शनिवार, 24 सितंबर 2011

बन गया मैं शिष्ट वल्चर 
नोटों का सीखा जो कल्चर 
प्रथम श्रेणी की पा गया डिग्री 
किया जो मैंने सबको एग्री
सम्मान बढ़ा एग्रीकल्चर के प्रति 
सीखी मैंने सहमति की संस्कृति 

सिकंदर ने पोरस
से की थी लड़ाई
जो की थी लड़ाई
तो मैं क्या करूँ

PREFIX और SUFFIX का MIX
ESSAY LEARN करने की TRICKS
होती NEVER EVER FIX
यही है मेरी TENSION
HOW TO PAY ATTENTION

कहाँ भागकर जाऊँ
इस GRAMMAR के कारण  
मैं मर मर जाऊँ
मैं क्या करूँ

पढ़ने बैठूँ जब PHYSICS
आए याद मुझे PHYSICAL
अब्बा कहते चरने घास
गई कहाँ है तेरी अकल

पढ़ने जब भी बैठूँ मैं
मन जाता है डोल
जितना भी था याद किया   
भूल गया भूगोल

HISTORY पढ़-पढ़ जग मुआ
सबक  न सीखा कोए
शिक्षा की ये मारामारी
देख कबीरा रोये

मैं क्या करूँ

पाँच आने का जीरा लाया 
एक आने का खीरा
आठ आने में बाक़ी आने
गए कहाँ रघुवीरा

उनसे चने-मुरमुरे खाऊँ
या फिर कुल्फी जमाऊँ
माँझा ले आऊँ
मैं क्या करूँ

           प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब के मंचन के लिए गीत 

उड़ूँ उड़ूँ उड़ूँ उड़ूँ
उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
निस्सार

मोतियों का उल्टा थाल
छू लूँ जाकर नभ का भाल
देती हिलोर मन की उमंग
क्यूँ प्यारा लगे मुझे हर रंग

उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
एक छोटा-सा परिवार

मेरे सपनों की डोर
बढ़े सूरज की ओर
थामे रहूँ एक छोर
और खींच लाऊं भोर

उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
इंद्रधनुषाकार

            प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब के मंचन के लिए गीत 

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मुफ्त का कवि उर्फ अबे सुन बे कविता

साहेबान
बड़े हैं आप
मेहरबान
क़द्रदान हैं या नहीं
समय बताएगा
पर यह राम खैराती अपनी कविता
ज़रूर सुनाएगा

अजी इतने लोग
एक साथ
मिलते कहाँ हैं
उस पर भी सुनने को तैयार?
बिलीव नहीं होता सरकार
तिस पर भी कविता?
भई वाह!!!

बेहतर है ढाई मन अनाज ढोना
बड़ा ही मुश्किल है कवि होना
अब क्या बैठूँ लेकर रोना
अच्छा था न होना

भेजने के बाद निमंत्रण पत्र
एस एम एस भी पड़ते हैं भेजने बल्क में
अजब रिवाज चला है अपने मुल्क में
फिर फोन रिंगटोनियाने पड़ते हैं
उसके बाद भी ईमेल करने के लिए
बाज़ार में बिना काफी के कैफे की ओर
कदम बढ़ाने पड़ते हैं

आपके पास तो होगा लैपटॉप
भाई कनटोप
बचा है बस अपने पास
दादा के जमाने का
सुनने का न सुनाने का

तो फिर उसके बाद
करवाना पड़ता है बुक हाल
सजाना पड़ता है मंच
महंगा मिलता है गुलदस्तों का भी बंच

होने के लिए वाहवाही से मालामाल
खिलाना पड़ता है तर माल
नहीं तो नाश्ते के साथ चाय
वरना
यह भी कोई फंक्शन था साला
बाय-बाय

दो-एक दोस्त बुलाने पड़ते हैं
जो आपके कसीदे कढ़ते हैं
जमाने भर को लेकर कमबख्त
कवि की सूक्ष्म दृष्टि का गुण-दोष
आपके माथे मढ़ते हैं
नुक्ते में चीनी मिलकर पेश करते हैं
विशेषज्ञ का भेस धरते हैं
कुछ रुतबा होता है आपका
जिससे वे डरते हैं
मरते न
क्या करते हैं
सलाम करते हैं
नहीं तो होकर शामिल इक्वल ऑपोज़िट धडे में
बखिया उधेड़ आम करते हैं

यह सभी काम
टकराकर जाम करते हैं
रसरंजन नाम करते हैं

और साहब यहीं पर बस नहीं
प्रति एक पुस्तक की देनी पड़ती है सप्रेम
जिसे छपवाने के लिए
कितने प्रेमियों का फंड जमा किया होगा
प्रकाशक का दंड जमा किया होगा

इस सब में
कविता कहीं खो जाती है
इस-उस विमर्श की नारेबाजी हो जाती है
बेचारी-सी
हालात की मारी-मारी-सी
ग़लतफहमी में फंसी
मॉडर्न भारतीय नारी-सी

कविता
जो थी कभी
प्यारी-सी
ज़ुल्म-ओ-सितम के खिलाफ आवाज़
करारी-सी
कबीर की झीनी-झीनी बीनी चदरिया-सी
ओढा जाता रहा जतन से जिसे

तो हुज़ूर
साधुवाद
आपको एकत्र होने पर

दड़बों में घुसे रहते हो
किस दैवीय शक्ति से
खिंचे चले आए
भले आए

तो साहब
इतने पचड़े कौन उठाए
कवि हूँ खैराती
हर बार आऊँगा
मौका मिलते ही
अपनी कविता ज़रूर सुनाऊँगा
बड़े हैं आप
मेहरबान   
साहेबान

            विजय सिंह
            04 सितंबर 2011

बुधवार, 7 सितंबर 2011

अंतत:

जिसे तुम कहे बगैर जान नहीं पाए 
मेरे कह देने पर भी कैसे जान जाते 

कहकर
मुक्त होकर 
बंध गया हूँ 

कहा नहीं जो तुमने
सुनकर
मुक्त करता हूँ
बंधन  
जो कभी था ही नहीं

                        विजय सिंह 
                        04 सितम्बर 2011