शनिवार, 24 दिसंबर 2011


मैं औरत के लिए 
आवाज़ उठाना चाहता हूँ 
पर चिल्ला कर रह जाता हूँ 
ऑटो !!!

शनिवार, 17 दिसंबर 2011

बुधवार, 2 नवंबर 2011


नवम्बर दस्तक देकर
अनायास आ चुका है भीतर-बाहर सब जगह 
तुम कहाँ हो 

खोजा तुम्हें 
भीतर 
वहां तो बस सपना है 

बाहर 
मेरी पहुँच के बाहर है 

शायद तुम एक अलग ही दुनिया में हो जहाँ मुझे आने के लिए एक विशेष एंट्री पास बनवाना पड़ेगा और बदलना पड़ेगा अपना रूप और शायद हो सकता है मैं मैं रह ही न जाऊं और सिर्फ देह बचे या सिर्फ नाम भर बाकी रह जाए और बाद में तुम्हें खोजता हुआ मैं लगूं खुद को ही खोजने और न तुम मिलो न मैं ही मिल पाऊँ खुद को और समझ भी न आए किसका हाथ पकड़ चला चलूँ किस राह और रौशनी के किस बिंदु को मान लूं के बस जाना है उसी ओर ही मुझे 

और इतना सब कुछ हो चुकने के बाद होने वाले मिलन की कल्पना सुखद नहीं लगती पता नहीं क्यों 
शायद तुम ही कुछ बता पाओ

शायद इंतज़ार को ही मिलन कहते हैं 

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

क्या कहूं
नहीं आ पाया बस
और अपनी बेटियों को दिया वादा भी पूरा नहीं कर पाया 
उन्हें आलू की टिक्की खिलाने का
पत्नी के साथ मार्केट जाने का 
अपने बचे हुए अख़बार भी पूरी तरह नहीं पढ़ पाया 
कुछ कविताएँ पढ़नी थीं 
कुछ लेख लिखने थे 
कुछ किताबों को पढ़ना था 
कुछ दोस्तों से मिलना था 
कुछ काग़ज़ों को सहेजना था 
कुछ हिसाब किताब रखने थे 
कुछ चीज़ें छांटनी थीं 
कुछ जूतों चप्पलों को रिपेयर करवाना था 
और कुछ कपड़ों को उनके पास भिजवाना था 
जिनके पास नहीं हैं 
(मुझे भी तो दिए ही थे किसी ने)
कुछ लोगों को घर बुलाना था 
और टाइम टेबल बनाना था 
सुनना था रेडियो और टेलिविज़न पे आ रही एक फिल्म को पूरा देखना था 
तय करना था कि आगे से सब कुछ पहले से तय कर लूँगा 
और जिसका जो हिस्सा बनता है 
उसको दूंगा
पर देखते ही देखते शाम आ गई 
और एक पुकार मेरे नाम आ गई 

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

तुमसे प्यार नहीं है बार-बार खुद को याद दिलाता हूँ फिर क्यूँ आती है तुम्हारी याद 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

पटाखे न चलाएँ

पटाखे न चलाएँ
कहीं दिवाली की शुभकामनाएँ 
बन जाएँ 
न संवेदनाएँ 



बुधवार, 19 अक्तूबर 2011

शनिवार, 24 सितंबर 2011

बन गया मैं शिष्ट वल्चर 
नोटों का सीखा जो कल्चर 
प्रथम श्रेणी की पा गया डिग्री 
किया जो मैंने सबको एग्री
सम्मान बढ़ा एग्रीकल्चर के प्रति 
सीखी मैंने सहमति की संस्कृति 

सिकंदर ने पोरस
से की थी लड़ाई
जो की थी लड़ाई
तो मैं क्या करूँ

PREFIX और SUFFIX का MIX
ESSAY LEARN करने की TRICKS
होती NEVER EVER FIX
यही है मेरी TENSION
HOW TO PAY ATTENTION

कहाँ भागकर जाऊँ
इस GRAMMAR के कारण  
मैं मर मर जाऊँ
मैं क्या करूँ

पढ़ने बैठूँ जब PHYSICS
आए याद मुझे PHYSICAL
अब्बा कहते चरने घास
गई कहाँ है तेरी अकल

पढ़ने जब भी बैठूँ मैं
मन जाता है डोल
जितना भी था याद किया   
भूल गया भूगोल

HISTORY पढ़-पढ़ जग मुआ
सबक  न सीखा कोए
शिक्षा की ये मारामारी
देख कबीरा रोये

मैं क्या करूँ

पाँच आने का जीरा लाया 
एक आने का खीरा
आठ आने में बाक़ी आने
गए कहाँ रघुवीरा

उनसे चने-मुरमुरे खाऊँ
या फिर कुल्फी जमाऊँ
माँझा ले आऊँ
मैं क्या करूँ

           प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब के मंचन के लिए गीत 

उड़ूँ उड़ूँ उड़ूँ उड़ूँ
उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
निस्सार

मोतियों का उल्टा थाल
छू लूँ जाकर नभ का भाल
देती हिलोर मन की उमंग
क्यूँ प्यारा लगे मुझे हर रंग

उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
एक छोटा-सा परिवार

मेरे सपनों की डोर
बढ़े सूरज की ओर
थामे रहूँ एक छोर
और खींच लाऊं भोर

उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
इंद्रधनुषाकार

            प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब के मंचन के लिए गीत 

गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मुफ्त का कवि उर्फ अबे सुन बे कविता

साहेबान
बड़े हैं आप
मेहरबान
क़द्रदान हैं या नहीं
समय बताएगा
पर यह राम खैराती अपनी कविता
ज़रूर सुनाएगा

अजी इतने लोग
एक साथ
मिलते कहाँ हैं
उस पर भी सुनने को तैयार?
बिलीव नहीं होता सरकार
तिस पर भी कविता?
भई वाह!!!

बेहतर है ढाई मन अनाज ढोना
बड़ा ही मुश्किल है कवि होना
अब क्या बैठूँ लेकर रोना
अच्छा था न होना

भेजने के बाद निमंत्रण पत्र
एस एम एस भी पड़ते हैं भेजने बल्क में
अजब रिवाज चला है अपने मुल्क में
फिर फोन रिंगटोनियाने पड़ते हैं
उसके बाद भी ईमेल करने के लिए
बाज़ार में बिना काफी के कैफे की ओर
कदम बढ़ाने पड़ते हैं

आपके पास तो होगा लैपटॉप
भाई कनटोप
बचा है बस अपने पास
दादा के जमाने का
सुनने का न सुनाने का

तो फिर उसके बाद
करवाना पड़ता है बुक हाल
सजाना पड़ता है मंच
महंगा मिलता है गुलदस्तों का भी बंच

होने के लिए वाहवाही से मालामाल
खिलाना पड़ता है तर माल
नहीं तो नाश्ते के साथ चाय
वरना
यह भी कोई फंक्शन था साला
बाय-बाय

दो-एक दोस्त बुलाने पड़ते हैं
जो आपके कसीदे कढ़ते हैं
जमाने भर को लेकर कमबख्त
कवि की सूक्ष्म दृष्टि का गुण-दोष
आपके माथे मढ़ते हैं
नुक्ते में चीनी मिलकर पेश करते हैं
विशेषज्ञ का भेस धरते हैं
कुछ रुतबा होता है आपका
जिससे वे डरते हैं
मरते न
क्या करते हैं
सलाम करते हैं
नहीं तो होकर शामिल इक्वल ऑपोज़िट धडे में
बखिया उधेड़ आम करते हैं

यह सभी काम
टकराकर जाम करते हैं
रसरंजन नाम करते हैं

और साहब यहीं पर बस नहीं
प्रति एक पुस्तक की देनी पड़ती है सप्रेम
जिसे छपवाने के लिए
कितने प्रेमियों का फंड जमा किया होगा
प्रकाशक का दंड जमा किया होगा

इस सब में
कविता कहीं खो जाती है
इस-उस विमर्श की नारेबाजी हो जाती है
बेचारी-सी
हालात की मारी-मारी-सी
ग़लतफहमी में फंसी
मॉडर्न भारतीय नारी-सी

कविता
जो थी कभी
प्यारी-सी
ज़ुल्म-ओ-सितम के खिलाफ आवाज़
करारी-सी
कबीर की झीनी-झीनी बीनी चदरिया-सी
ओढा जाता रहा जतन से जिसे

तो हुज़ूर
साधुवाद
आपको एकत्र होने पर

दड़बों में घुसे रहते हो
किस दैवीय शक्ति से
खिंचे चले आए
भले आए

तो साहब
इतने पचड़े कौन उठाए
कवि हूँ खैराती
हर बार आऊँगा
मौका मिलते ही
अपनी कविता ज़रूर सुनाऊँगा
बड़े हैं आप
मेहरबान   
साहेबान

            विजय सिंह
            04 सितंबर 2011

बुधवार, 7 सितंबर 2011

अंतत:

जिसे तुम कहे बगैर जान नहीं पाए 
मेरे कह देने पर भी कैसे जान जाते 

कहकर
मुक्त होकर 
बंध गया हूँ 

कहा नहीं जो तुमने
सुनकर
मुक्त करता हूँ
बंधन  
जो कभी था ही नहीं

                        विजय सिंह 
                        04 सितम्बर 2011

बुधवार, 10 अगस्त 2011

शनिवार, 2 जुलाई 2011

मेरा रोमांटिसिज़्म


मैं और मेरी तनहाई
अक्सर ये बातें करते हैं

मनचाहे विभाग में
नौकरी सरकारी मिल जाती
तो कैसा होता

रोजाना आराम से दफ्तर जाता
और वक़्त से पहले शुरू करके
ढाई बजे तक लंच खाता
फ़ाईलों पर एहसान जताता
बैंक बैलेन्स बढ़ाता
और रहता सिस्टम से नाराज़

मैं रोज़ शाम को वक़्त पर घर आ जाता
न्यूज़ चैनल बदलते हुए हुए डिनर करता
डिस्कवरी देखते हुए बच्चों को आईसक्रीम खिलाता
उतरन देखकर सोता
अपनी प्रमोशन और कूलीग की कमोशन
के सपने देखता

मैं और मेरी तनहाई अक्सर ये बातें करते हैं


बुधवार, 29 जून 2011

धूप और छाँव की बातचीत


एक बार धूप और छांव आपस में मिले।
विचार चाहें दोनों के न मिले हों कभी, पर दोनों एक-दूजे से मिले यानि मुलाकात हुई।

वैसे ऐसा कभी होता तो नहीं, पहले कभी हुआ भी नहीं था और हो सकता है आगे भी कभी हो क्योंकि जहां छांव है वहाँ धूप नहीं हो सकती

पर फिर भी हम मान लेते हैं कि दोनों आपस में मिले।

पर मिले होंगे कहाँ और कब?

गाँव में जो बरगद का पेड़ होता है न जैसा अक्सर हिन्दी फिल्मों में दिखता है
सूरज डूबते समय उसी के नीचे दोनों की मुलाकात हुई होगी
अरे भई उस वक़्त धूप सीधी न पड़कर तिरछी पड़ती है और इस तरह वो पेड़ की शाखाओं के तले चोरी-चोरी घुस आई होगी
उसे आता देख छांव ने पेड़ के तने के पीछे छुपके कर ही ली होंगी कुछ बातें। 

वैसे धूप होती बड़ी बदमाश है, दिन में भी पेड़ की पत्तियों से छन-छन कर छांव के घर में आती, सेंध लगाती रहती है, हो सकता है उस वक़्त हुई हो दोनों में कुछ कहा-सुनी।   

या फिर हो सकता है दोनों ने एक-दूसरे से फोन पर ही बात कर ली हो
या विडियो कोंफेरेंसिंग कर ली हो
या शायद एक दूसरे से फेसबुक पर चैट की हो
पर उसे भी तो मिलना ही कहेंगे

तो क्या-क्या बातें हुई उन दोनों के बीच आइये सुनते हैं:


धूप
अरे तू छाँव? कैसी है बहन?  मुझसे हमेशा नाराज़ रहती है।  कभी मेरे सामने नहीं आती।

छांव        
तेरे सामने आने में मुझे क्या डर? मुझे कहती है नाराज़ रहती है पर तू तो मेरे आते ही भाग जाती है।

धूप        
ओह-हो। एक तो पहली बार मिली है।  बस लोगों से सुना करती थी तेरे बारे में और मिलते ही तू लड़ने लगी।

छांव        
मैं भी तो सुनूँ क्या सुना था तूने मेरे बारे में लोगो से।

धूप        
अरे यही कि बड़ी शीतल होती है तू।  पर मेरे सामने तो आग उगल रही है।  और किसी को यह भी कहते सुना था भगवान तेरी माया कहीं धूप कहीं छाया।

छांव        
माया तो भगवान को मंदिर में क़ैद करके खुद भगवान बन बैठी है।

धूप        
पर तू क्यों ऐंठी है?  तुझ पर पड़ा है क्या काले भूत का साया?

छांव
तेरे आने पे झुलस जाती है लोगों की काया

धूप
अच्छा जी, देख मेरे सामने खुद तुझे भी पसीना आया।

छांव
तू ग्लोबल वार्मिंग की दादागिरी दिखाएगी तो सारी धरती रेगिस्तान में बदल जाएगी फिर मुझ जैसी छाया कहाँ जाएगी।  यह सोच कर ही मुझे शिवरिंग हो रही है, कांप उठती हूँ मैं। सोच कर ही पसीना आ जाता है।

धूप
हाँ बहन।  अपनी गर्मी से तो मैं खुद परेशान हूँ।  कहीं कूलर के सामने बैठ के घड़े का ठंडा पानी पीना भी मेरे नसीब में नहीं है।

छांव
बहन सर्दियों में मेरी भी हालत कुछ ऐसी ही  होती है।  मैं तो तुझ से मिलने को तरस जाती हूँ।  ये सूरज जीजा जी तुझे लेकर पता नहीं विंटर वैकेशन में छुट्टियाँ मनाने कहाँ निकल जाते हैं।  कई-कई दिनों तक तुम दोनों दिखाई ही नहीं देते।

धूप
हाय तेरे जीजा जी डूब रहे हैं।  अब मुझे भी जाना होगा।

छांव
जीजा जी तो कल तक डूबे रहेंगे।  पता नहीं अब हम कब मिलेंगे।


धूप
ऐसे कर न कि तू फ़ेसबुक पे आ जा  

छाया
मुझे अभी तक अपने फेस का फोटो ही नहीं मिला जिसे मैं लगा के फ़ेसबुक पे जा सकूँ।

धूप
जैसे मैंने अपनी जगह पर सूरज की फोटो लगाई है

छांव
वैसे ही मैं अपनी जगह पर चाँद की फोटो लगा दूँगी।  चाँदनी नाराज़ हो तो होती रहे।

धूप
ठीक है तो फिर मिलते हैं और करते हैं चैट

छांव
ओके बाइ बाइ  

मंगलवार 28 जून 2011

रविवार, 26 जून 2011

सोमवार, 20 जून 2011

बाप दिन पर विशेष


कल फादर्स दिवस पर मेरी अपने बाप से
खूब हाथापाई हुई
उसने छुई
मेरी दुखती हुई रग
और छेड़ दिया मेरी असफलताओं का राग

बोला नहीं तू क्यूं करता भागमभाग
क्या नहीं बची तेरे अन्दर कोई भी आग
उठ बे जाग
देख अपने फलां-फलां साथियों को

और गिनाने लगा वो दूसरे मेरे हमउम्रों की
सफलताएँ (?)

मैंने कहा
बे
बाप
सुन
मत कर चुनचुन
पकड़ ली तैने
बस एक ही धुन

जो सफल हुए उनके बहुत-से बाप हैंगे
औ' मेरे तो प्रिय बापजी बस आप हैंगे

पर उसके दुख से मैं अनजान नहीं था
कपड़े सिलकर हमें पालने वाले 'मास्टर' का
क्या कोई अरमान नहीं था?

मैंने कहा चिंता मत कर यार
मैं तरक़्क़ी के रास्ते पे चल पड़ा हूँ
मतलब का बाप ढूँढने निकल पड़ा हूँ ।

बुधवार, 15 जून 2011

जो नहीं कह सका तुमसे 
सिर्फ वही कहने के लिए 
कितना कुछ कहता रहा 

सोमवार, 13 जून 2011

बुधवार, 11 मई 2011

मैं यहाँ हूँ 
जीवन सितार से तार-सा बंधा
समय की उंगलियाँ छेड़ती हैं 
दर्द होता है 
कांपता हूँ देर तक 
पर मज़ा आता है. 

जितना तुम कसते जाते हो 
और मीठा होता जाता है 
मेरा राग 

टूट जाऊंगा एक झंकार के साथ  

दर्द होता है 
कांपता हूँ देर तक
पर मज़ा आता है. 

  

रविवार, 24 अप्रैल 2011

जाहिरा तौर पर कुछ नहीं है 
पर ऐसा लगता है 
मैं हूँ.  

बेशक बहुत कुछ ज़ाहिर जो हुआ या होता रहा 
वो मेरे अंतर्मन में खोता रहा 

देखें कब और कैसे बाहर आता है...

गुरुवार, 3 मार्च 2011


संभलकर
मत चलो
गिर पड़ो


सब कुछ तो छीन लिया तुमने
मेरा सम्मान
मेरा आत्म

और भविष्य से डरे मेरे
अन्तर्मन को दिया बता
कि छीन लिया जाएगा
वह निवाला भी
जो तुम्हारी उस कृपा का जूठन है
साल छह महीने में जिसका अंत हमे डराता है
अनिश्चय की अंतहीन अंधी खाई में गिराता है। 

अब ले-देकर गीत बचा है होठों पर
जो खुशी में भी उदास है
पर फिर भी मेरे पास है।

मेरे होठों का गीत भी क्या छीन लेना चाहते हो?

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011


मुख-पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ
फ्रेंड भया न कोय

एक्चुअल बही खाता पढ़ो
फेस देख भय होए 

बातें उसकी भा जाए यही आज का ट्रेंड
फेसबुक पर आ जाए तभी हमारा फ्रेंड

फ्रेंड ऐसा चाहिए जो मिलकर पढे यह बुक
ए चलती क्या खंडाला बात करे दो टूक

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

उल्लू से गधे तक


गर विधाता ने हमको उल्लू न गढ़ा होता
तो हमने फेसबुक की जगह फेस पढ़ा होता
इन देट केस हमारा बेस बड़ा होता
टैलंट हमारा बेकार न सड़ा होता
कोई हमारे लिए भी खड़ा होता

हमसे तो अच्छा है रट्टू तोता
ओ जी रह ग्या मैं खोते का खोता

शनिवार, 8 जनवरी 2011


तुम जो हुए मेरे हमसफ़र मैंने रस्ता बदल दिया 
इस्कूल की किताबों वाला बस्ता बदल दिया 

'दिया' कि जगह 'लिया' करें तो टेर का मानी कुछ बदल जाता है (गौरतलब है कि मैं एक टायर हूँ और टेर कहता हूँ )

तुम जो हुए मेरे हमसफ़र मैंने रस्ता बदल लिया
इस्कूल की किताबों वाला बस्ता बदल लिया 

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

फैज़ अंकल से हुई बात-चीत

मैं ऊपर गया था.

स्पेसबुक में एक पेज बुक है न सबके वास्ते
बस वहीं तक खुल गए थे मेरे रास्ते

फैज़ू अंकल से पूछा मैंने
मुहब्बत माँगने से क्यों रोका तैने
और क्या-क्या नहीं माँगना है
दिल के कटोरे को क्या अलगनी पे टाँगना है?
मैने कही के
मेरे तो माँगने पे भी कोई इनवीटेशन नहीं आत्ता
याए जीने से अच्छो तू भाड़ में काए नई जात्ता

उन्होंने कहा मुहब्बत माँगने से कहाँ रोका मैंने
यार मेरे गलत सुनली तैने
बस पहली सी मुहब्बत न  माँग
दिल को चाहे कहीं भी टाँग

कहा नहीं कुछ उन्होंने राँग
जब कुएँ में ही पड़ गई भाँग
शोर मचाने लग गए साँग
नाक हो गई सबकी लाँग
तो मेरे, इसके, उसके और न जाने किस-किसके
महबूब
भईया पहली सी मुहब्बत न माँग

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

दरख्तों ने किया परस्पर
संवाद रात भर

थी फिजा सर्द
और बहस गर्म

मंथन गहन
वाद-प्रतिवाद
रहा गई कसर बस
उगलने को आग
शायद आज बैठी थी
महापंचायत

आरोप - प्रत्यारोप
वायु का प्रकोप
असंख्य आवाजें
पर धुन थी एक
क्या कर रहे थे वे समूह गान
या शायद
विलाप?

अचानक हवा थम गई
मानों बर्फ सी जम गई

शायद निर्णय किया जा चुका था
हवा के जोर से खुद को बचाते
चीखते - चिल्लाते मनुष्य
दैत्य-दानव देवता गंधर्व किन्नर
रूदन करती सर - मुंह ढके महिलाएं
आकृतियाँ
पुनः दरख़्त बन चुके थे

निर्णय हुआ शायद
कि अंत समीप है
सो किया कुछ जा नहीं सकता
अँधा युग के प्रहरी की तरह
बस देखा जा सकता है
जगत तमाशा

सो इसे चलने दो
इस रात को अब ढलने दो