूर कर दिये गए दिल्ली के मशहूर रेडियो चैनल एआईआर एफ़ एम गोल्ड 100.1 (जो कभी 106.4 था) मेगाहर्ट्ज़ पर रेडियो मैटिनी शो में फिल्म की कहानी सुनाई जाती थी। बचपन में जब फ़िल्म देखना एक ख्वाब जैसा होता था, तो फि़ल्में देख चुके अपने दोस्तों और बड़ों से भी फिल्मों की कहानी सुनने में मज़ा आता था। 'शोले' मैंने देखने से पहले सुनी थी।

पिछले दिनों मैंने फिल्म 'इजाज़त' सुनी। केवल उसका लास्ट सीन देखा। और उस अंतिम दृश्य में नसीर साहब ने जो ग़ज़ब अभिनय किया है, उसे सुनना नहीं देखना ही ज़रूरी था। जब शशि कपूर और रेखा को जाते हुए वे देखते हैं तो उनके चेहरे पर जो भाव हैं उन्हें वर्णन कर पाना मुश्किल है। आपने देखे ही होंगे। अगर नहीं, तो देख लीजिए।

बैक टू 1958 वाली 'परवरिश'।

यह मीनू कत्रक जो गाने और पार्श्व संगीत रेकॉर्ड करते हैं, लगता है हर फिल्म में इन्होंने काम किया है। गायक शैलेंद्र ने भी अपने एक इंटरव्यू में इनका ज़िक्र किया था। उन्होंने शैलेंद्र को काम दिलवाया था।

'परवरिश' में परवरिश होते हुए कहीं भी नहीं दिखाई गई। एकाध दृश्य छोड़कर सीधे बच्चों को बड़ा दिखा दिया।

फ़िल्म एक बड़ा मैसेज देती है कि सबके ख़ून का रंग लाल ही है और इसका किसी वंश, ख़ानदान, जाति, धर्म, लिंग, क़बीले अथवा राष्ट्रीयता से कुछ लेना-देना नहीं है। ज़ात-पात, ऊँचे ख़ानदान, इत्यादि सब बकवास हैं।

मैसेज अच्छा है। यह फ़िल्म इल्म इतना तो देने में सफल हो ही जाती है।

5 November 2020