शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

अब हुआ क्या कि मेरे मन में बात आई कि एक जींस की पैंट और दो जोड़ी राष्ट्रीय पोशाकें ख़रीद ली जाएँ। एक्चुअली दिल्ली में रहते हुए समय तो मिलता नहीं। प्रोमिला भी वर्किंग वुमन होने के नाते ज़्यादा कुछ कर नहीं पाती। और मेरी बनियान वग़ैरह अभी भी मेरी मम्मी ख़रीद के लाती हैं।


आजकल टूअर पर इतना रहना पड़ रहा है कि शिमला से आके जब मैं एक-दो दिनों में ही सिल्चर और वहाँ से गुवाहाटी गया तो रवि तनेजा वीर जी ने मुझसे पूछ ही लिया, 'यार इतने कपड़े थे भी तेरे पास (कि तू एक शहर से दूसरे में बिना रुके छलांगे मारता फिरे)!!!??'


टूअर पर रहते हुए अपने कपड़े ख़ुद धो लेने की आदत अब मेरे घर में रहते हुए भी कुछ-कुछ काम में आने लगी है। 


लेकिन कपड़ा प्रेस करना मेरे लिए जी का जंजाल है। यहाँ की सिलवट समेटता हूँ तो वहाँ की मुँह चिढ़ाने लगती है, सो भी ख़ास तौर पर तब जब मैं प्रेस करके शर्ट पहन चुका होता हूँ। पैंट प्रेस करना ज़्यादा आसान है। कई बार होटलों में प्रेस करवानी पड़ती है या लोकल बंदा ढूँढना पड़ता है। लोकल तो मिलता नहीं और समय भी नहीं होता। मजबूरन होटल में प्रेस करवाने पर एक कपड़े के पच्चीस रुपए तक देने पड़ जाते हैं। सोचिए, मुझ जैसा आदमी जो बस का किराया बचाने के लिए दो स्टॉप पैदल चल लेता है, कपड़े प्रेस करवाने के पच्चीस रुपए देते हुए कैसा महसूस करता होगा। 


तो सिर्फ इश्क़ ही ऐसी चीज़ नहीं जिसके बारे में कहा जाए कि नहीं आसां 

कपड़े आयरन करना भी नाको तले लोहे के चने चबाना है 

बस इतना समझ लीजे कि कपड़े को आग के दरिया में डूब के जाना है और ख़ुद को जलने से बचाना है। ख़ैर....


बहुत वर्षों तक कमीज़ें घर पर सिली पहनता रहा और अब मम्मी-डैडी की सेहत ठीक नहीं रहती तो उन्हें मजबूरन मुझे इजाज़त देनी पड़ी कि मैं रेडीमेड कपड़े ख़रीद लिया करूँ। पर ऐसा कुछ भी ख़रीदता हूँ, तो उन्हें दिखाए बिना अपने कमरे में ले जाता हूँ, क्योंकि वो कीमत पूछेंगे और यही कहेंगे कि मैं महंगा ले आया। बाप की आँखों का सामना करने की हिम्मत मेरी तो पड़ती नहीं सो मैं आएं-बाएं करके टाल देता हूँ जब सवाल रेट का उठता है तो। 


शर्ट पैंट इत्यादि ख़रीदने का अपन को यही तरीका सूझा है कि जब टूअर पर हो तो उसी शहर या कस्बे में एक कमीज़ इत्यादि ख़रीद लो। 


यह पोस्ट लिखते समय जो शर्ट मैंने पहन रखी है वो त्रिशूर में ख़रीदी थी और जो जींस की पैंट मैं धोकर डाल आया हूँ वह मैंने शिमला में खरीदी थी। इस पोस्ट को लिखते समय पहनी हुई जींस की पैंट शायद मैंने कनाट प्लेस से खरीदी थी। 


तो यहाँ गुब्बी में सोचा एक जींस की पैंट ख़रीद ली जाए। जींस की पैंट कई दिन चलती है और लोग उसे फैशन या आधुनिकता मानकर आपको अपने पास बैठने देते हैं। आप भी कोन्फिडेंट बने रहते हैं। 


कृपया कोन्फिडेंट की इस्पेलिंग को नज़रअंदाज़ करें। पर नज़रअंदाज़ की स्पेलिंग ठीक है।


तो मैं कपड़े की एक बड़ी सी कस्बाई-एथोस से ओत-प्रोत दुकान में अपने एक स्थानीय साथी के साथ गया। दुकान में सेल्समैन ने कह दिया देखते ही कि मुझे 36 की कमर चलेगी। वैसे मेरा पेट न जाने किस बात की गवाही देने को बाहर को निकला हुआ है जिससे मुझे लगता है कि इस कमबख़्त को तो चालीस की भी न बांध पाए। 


मुझे पैंटें दिखाई गईं सभी तंग मोरी की थीं, और एक जो मेरे टेम्परामेंट के सबसे नजदीक जान पड़ती थी, मैंने चुनकर ट्रायल रूम की ओर रुख किया। एक छोटे-से कैबिन में घुसने के लिए दरवाज़ा खोलते ही मैं हैरान हो गया। दरवाजे के उस पार भी मैं ही खड़ा मिला मुझे। मैं डूइंग माय ओन स्वागत!!! तो गोया इत्ती सी जगह थी कि खड़ा हुआ जा सके। मैंने आदमक़द आईने में ख़ुद से कहा, 'अबे फैब इंडिया में आया ऐ क्या तू जो नखरे दिखा रहा है।' 


आत्मसम्मान की वजह से नहीं बल्कि मेरी अकर्मण्यता के गवाह पेट के निकले होने की वजह से झुकना बड़ा मुश्किल हो चला है मेरे लिए आजकल। और नई पतलून को पहनकर देखने के लिए पुरानी पतलून उतारनी ज़रूरी थी। पतलून उतारने के लिए जूते के तस्में खोलना ज़रूरी था और जूते के फीते खोलने के लिए बैठना या झुकना ज़रूरी था। झुकना हो न पाना था तो मैंने पैर से रिक्वेस्ट की कि खुद ही उठकर पेट की ऊँचाई तक चला आए। यानी मुझे एक पैर पर खड़ा होना था। ज़ाहिर था मैं लड़खड़ाने लगा। सहारा लेने के लिए आदमक़द आईने पर हाथ रखा तो आईना टूटते-टूटते बचा। दरअसल आईना दीवार में चस्पा नहीं किया गया था केवल सहारा लेकर खड़ा कर दिया गया था। आईना टूट जाता तो मेरा भी टूटना तय था। एक जूता उतारा फिर दूसरा। और पैंट उतारकर पहले तो जी भरकर गहरी साँसे लीं और फिर खुद को योकोजुमा पहलवान स्टाइल में आईने की तरफ देखा। 


अब हमने तंग मोरी पैंट में अपनी टांग घुसाने की शुरुआत की। एक जब ठीक-ठाक घुस गई तो दूजी घुसाई और इस सफलता पर गर्व करते हुए एकम-एक बटन लगाने की कोशिश की। काज बहुत संकरा था और बटन को घुसाने में हमारे अंगूठे को नानी याद आ गई। उसके बाद हमने ज़िप ऊपर को खींचने की कोशिश की लेकिन ज़िप सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने की मांग पर अड़ गई हो जैसे। 


हमने तौबा की और जींस की पैंट की ज़िप वापिस नीचे करने में काफी मशक्कत के बाद सफलता पा ली। बटन खोलने में तो मुझसे पसीना आ गया। आखिर मैंने सेल्समैन को बुलवाकर उससे बटन खुलवाया। 

24 Dec 2017


जींस की पैंट को वापिस सलीके से उतारना हमारे बस का न था सो ज़ोर लगाके हईसा किया और छिलके या केंचुली की तरह, या फिर स्कूल से लौटे बेचैन बच्चे की तरह हमने उस पैंट को उतार फेंका और वापिस पुरानी जींस में आ गए। इस बार जूते पहनने के लिए झुकने में कुछ कम कष्ट हुआ। इस सब एक्सरसाइज़ में ऐसा लगा गोया ट्रायल रूम से नहीं बल्कि जिम से बाहर निकल रहे हों।


जींस खरीदने गए थे, कच्छा ख़रीद के लौटे।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2021

भौत भौत प्यार

 वो दोनों एक दूसरे को भौत-भौत प्यार करते थे। 

भौतई जादा 

इत्ता जादा कि पूछो मत 

इससे भी जादा क्या कि दोनों मरते थे एक-दूसरे पर 


एक दिन उसने कहा 

मैं तुमसे भौत प्यार करता हूँ 

वो बोली 

मैं कौन सा कम करूँ 

मैं भी तुमसे भौत प्यार करती हूँ 


वो बोला 

मैं तो इत्ता जादा करता हूँ कि तुम तो क्या मैं खुद भी अंदाजा न लगा सकता 


वो जवाब में बोली 

मेरे प्यार का न तुम अंदाजा लगा सकते न मैं 

यहाँ तक कि भगवान भी अंदाजा नहीं लगा सकता 


उसने कहा पर मेरे जितना न करती होगी मेरा तो रोम रोम तेरी याद में पागल हुआ जाए 

वो बोली अरै ज्जा मेरी तो सांस सांस में तूई बसा ऐ कमीन्ने इत्ता प्यार करूँ मैं तुझे 


बस जी फिर क्या था 

दोनों प्यार में एक दूजे को नीचा दिखाने पे तुल गए और 

अब उनमें ठन गई कौन किसको जादा प्यार करता ऐ 

प्यार की बात तू-तू मैं-मैं में बदल गई 

बात कि बात में दोनों में अबोला हो गया 

और दोनों ने एक-दूजे का थोबड़ा न देखने तक की कसम खा ली 


वर्तमान स्थिति यह है 

कि दोनों एक-दूजे को अगर देख लें 

तो चीर खाएं 

कच्चा चबा जाएँ 

और यई ऐ उनके प्यार की हद। 


नोट : 

यह पोस्ट शब्द 'स्थिति' के सही हिज्जे बताने के लिए लिखी है।

23 Dec 2017

बुधवार, 22 दिसंबर 2021

22 December 2019

 (पता नहीं लोग फोटोग्राफ को छायाचित्र क्यों कहते हैं, शायद इसके पीछे 'संसार माया है' नामक दर्शन होगा। फिलहाल मैं फोटोग्राफ को प्रकाशचित्र कहना चाहूँगा, बट दिस पोस्ट इज़ अबाउट समथिंग एल्स)


चेन्नै विमानतल पर बाहर आते हुए नटराज की प्रतिमा दीखते ही मैं स्वयं को आत्मिक सौंदर्यानुभूति में निमग्न पा रहा था।


पैठने को ही था मैं कि अचानक मुझ अकिंचन को श्रद्धा के क्षीरसागर से बाहर खींचकर डोलायमान भवसागर में अवस्थित कर दिया स्वार्थियों ने।


कुछ सहकर्मी नटराज प्रतिमा के साथ प्रकाशचित्र खिंचवाना चाह रहे थे। तो मेरे हाथ में अदृश्य शाश्वत जपमाल के स्थान पर स्थूल क्षणभंगुर मोबाइल पकड़ा दिया गया और मेरा फोकस बदल गया।


मेरे हृदय में सदा से निवास करते आए नटराज की पुनराच्छादित छवि किसी तरह सहेजता मैं हवाई अड्डे से बाहर आया लेकिन बाहर आते ही संसार की मोहमाया का कोलाज मन के तानेबाने में पुन: उभरने लगा।


तीन-दिवसीय नाट्यशास्त्र उत्सव की अंतिम संध्या में समापन-संबोधन के लिये सोनल मानसिंह जी आमंत्रित थीं। उन परम् विदूषी को सुनते हुए नटराज की छवि अपनी भव्यता के साथ मेरे हृदयपटल पर पुन: उत्कीर्ण होने लगी।


सोनल जी ने जो कुछ कहा जस-का-तस तो याद नहीं, किंतु जो मुझे समझ आया वह यह था कि नटराज के प्रथम पग में ही तीनों लोक नप गए और दूसरा पग धरने के लिए कोई स्थान न मिलने के कारण दूसरा पग उठा ही रह गया।


यह सुनकर एक भव्य विराटता का आभास मुझे हुआ। इस विराटता से भय और भक्ति दोनों भाव उत्पन्न हुए मुझ निर्लज्ज के मन में।


भय कितना था और भक्ति कितनी इसकी ठीक-ठीक नापतौल कर न पाया, संभवतः इसलिए क्योंकि यह अंतस् में सूक्ष्म जगत् के झंझावाती समुद्र में आते-जाते भाव थे। स्थायी भाव तो शांत सरोवर में ही संभव है जब ध्यानावस्था में बैठता है साधक।


यह साधक किसी गुफा या हिमालय की कंदरा में बैठने वाला पापुलर परसेप्शन वाला साधक नहीं, जो कहने को तो संन्यास धारण करता हो किंतु रीसेटल हो जाता हो मठेंद्र बनकर।


इस संघर्षशील संसार में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए, बुद्ध होने की ओर अग्रसर साधक की बात हो रही है यहाँ।


उत्सव समापन के अगले दिन दोपहर के बाद मैं निकल पड़ा एक-दिवसीय पुदुच्चेरी दौरे के लिए जो कि मेरा पूर्वनिर्धारित निजी कार्यक्रम था।


मुझे बताया गया चिदंबरम् पुदुच्चेरी से कोई एक घंटे के सफ़र जितना ही दूर है। सो अपन वहाँ से चल पड़े सीधे चिदंबरम् के दर्शनार्थ।


मुझे बताया गया कि पंचभूतों (वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश) में निवास करने वाले महादेव, आद्य गुरू शंकर पिता यहाँ अर्थात् चिदंबरम् में आकाश रूप में, नटराज रूप में विद्यमान हैं। 


यह सुनकर एक पल को मैं चकित रह गया। चेन्नई विमानतल पर नटराज मूर्ति के दर्शन से लेकर कलाक्षेत्र  में सोनल जी के संबोधन तक, सब घटनाएँ अब मुझे संकेत प्रतीत हुई भगवान शिव के इस रूप के दर्शन निमित्त।


जी चाहा कि कहूँ - 'मुझे पिता शिव-शंकर ने बुलाया है'। किंतु मैं कह न सका। 


जब से ‘मुझे माँ गंगा ने बुलाया है’ नामक वक्रोक्ति सुनी है तब से बहुत से शब्दों और वाक्यों - जिनमें से कईयों पर से पहले ही उठा हुआ था, भरोसा उठ गया है जैसे, संविधान का पालन, मैं देश नहीं बिकने दूँगा, देशभक्ति, बहुत हुआ नारी पर वार, न्यायपालिका की निष्पक्षता, आदि। राम समेत सभी श्रद्धा प्रतीक साम्प्रदायिक सत्ता की भेंट चढ़ चुके हैं। अगर कोई हर हर महादेव का उच्चार करता है तो सुनने वाले उसमें कुछ और ही सुन लेते हैं और ऐसे लोगों को पुदुच्चेरी से वणक्कम करना पड़ता है। 


आंगिकम् भुवनम यस्य

वाचिकं सर्व वाङ्ग्मयम

आहार्यं चन्द्र ताराधि

तं नुमः (वन्दे) सात्विकं शिवम्


जब से उपरोक्त शिव-स्तुति को सुना-जाना था, आराध्य शिव के इस रूप के दर्शनों की इच्छा प्रगाढ़ होती गई थी। 


किंतु मुझ अन्जान को यह न पता था कि वे इस स्वरूप में चिदंबरम् में विद्यमान हैं। 

और चिदंबरम् पुदुच्चेरी से मात्र एक घंटे की दूरी पर है 

और जब से चेन्नई उतरा हूँ वे किसी-न-किसी संदर्भ द्वारा अपने भाव से मुझको आलोकित करते आ रहे हैं, कि।


मंदिर के विशाल प्रांगण में प्रवेश करते हुए मेरा भयशून्य चित्त वंदन-ध्वनि से तरंगित हो रहा था। 


विस्तीर्ण प्राचीरें, अट्टालिकाएँ, प्रासाद मुझमें एक आश्वस्ति का भाव उत्पन्न कर रहे थे। भवन निर्माण की अनुपम कला का विराट उदाहरण मेरे सम्मुख था। 


मंदिर में अंदर जाते हुए मन में प्रभु दर्शनों की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी। और वह क्षण आया जब मैं मुख्य मंदिर के ठीक सामने था। भगवान जिस गर्भ गृह में सुशोभित थे। उसके बाहर बरामदा था और यह सब एक बड़े लगभग पाँच फुट ऊँचे चबूतरे पर था। चबूतरे के बाहर परिक्रमा मार्ग था और इसके इस पार नटराज प्रभु की मूर्ति के ठीक सामने हम दर्शनों की अभिलाषा में हाथ जोड़े अनारक्षित सर्वहारा जन के समूह में सम्मिलित हो गए। 


हमने देखा कि कुछ लोगों को चबूतरे (कनकसभा) पर जाने की आज्ञा है। पूछने पर मालूम हुआ कि कुछ राशि देकर (रु. 100/-  प्रति व्यक्ति) हम लोग भी कनकसभा में जाने के अधिकारी हो जाएँगे।


मुझे झटका-सा लगा। अपने प्रभु के दर्शन के लिए मुझे पैसा देना पड़ेगा!! चलिए मैं तो दे भी दूँगा और मेरे जैसे कई और भी होंगे। पर जो नहीं दे सकते उनका क्या!! 


क्या वे ईश्वर के दर्शनों के अधिकारी नहीं!! 


बात छोटी-सी ही थी पर जैसे मुझे किसी 'सत्य' का साक्षात्कार करवा रही थी। 


दूध जैसा झक्क चिट्टा मन था मेरा उनकी आलोकित छवि को समो लेने के लिए।


महादेव के दर्शनों को उतावले थे नैन पियासे। 


किंतु पैसे की बात सुनते ही जैसे दूध में किसी ने चायपत्ती डाल दी हो। चाहे थोड़ी-सी ही सही, पर दूध का रंग जैसे जाता रहा और बेशक़ वह अब भी दूध था बिना पानी मिला पर दही या मक्खन अब उसमें से न निकल सकता था। 


इस पैसे देने के मामले ने दो काम किए - 

पहला :  मुझे दर्शन का अधिकारी केवल इस बिना पर बना दिया गया कि आइ कैन अफोर्ड इट मॉनिटेरिली। 


दूसरा :  एक फीजिकल या लिटल जियोग्राफिकल दूरी पर भावभीनी श्रद्धा में हाथ जोड़े खड़े भक्तों जिनमें बच्चे, बड़े, बूढ़े, पुरुष-स्रियाँ, सम्पन्न-विपन्न सभी शामिल थे, का जो सरोवर बन रहा था उससे मैं दूर हो गया। कनकसभा में एक ऊँचाई पर खड़ा उन भक्तों को इग्नोरिंगली मैं देख रहा था और न चाहते हुए भी यह भाव मुझमें आ रहा था कि मैं उनसे अलग हूँ, शायद श्रेष्ठ हूँ, बिकॉज़ आइ कैन पे और रादर चोज़न टू पे। 


अब मन प्रैक्टिकैलिटी की ओर उन्मुख हुआ और मेरे 'श्याम मन' को ज्ञान देने लगा कि अरे मूर्ख जब पइसे दिए हैं तो आगे बढ़कर दर्शन कर। किंतु सौ रुपये दे देने के बाद भी हमारी पहुँच गर्भगृह के द्वार से कुछ बाहर तक ही थी। यानी इत्ते पैसे में इत्ता ही मिलता है। 


गर्भगृह के अंदर तो केवल पुजारी जाते हैं। आरक्षण इसी का नाम है।


मुख्य मूर्ति के कक्ष में आधुनिक आविष्कृत विद्युत आपूर्ति से चमत्कृत बल्ब अथवा ट्यूबलाइट नामक उपकरण अनुपस्थित थे और दीये के हिलजुल प्रकाश में किंचित् दृश्यमान मूर्ति के दर्शन बहुत कठिनाई से हो पा रहे थे। नटराज महाराज को आभूषण और फूलमाला से कुछ इस प्रकार अलंकृत किया गया था कि मन में बसी मूरत और सामने खड़ी प्रतिमा का मिलान करना बहुत कठिन लग रहा था। 


इतनी दूर से आकर भी, ईश्वर के इतने निकट पहुँचकर भी आस निरास भयी!! उनके उठे हुए पग को देखने का प्रयास निष्फल रहा क्योंकि दीये का प्रकाश आभास मात्र ही उत्पन्न कर पा रहा था। 


एक बात अच्छी हुई, कि विश्व में केवल यहीं स्फटिक शिवलिंग के दर्शन होते हैं और मैं जिस समय कनकसभा में प्रविष्ट हुआ स्फटिक शिवलिंग पर दूध, दही, घी, चावल इत्यादि अर्पित किए जा रहे थे। और कुछ ही समय पश्चात शिवलिंग को एक स्वर्ण मंजूषा में रख गर्भगृह में ले जाया गया। अब हमें कनकसभा से प्रस्थान करने की आज्ञा दी गई जिसका हमने पालन किया और नीचे उतरकर परिक्रमा-उपरांत नागरिक समूह में सम्मिलित हो गए। आरती के स्वरों, घंटानाद और समवेत गान से मंदिर प्रांगण गुँजायमान हो उठा और नटराज भगवान के जो दर्शन उतने सहज 'अप क्लोज़' नहीं थे, उस 'डिस्टंस' या दूरी से कुछ अधिक संभव जान पड़े। 


मुझे याद आया इसी वर्ष अप्रैल में मथुरा में द्वारकाधीश मंदिर में भी दर्शनों का कितना लोचा हुआ था। भगवान की मूर्ति के ठीक सामने आकर दर्शन करने के लिए गलियारा बंद था, बस दोनों तरफ़ की रेलिंग से उचक-उचककर दर्शन कर पाया था मैं भीड़ के धक्के झेलता हुआ उचक्का। 


मैं तो चलो नालायक था। दर्शनों का अधिकारी नहीं था। लेकिन दूर-दूर से आए और लोग भी थे। उन्हें तो दर्शन देते प्रभु। 


मंदिर में एक स्थान से आगे जाने के लिए नक़द चढ़ावा क्यों देना पड़ता है?  यह पैसा सरकार लेती है या कोई और? इसका किया क्या जाता है? लोग तो वैसे भी (इस पैसे के अतिरिक्त) दान-दक्षिणा देते ही हैं। यह किस किस्म की दादागिरी है? ऐसे प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ना ही उचित लगा मुझे।  


क़ैद में हैं भगवान!!

सोमवार, 13 दिसंबर 2021

 वे हार गए 

यह भी उनकी 

किरपा ही है।


वरना जीत तो उनके सदावत्सल चरणों में 

वंदन कर-कर लोट लोट

गई थी हार कि हे नाथ! 

मोहे ना इग्नोरो!


उनके त्रिविक्रम चरणों को आँसुओं से सींचती जीत 

छिने जाने के डर से कांप रही थी।


वे कुछ ऐतिहासिक क्षणों के लिए सिंहासन से अनारूढ़ हुए।

उन्होंने पैरों पड़ी बेचारी अबला विजय की पीठ थपथपाई, 

चरणों से उठा अपने युगबाहुओं में ले 

अपने छपंची सीने से लगाते हुए 

रोती हुई सफलता को पुचकारकर अलग करते हुए दिलासापूर्ण स्वर में बोले - 

हम 2019 में तुम्हें लेने आएँगे प्रिये! 

तब तक तुम धैर्य धरो। 

अपने सत्तरवर्षीय पुराने घर में रहो 

आख़िर वहाँ भी हमारे भाई-बंधू सखा-मित्र ही हैं। 

अभी यू हैव अ डेट विद देम!


हमारी सेना सुस्त न पड़ जाए इसीलिए यह उपक्रम है। 

वरना तुम्हारे लिए हमीं क्या कम हैं?


कुछ कुसंस्कारी भक्त तुम्हें लाइटली लेने लगे थे प्रियंके

अच्छा हुआ जो उनके 

लग गए लंके

जो स्टार परचारक बने-बने घूमते थे

मुझे रिप्लेस करने को 

भागवत चरण चूमते थे।


 

कुछ तुम्हारे हमारे 

अंक से बंक मारने से 

इवीएमीकली भी विराम रहेगा 

फिर कुछ ही माह पश्चात प्रेम परवान चढ़ेगा


वैसे भी इस हार का ठीकरा हम पर न किसी ने फोड़ा है 

आपण अभी भी लंबी रेस का घोड़ा है


जीतते तो श्रेय किंतु हमें जाता 

तड़ीपार 

फिर एक बार

मास्टरमाइंड कहलाता।


देखो 

फॉर द टाइम बीइंग

धैर्य हमने धरा है

गोकि दिल अभी न भरा है 


प्रिये अभी तुम्हें जाना होगा 

पिज़्ज़ा खाकर आना होगा


लेट देम रिमेन कॉन्फिडेंट

जिसे फिर हम करेंगे डेंट 

कर लेने दो न हमें 

कुछ नये नारे इन्वेंट।


13 दिसंबर 2018

रविवार, 12 दिसंबर 2021

 नॉरमली अपनी फोटो लगाता नहीं मैं फेसबुक पर अपनी पोस्टों के साथ। पर आज दो-दो लगा रखी हैं। थोड़े-बहुत अंतर के साथ दोनों लगभग एक जैसी हैं। चाहता तो था मैं सिर्फ़ हिमाचली टोपी की फोटो लगाना, पर बिना सिर के कैसे दिखाऊँ इस कोशिश में दो-तीन फोटो खींची भी पर मज़ा न आया। सोचा जब पहनकर ही दिखानी है तो सिर के साथ थोबड़ा भी आ ही जाए तो कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए। 


तो मेरी इस पोस्ट की वजह यह हिमाचली टोपी है जिसे मैंने कुछ और टोपियों के साथ नवंबर 2018 में शिमला से ख़रीदा था। आज इस ऋतु में पहली बार पहनकर जब मैं लुटियंस की दिल्ली में अशोक रोड पर टहलते और तमाशा-ए-अहले करम देखने की नाकाम कोशिश में चलता हुआ मंडी हाउस की जानिब आते हुए जनपथ के गोलचक्कर से  ज़रा पहले पहुँचा ही था कि मेरे पीछे से आते एक ऑटो वाले ने बेसाख़्ता मेरे पास पहुँचकर कुछ कहा। 


मुझे लगा कि या तो वह मुझे कोई संभावनाओं से लबरेज़ कोई सवारी समझ रहा है या दिल्ली के इस हिस्से में अक्सर न चलने के कारण कोई रास्ता, या कोठी नंबर, इत्यादि पूछ रहा है। 


अपने कानों में 70 रुपये वाला (माफ करना) चाइनीज़ हेडफोन ठूँसे हुए मैं आकाशवाणी की ख़बरें सुनता हुआ जो दिख जाए उसे देख लेने की हसरत लिये बिना कहीं पहुँचने की जल्दबाज़ी के मंथर गति से कदमताल कर रहा था। 


चूंकि मैंने उसे देख लिया था और नोटिस कर लिया था कि वह कुछ कह रहा है, अतः लाज़मी था कि मैं रुकता, अपनी दुनिया से बाहर आता और उस ऑटो वाले की दुनिया और अपनी दुनिया के बीच की द्विपक्षीय किंतु सार्वजनिक दुनिया में उससे संवाद करता और पूछता - हाँ भाई क्या है। 


मैंने अपने मोबाइल को ऑन किया। उसका लॉक खोला। आकाशवाणी के डाउनलोडेड ऐप में पहुँचकर उसमें चल रहे समाचार बुलेटिन को रोकने के लिये पॉज़ का बटन दबाया और फिर कानों में पैबस्त किसी चाइनीज़ कंपनी के 70 रुपये वाले ईयरफोन, जिसके माध्यम से मैं सुन रहा था कि पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन सरहदी इलाक़े में बने तनाव और वर्तमान स्थिति पर हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने क्या कहा है, को अपने कानों के कुछ देर के लिये जुदा करने के बाद मैंने उस ऑटो वाले से प्रश्नवाचक स्वर में कहा - जी कहिए क्या बात है?


उसने हिमाचली में कहा (जो मुझे समझ आती है पर बोलने का अभ्यास नहीं है हालाँकि प्रोमिला जब अच्छे मूड में होती है तो मुझसे हिमाचली में ही बात करती है) कि आप कहीं जा रहे हैं तो छोड़ दूँ।


अजनबियों को अपना से लगने वाले और अपनों को अजनबी से लगने वाले इस शहर-ए-दिल्ली में अचानक आपके पास आकर कोई अनजान आदमी जब इस तरह का प्रपोज़ल दे तो उसे अक्सर इन-डीसेंट माना जाता है। 


लेकिन मेरे अंदर जो देहाती आदमी है (हालांकि मैं पैदा हुआ और पला बढ़ा दिल्ली में ही पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि मैं कोई गँवई थाट का राग हूँ, जिसे अभी तक गाया नहीं गया) उसने बात को एकदम समझ लिया। मैंने हँसते हुए कहा - इरादा तो मेरा पैदल जाने का था, किंतु अब आप आकर रुके हैं तो चलिए मंडी हाउस के गोलचक्कर तक छोड़ दीजिए। इस पर भी ऑटो वाले ने पूछा कि क्या मुझे हिमाचल भवन जाना है।    


मैंने अपनी आदत के मुताबिक उससे पूछा तो उसने बताया कि वह हमीरपुर का है। उसने कहा आप देखने में हिमाचली लगते हो और आपकी टोपी देखकर मैंने ऑटो रोक लिया सोचा आप मेरे पहाड़ी भाई हो तो चलो आपको कहीं छोड़ देता हूँ। उसने काम्प्लीमेंट दिया - सर जी मैं हिमाचली हूँ पर आप तो मुझसे भी ज़्यादा हिमाचली लग रहे हो। मैंने इस तारीफ़ को मन-ही-मन स्वीकारते हुए अपने आपसे कहा आजकल होने का नहीं, लगने का ही ज़माना है। 


मुझे मंडी हाउस पर उतारकर सकुचाते हुए वाजिब राशि बोहनी के नाम पर स्वीकार कर वह ऑटोवाला वापिस चला गया। 


मगर उस ऑटो वाले से मुलाक़ात से कुछ पहले एक और घटना हुई थी। 


पटेल चौक पर गोल डाकख़ाने के सामनेवाले चौड़े और लुटियाना-भव्य खुलेपन से सुसज्जित फुटपाथ पर चलते हुए मुझ को सामने से एक व्यक्ति आता दिखा। वह कोई पच्चीस से तीस बरस के बीच का कोई नौजवान था मगर लुटा-पिटा। इस कोहरेदार सुबह और धीरे-धीरे बढ़ती सर्दी में वह शख्स फटेहाल तो नहीं पर अपने अल्प वस्त्रों में थोड़ा-बहुत कांपता चलता हुआ, शायद अपने भीतर जलता हुआ फिर भी बेखबर और चिंताओं से भरी किसी अन्य दुनिया में  दाखिल चल रहा था। उसने मेरी ओर देखकर भी नहीं देखा, जैसे आमतौर पर सड़क पर चलते हुए हम करते हैं। किंतु मैं उसकी ओर देखकर उसे अनदेखा न कर पाया। मन में ख़याल आया क्या मैं उसके लिये कुछ कर सकता हूँ? शायद आपने भी महसूस किया होगा कि आजकल ऐसे दिखने वाले लोगों की संख्या अचानक से बहुत बढ़ गई है। 


तो मुझे लगा कि शायद भूख लगी हो उसे तो चाय और एक ब्रेड पकौड़ा उसे ऑफ़र करूँ। पर यह हो कैसे? उससे सीधे-सीधे तो पूछा नहीं जा सकता था। हारा हुआ-सा वह नौजवान अपनी नियति से जूझ रहा था। पर ऐसा भी नहीं था कि उसने मेरी ओर सहायता की याचना-भरी दृष्टि से एक बार भी देखा हो। 


तो पहल मुझे ही करनी थी। मैं उसके रास्ते में आया और मुझे अपनी ओर आता देखकर उस व्यक्ति में एक असहजता और अपनी ख़याली दुनिया से बाहर आने की जद्दोजहद नज़र आई। वह व्यक्ति मेरे स्वागत को तैयार न था कि मुझसे पूछे जी बताएँ मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ। पर यकायक मेरे सामने पड़ जाने पर उसका मुझसे कोई छुटकारा भी न था। 


उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मैंने कहा - यहाँ आसपास कहीं ब्रेडपकौड़ा बनता है क्या?


उसने असंपृक्त लापरवाही और मेरे प्रश्न की व्यर्थता पर मानों हल्की-सी चिढ़ के साथ बड़े ही बेमन से फिर भी बिना असभ्य हुए जवाव दिया - बनता होगा। और मुझे वहीं खड़ा छोड़  वह अपने रास्ते चलता गया। उसने जो एक पुरानी सी और घिसी हुई ट्रैक पैंट जैसा जेबों वाला कई दिनों से पहना हुआ पायजामा पहन रखा था, उसकी जेब में से बीड़ी का बंडल और माचिस झाँक रहे थे।


मैं कुछ देर के लिये वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। अपनी असमर्थता से टक्कर हो जाने पर लाचार-सा मैं पुनः चलने लगा।


12 दिसंबर 2020

सोमवार, 6 दिसंबर 2021

 मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे लिए चाँद तारे तोड़ लाऊँगा। वो बोली तोड़ लाओ। अब मुसीबत मेरी शुरू हो गई। इत्ती दूर जाएँ कैसे? इसरो से सेटिंग की। उनका वाला एक हवाई जहाज़ किराए पर लिया। फुल स्पीड पे उड़ाया। लेकिन जब तारों के पास पहुँचा तो पृथ्वी वहाँ से ओझल हो चुकी थी। और जो तारे पृथ्वी से मोतियों जैसे लग रहे थे, अब नज़दीक जाकर पता चला कि एक-एक तारा पृथ्वी से लाखों गुना बड़ा है। तारे भरने के लिए जो झोला ले गया था उसे ख़ाली ही लेकर वापिस आ रहा हूँ लेकिन समझ नहीं आ रहा कि ये पृथ्वी कौन से रूट पर है।

6 Dec 2020

बुधवार, 1 दिसंबर 2021

समर्थन

 न जाने कब से 

वो मुझसे नाता तोड़ लेना चाहती है

मैं भी यही चाहता हूँ कि वो तोड़ ही ले।


सदियों से मैं उससे दूर जाना चाहता हूँ 

वो भी इस बात पर मेरी हिमायत करती आई है कि मुझे चले ही जाना चाहिए उससे दूर।


एक-दूसरे को इसी समर्थन की वजह से हम दोनों 

एक-दूसरे के जीवन साथी हैं।

1 December 2017

शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

 बहुत कुछ कर जाना चाहता हूँ मरने से पहले। मगर कुछ करने के लिए जीना सबसे पहली शर्त है और जीना आया ही नहीं। 


बस केवल आसन्न किंतु अदृश्य मृत्यु को टालने भर को जीता रहा हूँ अब तक। इतने भर को अपनी सक्सेस मानकर संतोष की सांस ली है, इस सफलता का जश्न मनाना तो दूर की बात ठहरी क्योंकि हरेक की तरह मैं भी, मानता तो नहीं पर जानता हूँ कि मृत्यु टाली नहीं जा सकती। 


अब कुछ यूँ सोचता हूँ कि चाय पी लूँ मरने से पहले।

26 November 2019

सोमवार, 22 नवंबर 2021

अच्छे दिन

 #वामपंथीएजेंडेवालीपोस्ट


सब कुछ बाज़ार में तब्दील होता जा रहा है। 


हम हर काम और उद्देश्य को मुनाफ़े के अभिप्राय से देखने लगे हैं और प्राइवेट सेक्टर का आगमन हर क्षेत्र में हो चुका है। ख़ासतौर पर हम आम लोगों का वास्ता सर्विस सेक्टर से अधिकाधिक पड़ता है। वहाँ प्राइवेट सेक्टर की मौजूदगी आश्वस्त करने के बजाय आतंकित करती है। 


मिसाल के तौर पर अगर रात आठ या नौ बजे आप किसी बस स्टॉप पर खड़े हैं, तो इसकी पूरी संभावना है कि आप डीटीसी या अपने शहर की सरकारी बस की प्रतीक्षा कर रहे हों क्योंकि आपको मालूम है कि अब प्राइवेट बस अपने डिपो में जाकर खड़ी हो गई होगी। ज़ाहिर है मुनाफ़ा पीक (peak) आवर्स में ही है और सर्विस से ज़्यादा प्राइवेट वालों का सरोकार मुनाफ़े से है। 


मज़े की बात यह है कि आपसे बात की जाए और आपके जनरल विचार जाने जाएँ तो आप प्राइवेटाइजेशन के समर्थक निकलेंगे। 


प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं। 


सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में इमारतें अच्छी न हो, ऐसा हो सकता है और होता भी है। पर वे डॉक्टर और टीचर अनेक परीक्षाएं पास करने के बाद ही वहाँ जगह पाते हैं इसलिए मैक्सिमम क्वालिफाइड होते हैं। 


देश में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो प्राइवेट ट्रीटमेंट और एजुकेशन अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि अधिकतर लोग साधनहीन हैं। अच्छा और समय पर इलाज केवल प्राइवेट में मिलता है यह मानने वाले बेचारे सर्वहारा जन अपनी ज़मीने बेचकर या गहने गिरवी रखकर या एफडी तुड़वाकर इलाज करवाने या शिक्षा हासिल करने आते हैं। 


ज़ाहिर है ऐसे पैसा ख़र्च करके जो बच्चा एजुकेशन हासिल करेगा वह पहले अपना रिटर्न हासिल करना चाहेगा न कि देश और समाज की सेवा की नीयत से अपना योगदान देना चाहेगा। प्राइवेट से सीख कर निकला ऐसा कोई एक उदाहरण आपके पास है तो कमेंट में लिखिएगा। 


प्राइवेट अस्पतालों में इलाज का एक रास्ता मेडिकल इंश्योरेंस से होकर भी गुज़रता है। लेकिन उसका प्रीमियम भरने लायक पैसे से अधिक आपके पास उस तरह सोचने की सलाहियत यानी इंश्योरेंस माइंडेडनेस आपके पास होनी चाहिए जो एक बड़े तबके के पास नहीं है। 


क्योंकि नौकरियाँ कम से और कम होती गई हैं और बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ कठिन से और कठिन। इसलिए आदमी रोज़ाना के अपने सरवाइवल के बारे में सोचेगा, मेक बोथ एंड्स मीट (making both end meet) के बारे में सोचेगा या फ्यूचर के ख़तरे के लिए सेविंग करने के बारे में? यह सेविंग गुल्लक या बैंक खाते तक ही सीमित रहती है और अब तो बैंकों का हाल भी बुरा है। 


बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ के कठिनतर हो जाने की जो बात मैंनें की शायद आप उससे सहमत न हों। क्योंकि कहा जाता है कि मौजूदा निज़ाम व्यापार के मौक़े बढ़चढ़कर दे रहा है। इन लोगों ने तो रक्षा क्षेत्र को भी निजीकरण के लिए खोल दिया है। 


चलिए मैं आपकी बात मान लेता हूँ। लेकिन अगर मैं कोई दुकान खोलूँ और सरकार मुझे पूरी सहायता दे भी दे उस दुकान को खोलने में, तो भी प्राइवेटाइजेशन के दौर में मेरा मुक़ाबला बड़ी दुकान से है। मॉल कल्चर पसरता जा रहा है और अंततोगत्वा वह दिन दूर नहीं जब मुझे अपनी दुकान किसी मॉल में खोलनी पड़े जहाँ दुकान का पर डे (per day) किराया ही आपके लिए चुकाना भारी पड़ जाए। 


कुल मिलाकर हो यह रहा है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाएगी और खा रही है और हम जो अधिकतर छोटी मछलियाँ हैं, इसे सही ठहरा रहे हैं यानी हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। अपने जीने के अधिकार को ख़ुशी-ख़ुशी छोड़ रहे हैं आख़िर हो क्या गया है हमें? 


सरकार को हम उसकी हर ज़िम्मेदारी से विमुख करते जा रहे हैं न जाने किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए! 


पढ़े-लिखे लोग इसे रिफ़ॉर्म्स कह रहे हैं। 


अगर सब कुछ प्राइवेटाइज़ होता गया तो क्या एक दिन पुलिस भी प्राइवेटाइज़ हो जाएगी? 


अगर ऐसा हुआ तो कैसा होगा वह समय और समाज? 


ऐसी पुलिस की दुकान के कस्टमर कौन होंगे?

अपराधी?


अगर हम सीधे-सादे लोग पुलिस के कस्टमर कहलाएँ तो क्या पुलिस हमसे प्रोटेक्शन मनी लेगी? यानी हफ्ता वसूलेगी!!!


मान लीजिए एक युवती प्रोबैबल (probable) बलात्कारियों से बचते हुए सड़क पर भाग रही है। एक प्राइवेट पुलिस वाला उसे दीखता है। वह उससे रक्षा की याचना करती है और पुलिस वाला पहले उसे प्रॉटेक्शन चार्जेज़ के लिए ऑनलाइन पेमेंट करने को कहता है, तो ऐसा समाज कैसा समाज होगा? 


जिन्हें मैंने ऊपर प्रॉबैबल बलात्कारी कहा है, किसी रजिस्टर्ड एंटिटी (entity) के लिए वे प्रॉमिसिंग बलात्कारी भी हो सकते हैं। 


सारी मर्यादाएँ और मूल्य तथा जज़्बात केवल नफे और नुकसान में सिमटकर रह जाएँगे। 


फिर भी टैक्स बढ़ते जाएँगे और हमारे इलेक्टेड रेप्रेज़ेंटेटिव्ज़ प्राइवेट वालों के दल्ले बनकर लुटियंस के बंगलों में रंगीन रातें गुज़ारेंगे और हम इसे देश के लिए सही मानते हुए चुपचाप होम हो जाएँगे। 


ऐसे अच्छे दिनों की सरहद में हम दाखिल हो चुके हैं।

22 November 2020

गुरुवार, 18 नवंबर 2021

विजय सिंह के बारे में

होशियारपुर, पंजाब से आए और दिल्ली में संघर्षरत माता-पिता के यहाँ  20 अप्रैल 1971 (लेकिन काग़ज़ों में 24 अप्रैल, वर्ष वही) को दिल्ली में आश्रम नामक जगह के नज़दीक, गुरद्वारा बाला साहिब के सामने एक जेजेकॉलोनी में जन्में विजय सिंह पिछले लगभग तीन दशकों से रंगमंच में सक्रिय हैं। आरंभिक शिक्षा घर के नज़दीक एक सरकारी स्कूल में (हिंदी मीडियम), माध्यमिक शिक्षा घर के नज़दीक एक सरकारी स्कूल (हिंदी मीडियम), राजनीति विज्ञान में स्नातक स्तर की शिक्षा घर के नज़दीक एक सरकारी कॉलेज (हिंदी मीडियम) और परफार्मेंस स्टडीज़ में परास्नातक स्तर की शिक्षा घर से दूर कश्मीरी गेट स्थित अंबेडकर यूनिवर्सिटी दिल्ली से अंग्रेज़ी मीडियम में।  कई काम किये। ट्यूशन पढ़ाई, जूता बनाने वाली फीनिक्स कंपनी में एक्साइज़ असिस्टेंट और पेप्सी बनाने वाली दिल्ली कूल ड्रिंक्स में स्टैटिस्टीशियन की नौकरियाँ की। यह सब कुछ इसलिये किया कि थियेटर करने से मम्मी-डैडी न रोकें।   

मुख्य तौर पर हिंदी रंगमंच में बतौर अभिनेता काम करते रहे हैं और अंग्रेज़ी और पंजाबी थियेटर भी किया है। एम एस सथ्यू, कीर्ति जैन, महेश दत्तानी, दीपन् शिवरामन् जैसे निर्देशकों के साथ काम किया है। एक फ्रीलांसर के तौर पर रेडियो माध्यम से भी जुड़े हैं और रेडियो नाटकों के अलावा पंजाबी न्यूज़, एफ एम गोल्ड में काम किया है। दूरदर्शन के लिये भी अनेक वॉइसओवर किये हैं और ट्रांसलेशन, लेखन इत्यादि करते रहते हैं। पाकिस्तान, दुबई, चीन की यात्राएँ रंगमंच के सिलसिले में कर चुके हैं। अपनी दो सोलो प्रस्तुतियाँ - मंटो कृत शहीदसाज़, और उदय प्रकाश कृत पॉल गोमरा का स्कूटर जहाँ अवसर मिल जाए करते रहते हैं। संगीत नाटक अकादेमी में लगभग पक्के तौर पर एक कच्ची नौकरी पकड़ कर पिछले 10 से भी अधिक वर्षों से अपनी जीविका की गाड़ी के पहियों में कुछ तेल डालने का जुगाड़ बिठा रखा है। 


उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातक की डिग्री पीजीडीएवी कॉलेज से बीए के पाँचवें वर्ष में हासिल की। फिर उन्हें यह अहसास होने में कई वर्ष, शायद पंद्रह-एक बीत गए कि उन्हें एमए कर लेनी चाहिए। एमए हिंदी में करने की ठानी और ठान कर, दिल्ली यूनिवर्सिटी से दूर शिक्षा स्कूल में एडमिशन पाने के बाद भी पढ़ाई नहीं की और फिर उसके कई और वर्षों बाद महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से पत्राचार से एमए हिंदी के प्रथम वर्ष में प्रवेश पाया और 54 प्रतिशत मार्क्स लाने की ख़ुशी में दूसरे वर्ष में एडमिशन लेना भूल गए और एमए बीच में ही छूट गई। आख़िरकार सन् 2013 में इन्होंने अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली से परफार्मेंस स्टडीज़ में गिरते-पड़ते एमए की डिग्री हासिल करने में सफलता हासिल कर ही ली। हिंदी में एम ए न कर पाने की टीस अभी बाक़ी है। सो पिछले ही महीने इग्नू की फीस भरी है, एम ए प्रथम वर्ष में दाखिला पा लिया है। देखें, आगे क्या होता है। 


ख़ुद को बहुत बड़ा ऐक्टर समझने की ग़लतफ़हमी अभी तक दूर न कर पाने में कामयाब विजय सिंह एनएसडी से नहीं हैं। इस ग़लतफ़हमी का ज़िम्मेदार वे अकेले नहीं हैं, इसमें काफ़ी कुछ योगदान उन प्रस्तुतियों का भी है जो न जाने कैसे ठीकठाक सी हो गईँ और दर्शकों ने तालियाँ बजा दीं तो इन्होंनें समझा कि इन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है। इनकी एक क़ामयाबी कई फिल्मों, वेबसीरीज़ इत्यादि के ऑडिशन्स में नाकाम होने की भी है जिस कारण थियेटर का परचम इन्हें थामें रखना होता है क्योंकि सिर्फ़ थियेटर ही है, जहाँ हरेक के लिये जगह है।

बुधवार, 29 सितंबर 2021

 एक न एक दिन सब यहीं छोड़ जाना है। यह तो फिर भी होटल का कमरा है।

इंसानी फितरत ही है जहाँ रुके वहाँ अपना घर बना लेने की, चाहे ट्रेन में मिली बर्थ ही क्यों न हो।
मुझे लगता है, क़ैदी भी रिहा होने से पहले, या फांसी के लिए लेकर जाए जाने से पहले, अपनी कोठरी को मुड़कर ज़रूर देखता होगा जो जैसी भी थी, घर थी।
जिस दिन आपने होटल का कमरा छोड़ना हो, उस दिन सुबह से ही कमरे से अलग वाइब्रेशन आने लगती है। एक उजाड़ जैसा महसूस होने लगता है।
कमरे से निकलने से पहले आख़िरी बार बिना ज़रूरत के, बाथरूम यूज़ कर लेने को जी सा करने लगता है।
बाहर निकलने से पहले एक बार एक नज़र पूरे कमरे और अपने बेड पर डालता हूँ और लगता है जैसे मेरे जाने को कमरा भी महसूस कर रहा है।
मैं उससे कहना चाहता हूँ दोस्त मैं फिर आऊँगा, मगर ऐसा कह नहीं पाता। 20 से 29 अप्रैल 2011 में अहमदाबाद के जिस होटल में ठहरा था, उसका नाम भी याद नहीं हालांकि लोकेशन याद है, पर ड्राइवर का कहना है उधर बहुत जाम होता है।
कमरा भी इस बात को समझता है, इसलिए कोई ज़िद या निवेदन या आग्रह नहीं है उसकी उदासी में।
अभी-अभी इस होटल में अपना आख़िरी लंच लिया है, मगर खाना बड़ी मुश्किल से गले से नीचे उतरा है। हालांकि सब कुछ वही और वैसा ही है, जैसा रोज़ होता है।

20 September 2021
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होटल के एक ही फ्लोर पर एक दफ्तर के कुलीग्स फॉर्मल नहीं, घरेलू महसूस करते हैं। उन्हें एक-दूसरे के कमरों में आराम से राष्ट्रीय पोशाक में आते-जाते देखा जा सकता है।
हम अपने कमरों के दरवाज़े बंद रखने की ज़हमत नहीं उठाते ताकि निर्बाध आवाजाही फैसिलिटेट की जा सके। इस प्रकार से, आपके बाथरूम लगे मिरर से सामनेवाले का बाथरूम नज़र आता है और यह भी कि वो क्या कर रहा है, उसके वस्त्र का ब्रांड कौन सा है और उसका टूथपेस्ट भारतीय संस्कृति को फ्लाउंट करता है या नहीं।
कुल मिलाकर होटल का वो फ्लोर दफ्तरी कुलीग्स का एक पुराना मोहल्ला बन जाता है।

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शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

 होटल में आते ही

'मैं तो केवल फलाहार करूँगा'

नामक बीमारी हो जाती है।


जो घर पर नाश्ते में

अम्मा की डाँट के साथ

रात की बची दाल 

और सुबह की चार रोटियाँ

खाकर उतरती है।

24 September 2018

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

बावजूद के साथ भी?

 कल मम्मी-डैडी नहीं थे घर पर तो....


तो कल मैंने बहुत दिनों बाद टीवी देखा। 


अपने माँ-बाप से डर उतनी वजह नहीं है टीवी न देखने की। 


असल वजह यह है कि टीवी मम्मी-डैडी के कमरे में है जो ग्राउंड फ्लोर पर है। और मैं सेकंड फ्लोर पर रहता हूँ।


मैं रात दस बजे के बाद ही घर दाखिल होता हूँ तब तक मम्मी-डैडी सो चुके होते हैं और मुझे भी अपने कमरे में लेट कर लैपटॉप देखना होता है। 


मेरे बच्चे और प्रोमिला भी - जो तब तक सोये नहीं होते, मेरे आने का इंतज़ार करते हैं क्योंकि मेरे फोन का वायफाय लैपटॉप से जोड़कर कोई फ़िल्म-शिल्म देखी जाती है। 


मेरे फोन में अच्छा ख़ासा इंटरनेट डाटा है और स्पीड भी उसकी ठीक-ठाक है। प्रोमिला और बच्चे अपना डाटा ख़त्म करके मेरी उडीक (इंतज़ार) में बैठे रहते हैं। 


सुबह कुछ समय के लिए मम्मी-डैडी के पास बैठता हूँ तो घर-परिवार की बातें होती हैं, इत्यादि। तो टीवी उस समय चलाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। 


मेरे कमरे में टीवी नहीं है। 

कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वैल। 


दिन में या अर्ली ईवनिंग जब ये सब लोग घर में ग्राउंड फ्लोर पर होते हैं तो भी टीवी केवल कुछ ही देर के लिए देखते हैं। 

मम्मी-डैडी से डर केवल मुझे ही नहीं लगता।


वैसे टीवी लगभग सारा दिन चलता है। मेरे बापू को टीवी न्यूज़ देखनी होती है और वो एनडीटीवी को छोड़कर बाक़ी सभी न्यूज़ चैनलों की न्यूज़ें देखते हैं।

कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वैल। 


उन चैनलों में जो थोबड़े बार-बार दिखाये जाते हैं उन्हें हमारे घर में और कोई देखना नहीं चाहता। ख़ैर..।


मम्मी-डैडी पंजाब से रात की ट्रेन से लौट रहे थे। वे केवल दो रातों के लिए घर से बाहर थे। तो दोनों रात हमें उनके कमरे में सोना था। कारण यू अँडरस्टैंड वेरी वेल। 


देश सुरक्षित हाथों में हैं बोलने वालों को सपोर्ट करते मेरे बाप को न जाने क्या हो जाता है जब रात नौ बजे के बाद वो मुझे बार-बार फोन करके मेरी लोकेशन जानना चाहते हैं और कहते हैं अज्जकल टैम बड़ा ख़राब ऐ छेती (जल्दी) घर आ जाया कर। ख़ैर...।


तो एक रात पंजाब में, और दूसरी रात वापसी के सफ़र में, मम्मी-डैडी घर से बाहर थे।


उनके पंजाब जाने का सफ़र दिन में ही पूरा हो गया था। सुबह पौने सात बजे की गाड़ी पकड़ वे दोपहर बाद तक गंतव्य स्टेशन उतर गए थे। 


मैंने अपने मोबाइल ऐप से दोनों की टिकट बुकिंग सीनियर सिटीजन कन्सेशन के साथ की थी और सीट प्रेफ्रेंस में विंडो लिखा था। मुए रेलवे ऐप को न जाने क्या हुआ एक को सीट नंबर 8 दिया और दूसरे को 18, यानी दूर-दूर। 


आप कह सकते हैं कि जो सीट अवेलेबल होगी वही मिलेगी। पर जनाब! जब मैं बुकिंग कर रहा था तो 452 सीटें अवेलेबल थीं जी। इन अच्छे दिनों में दो बुज़ुर्गों को आमने-सामने सीट भी न दे सकी रेलवे!! 

ख़ैर...।


मम्मी-डैडी दो रातों के लिए घर से बाहर थे और मुझे, प्रोमिला और हमारे एक बच्चे को नीचे, यानी ग्राउंड फ्लोर वाले कमरे में सोना था। 


पहली रात मैं घर जाते ही सो गया क्योंकि बहुत थका हुआ था। दूसरी रात थोड़ा-सा टीवी देख के सोया क्योंकि घर में जब घुसा तो बच्चे टेलीविजन लगाकर बैठे थे और केबीसी आ रहा था। 


मुझे जैसे यह मालूम नहीं है कि साउथ अफ्रीका की क्रिकेट टीम इंडिया आई हुई है, उसी तरह मुझे यह भी पता न था कि केबीसी अब भी आता है। 


तो उस समय केबीसी आ रहा था। 

शो के एंकर जिन्हें इस सदी का महानायक कहा जाता है, के सम्मुख एक ज़ोरदार अभिनेता की हट्टी-कट्टी बेटी - एक हीरोइन बैठी थी। वह सदी के महानायक के सम्मुख हॉट सीट पर एक उद्यमशील महिला के साथ बैठी थी। 


रानी पद्मावती की (कुछ लोगों के अनुसार) काल्पनिक या अवांतर-वास्तविक कथा पर आई फिल्म का पुरज़ोर विरोध करने वालों के आन-बान जैसा ही गाँव रहा होगा जहाँ यह उद्यमशील महिला पैदा हुई और पली-बढ़ी थी। जैसा कि शो से पता चल रहा था, उस घोर चाउवनिस्टिक समाज में रहकर भी ख़ुद को और साथी महिलाओं को आगे बढ़ाने, उनकी आर्थिक स्थिति सुधरवाने में उस उद्यमशील महिला ने उल्लेखनीय काम किया था।


जिस प्रकार के उसके कामों और सब महिलाओं के साथ से सबके वाकई और किसी नारेबाज़ी से दूर सच्चे विकास का काम वह करती आ रही थी, मुझे वह वामा वामपंथी प्रतीत हुई। 


उसने मार्क्स और समाजवाद भले न पढ़ा हो, मगर पद्मावती सरीखी-सुंदर, महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता की पक्षधर वह महिला समाजवाद और कम्यूनिज़्म के दर्शन को जी रही थी (बोले तो, आय फेल्ट लाइक दैट)। 


केबीसी में पूछे गए एक रामायण आधारित प्रश्न का सीधा-सादा उत्तर दमदार अभिनेता की वह हट्टी-कट्टी हीरोइन न दे सकी, न ही दे सकी उस प्रश्न का उत्तर वह उद्यमशील महिला ही, जिसके साथ थी बैठी वह हीरोइन। उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए उन दोनों महिलाओं को लाइफलाइन रूपी एक एक्सपर्ट का सहारा लेना पड़ा जो कि येट अगेन एक महिला थी। उस एक्सपर्ट ने बचपन या कैशोर्यावस्था में देखे एक टेलीविजन सीरीयल का वास्ता या हवाला देकर बताया था कि हनुमान संजीवनी बूटी लक्ष्मण के लिए लाए थे। और जैसे लक्ष्मण की बची थी, इस लाइफलाइन से उन दोनों महिलाओं की जान बची थी। गोया वह महिला गंधमादन पर्वत से ही अवतरित हुई हो। 


हट्टी-कट्टी हीरोइन के इस आसान-सा जवाब दे पाने में अक्षम रहने को लोगों या ट्रोलों, जो भी आप कहें, ने हाथों-हाथ लिया और सोशल मीडिया पे दे पोस्ट-पे-पोस्ट पेलकर हट्टी-कट्टी हीरोइन को निंदाने लगे (इस सेन्टेंस को आप लास्ट वाले 'दे' के बिना भी पढ़ सकते हैं अगर चाहें)।


सोशल मीडिया पर उस उद्यमशील वामा की उद्योगिता की प्रशंसा में लेकिन एक भी पोस्ट न थी।


हैरानी इस बात पर भी थी कि उस मोस्ट ईज़ी क्वेश्चन का सिंपलेस्ट आन्सर वह उद्यमशील महिला भी न दे पाई थी किन्तु उसकी इस अज्ञानता को आराम से इग्नोर दिया गया। सबको शिक़ायत थी तो केवल हट्टी-कट्टी हीरोइन से जिसके पापा का नाम रामायण के चरित्रों में से एक पर था और चचा-ताऊ के नाम भी जस्ट लाइक दैट थे। और तो और, दमदार अभिनेता की बेटी हट्टी-कट्टी हीरोइन के घर का नाम भी रामायण था।  तो जनाब ट्रोलों ने तो ट्रोलना था और वे जी भर के ट्रोले भी।


ओह हो!! मेरी यह पोस्ट सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है, या हनुमान की पूँछ की तरह लंबी होती जा रही है। 


अब तक वह बात नहीं आई जिसे लिखने के लिए यह पोस्ट शुरू की थी।


तो मैंने जब कई दिनों बाद टीवी देखा, और टीवी में उस समय आ रहा केबीसी देखा तो मैं क्या देखता हूँ कि अमिताभ बच्चन किसी बात को कहते हुए 'बावजूद भी' बोल रहे हैं। यानी शब्द 'बावजूद' के साथ शब्द 'भी' का भी इस्तेमाल कर रहे हैं।


मैंने सुना है कि 'बावजूद' के साथ 'भी' का प्रयोग नहीं होता क्योंकि 'भी' बावजूद में अंतर्निहित है।


एक समय टीवी पर सत्यमेव जयते नामक कार्यक्रम में मैंने अभिनय की खान आमिर ख़ान को भी 'बावजूद' के बाद 'भी' का प्रयोग करते देखा था। 


मुझे उस दिन कोफ़्त हुई थी। पर कोफ़्ते जो उस दिन घर में बने थे टेस्टी बने होने के कारण मेरी खीझ की एनर्जी  डाइवर्ट होकर खाने की तारीफ़ में कन्वर्ट हो गई थी।  


आमिर ख़ान से तो जो शिक़ायत थी, सो थी, पर अब अमिताभ बच्चन ने भी 'बावजूद' के बाद 'भी' बोल डाला। इस बात से मेरा कान्फिडेंस थोड़ा हिल गया, कि यार कहीं मैं ई तो गल्त नईऊँ? 


तो आज की रात, जब मैं यह पोस्ट लिखते हुए आधी रात के इस पार आ गया हूँ, मैं, प्रोमिला, हमारे ज्वाइंट फैमिली के बच्चे-कच्चे हमारे ऊपर वाले अपने कमरे में सो रहे हैं। और आज (यानी टेक्निकली कल) हमने लैपटॉप पर एक नहीं, पूरी दो-दो फ़िल्में देखीं। एक तो थी राजेश खन्ना और नंदा अभिनीत सस्पेंस फिल्म इत्तेफाक। और दूसरी में भी नंदा थी। दूसरी फ़िल्म का नाम था गुमनाम। 


फ़िल्म इत्तेफाक के एक सीन में जब मैंने इफ़्तेख़ार जैसे मँझे हुए अनुभवी अभिनेता को एक संवाद में 'बावजूद भी' बोलते देखा तो क़सम से मुझपे क्या गुज़री होगी अल्ला ही जानता है। 


तो अब आप ही बताइए भाईसाहब 

क्या 'बावजूद' के बाद 'भी' लगाना करेक्ट है?

23 सितंबर 2019

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

9 सितंबर 2013

सच तो यह है कि मैं टूटा हुआ हूँ। अपने ही हाथों से छूटा हुआ हूँ।किस्मत से अपनी ख़ुद रूठा हुआ हूँ। अपने ही सच से लड़ता हुआ झूठा हुआ हूँ।

रविवार, 5 सितंबर 2021

 https://m.facebook.com/notes/vijay-singh/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%95-%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%87/2396139142485/

मंगलवार, 24 अगस्त 2021

 अच्छा (कृपया इसे बड़ा पढ़ें) एक्टर बनूँ 

या बड़ा बाबू (और इसे अफसर) 

इस उधेड़बुन (कृपया इसे कन्फ़्यूजन न पढ़ें) में सो नहीं पाता रात भर 

दिन भर मुझे यह पता चलता रहता है कि मैं इन दोनों से कुछ भी बन पाने से कोसों दूर हूँ अभी भी (इसे जीवन की देर दोपहर न भी पढ़ें तो है तो लेट आफ्टरनून ही)  

बात बस इतनी सी है जी कुछ भी बस का नहीं है अपने 

इसी बात पर एक समोसा हो जाए।


24 August 2015

 https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10227002675232436&id=1221171385


कृपया ध्यान दें, यह पोस्ट रोमांटिक नहीं, अपितु मेरे देशप्रेम के बारे में है


जब दुनिया का काफ़िला अपनी रफ़्तार से हरक़त में था तभी सड़क पर चलता हुआ डॉगी मुझे दूर से ही देख रुक गया था। पता उसे चल गया था कि मैंने एक तस्वीर लेने के लिए मोबाइल निकाला है। नादान श्वान इस बात से अन्जान था कि मेरी कोशिश ज़मीन से आसमान तक गुज़रते पल की छायाप्रति लेने की है। 


सड़क पर टहलते हुए जब मैंने चाँद देखा, तो सोचा तुम छत पर दिन में सूखने के लिए फैलाए गए और अब आधे सीले रह गए कपड़ों और डबल बेड की धोई गई शीटों को उतारने गई होगी और न चाहते हुए भी, मुझ पर झल्लाते हुए भी, एकाध बार तो चंद्रमा की ओर तुमने भी देख ही लिया होगा।


चंद्रमा को देख कर तुम अभी भी याद आती हो। हालांकि अभी घर से निकले मुझे ज़्यादा समय न हुआ था, और निकलकर भी, तुमने सैंडविच बनाने के लिए जो आधा किलो खीरे मंगवाए थे, और भरता बनाने के लिए जो गोल बैंगन मँगवाए थे, डैडी मम्मी की गैस्ट्रिक प्रॉब्लम को ध्यान में रखकर जो जीरा ड्रिंक की बोतलें मँगवाई थीं उन्हें डिलीवर करता हुआ मैं फिर से तुम्हें देख आया था तो भी तुम्हारी याद आने लगी थी और देखो मुझे! चंद्रमा को देखते हुए मैं तुम्हें सोचते हुए यही सोच पा रहा था कि चाँद को देखा तो होगा तुमने, पर मुझ पर झल्लाते हुए। जबकि दिन के फ़र्स्ट हाफ में राखी के लिए आई मेरी बहन, जीजा और भानजी की आवभगत के बाद जब तुम संडे के संडे धुलने वाले डेढ सौ कपड़ों और बेडशीट्स को वाशिंग मशीन में धो रही थीं, तो मैं उस समय राखी से सजी कलाई लिए हाथों से बर्तन धो रहा था और उसके बाद धुले हुए कपड़ों की बाल्टी लेकर बरसाती दिनों की सड़ी हुई उमस भरी धूप में छत पर नंगे पांव गया था तुम्हारे साथ। पतंग उड़ाने में सहूलियत की ख़ातिर कपड़े सुखाने की जो रस्सी टीनेज में दाखिल होते हमारे दोनों लड़कों ने निकाल दी थी उस रस्सी को कुशलता से पुनः बाँधकर और कपड़े सूखने के लिए फैलाने में तुम्हारी हेल्प करके और इधर-उधर बिखरी पड़ी चिमटियों को कपड़ों पर लगाने के लिए ढूँढ-ढाँढकर तुम्हें देकर ही मैं सोनीलिव पर हॉलीवुड की फ़िल्म 'ऐज़ गुड ऐज़ इट गेट्स' के बचे हुए आख़िरी तीस मिनट्स देखने नीचे कमरे में आया था। रात को उन्हीं कपड़ों को रस्सी से उतारते हुए तुम मुझ पर गुस्सा हो रही होगी ऐसा मैंने सोचा, क्योंकि तुम्हें नीचे जाकर खाना भी बनाना था।


फिर एक और जगह मुझे चाँद दिखा तो मैंने फिर तस्वीर उतार ली। घर पर आकर यह जानते हुए भी कि तुम नीचे रसोई में मम्मी की निगरानी में खाना बना रही हो, तुम्हें देखने छत पर गया। 


वहाँ जाकर देखता क्या हूँ कि पड़ोसी के मकान की छत के ऊपर चंद्रमा सुशोभित है। लेकिन उस छत पर लगे तिरंगे को देख मेरे मन में पहले से ही व्याप्त राष्ट्रप्रेम ऐवरी अदर थॉट को एक तरफ़ ठेलकर हिलोरें लेने लगा। मैंने सन्नद्ध होकर छत पर अँधेरे भरे सन्नाटे में गर्व से राष्ट्र गान गाया और छत से नीचे उतर आया।


जय हिंद!!

22 अगस्त 2021

शुक्रवार, 13 अगस्त 2021

 उसकी याद में रात भर रोता रहा 

नाइट शिफ्ट के बाद दिन भर सोता रहा

13 August 2018

रविवार, 8 अगस्त 2021

 सब जानते हैं राम मंदिर से क्या होगा।


भक्तों की वालों पर जाकर देख आया हूँ। सब यही कह रहे हैं टूरिज़्म को बढ़ावा मिलेगा, आसपास के लोगों को बिज़नस मिलेगा। 


इसका मतलब यह भी है कि रोज़गार देना इनके बस का नहीं। इनकी सरकार मंदिर भरोसे ही है। अंध-धार्मिकता से ही इनका ख़ुद का रोज़गार चल रहा है, ये ख़ुद उसी के भरोसे सत्ता में हैं। कोई रचनात्मक कार्यक्रम इनके पास नहीं है।


एक तरफ़ पूरा विश्व आगे आने वाले समय की चुनौतियों को ध्यान में रखकर बिज़नेस और अन्य गतिविधियों के नए तरीकों से ख़ुद को लैस कर रहा है, नए माडल तैयार कर रहा है।


दूसरी तरफ़ यह लोग हैं जो मंदिर के आसपास रोज़गार ढूँढ रहे हैं - यानी नए डिंगीनुमा होटल चलाना जिनमें बाल या टीनेज श्रमिकों की भरमार होगी जिन्हें हम प्यार से छोटू कहते हैं। 


दूसरा रोज़गार होगा मंदिर तक जाने की सड़क पर रामनामी दुपट्टों, कंठीमाला, शंख प्रसाद की थाली, फूलमाला, और राम जी की फोटू बेचने तथा राम के नाम पर भौंडी फ़िल्मी धुनों पर गाए गए गीतों की एमपी थ्री की प्रोडक्शन व बिक्री। 


इन तथाकथित हिंदुओं में से कोई माई का लाल बता दे कि अपने बच्चे को ऐसे रोज़गार में डालना चाहेगा वो। 


और मज़ेदार बात यह भी है कि ये लोग मुसलमानों को मिली पाँच ऐकड़ ज़मीन  पर अस्पताल या स्कूल बनवाने की सलाह दे रहे हैं।

8 अगस्त 2020

बुधवार, 21 जुलाई 2021

 जीवन में जो कुछ भी है 

सब कुछ

सहर्ष तो नहीं स्वीकारा है 

पर जो है 

सो है ही 

और थोड़े-बहुत हेर-फेर के साथ 

रहेगा भी 

तो जैसे-तैसे कर लेने के बाद स्वीकार 

खोजा सुख खीझते-छीजते 

ख़ाली गुल्लक को हिला-हिलाकर

और सच मानिए थोड़ा बहुत पा भी गया शायद 

ख़ाम-ख़याली में 

ख़ाली थी 

पर तोड़ नहीं पाया गुल्लक 

तोड़ूँगा भी नहीं 

आशावादी जो ठहरा 

उल्लू का पट्ठा।

इसलिए जो कुछ मिला 

उसी में हर्ष ढूँढने की ताल-बेताल कोशिश की 

और जो नहीं मिला 

उसमें भी। 


दुख तो इस बात का है 

यह मेरे अकेले की दास्तान नहीं।


21 July 2015



शुक्रवार, 9 जुलाई 2021

 


https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10213654595258779&id=1221171385


कभी-कभी मेरा अपनी पत्नी से भी झगड़ा होता है। 


कहा-सुनी तो कई बार हुई है, दो-एक बार हाथ भी उठा है। 


मेरे अंदर एक बुनियादी मर्द कभी-कभी सभ्य साँप की तरह फन उठाता है। लेकिन यह सब इतना क्षणिक होता है कि मैं ख़ुद जान नहीं पाता कि एकाएक यह हुआ क्या।  


एक लंबे समय से ऐसा हुआ नहीं लेकिन आगे कब हो जाए पता नहीं। 

आप चाहें तो बिन मांगे जो सर्टिफिकेट मुझे देना चाहें, दें। 


यह सब ऐसे ही है कि हम कितने ही सेक्युलर क्यों न हों, हिन्दू होने के प्रत्यक्ष और परोक्ष लाभ लेने में हमें कोई गुरेज नहीं होता। कम-से-कम इतना आश्वस्त तो होते ही हैं हम कि अल्पसंख्यक न होने के कारण दंगों में तो नहीं ही मारे जाएंगे। ज़ात-पात को कितना भी न माने पर ब्राह्मण होने के लाभ जो चुपचाप बिना कहे हमें मिल जाते हैं उन्हें हम लात तो नहीं मार देते न? तो जो मर्दवादी सेटअप में हम रहते आएँ हैं उससे एकदम से छुटकारा कैसे मिलेगा भला?  


जो हो ऐसा तो कभी नहीं हुआ कि उसे ख़ून-वून निकला हो। बल्कि ख़ुद मुझे बेहद तकलीफ हुई क्योंकि गुस्से का अचानक ज्वार आपके अपने शरीर को काफी नुकसान पहुँचाता है बनिस्पत सामने वाले के। कई बार अचानक गुस्सा आने के बाद मैं बहुत देर तक ऊर्जा रहित कटे पेड़ की तरह गिरा रहा हूँ। दाँत भिंचने के बाद जबड़े वगैरह में भी काफी दर्द-वर्द होता रहा है मुझे। 


मैंने प्रोमिला से कहा भी है कि यार कभी मुझे एकदम से गुस्सा आ जाए तो मुझे बातचीत में उलझा लो, मेरे सवालों का जवाब देते जाओ। और तब मैंने महसूस किया है कि गुस्सा आने के बजाए हमारे बीच डिस्कशन होने लगता है। मैंने उससे कहा है कि देखो यूँ समझो कि मैं एक बीमार आदमी हूँ।


बचपन से चिड़चिड़ा रहा हूँ मैं। स्कूल में सहपाठियों से काफी मार खाई है और बाप ने भी खूब जी भर के पीटा है। चिड़चिड़ा इतना था कि डैडी मुझे पापड़ी कहते थे और आज भी कभी-कभी कह देते हैं। 


बहुत-सी अच्छी चीज़ें-सपने-प्रेमिकाएँ मेरे देखते-देखते, मेरी होते-होते छिन गई हैं। आज तक यह चला आ रहा है। 


मने अपने लिए सहानुभूति पैदा करने की कोशिश कर रहा हूँ आपके मन में। 


एक बार तो बाप की पिटाई से विद्रोह कर घर से भाग भी गया था। पर तीन दिन में वापस आ गया। एक्चुअली घर की याद बहुत आ रही थी। क्योंकि मीठी यादें ज़्यादा थीं। 


मेरी माँ की तब जो हालत बिगड़ी थी आज तक उस जलाल में वापस न आ पाई। और बाप तब के बाद से बिलकुल निरीह सा बन गया। बहुत तकलीफ पहुंचाई मैंने उन्हें। मैं ऐसा अपराधी हूँ कि वे मुझे कोई सज़ा भी नहीं दे सकते और मेरे अपराध की सज़ा खुद ही भुगत रहे हैं। संतान भी क्या चीज़ होती है न!  


आज सुबह बेटे को एक थप्पड़ जमाया। वो हैरानी से मेरी तरफ देखता रहा। 


नौ साल का वह लड़का मेरे थप्पड़ से रोने के बजाए सोच में पड़ गया कि यह जो मेरा बाप है मुझसे इतना प्यार करता है तो फिर कभी-कभी मारता काय को है। दीदियों को कुछ नहीं कहता। 


पर एक मिनट न लगाया उसने यह सब भूलने में और उसके बाद हम बाप-बेटा साथ में नहाए और उसने मेरे थप्पड़ को कोई भाव न देते हुए अल्टीमेटम दे दिया कि बाप 

जो माँगूँगा लाकर दोगे आप। 

समझे? 


मेरी क्या बिसात कि न समझूँ। 


हाँ भई लड़ाई होती रहती है हम दोनों पति-पत्नी में। पर हम दोनों ही एक-दूजे के बिना नहीं रह सकते क्योंकि मीठी यादें ज़्यादा हैं। 


जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ मेरी बीवी इसे साथ-साथ पढ़ रही है मेरे कंधे पर अपना गाल टिकाए। वो हँस रही है क्योंकि वो जानती है मुझे कि मैं उससे क्षमा मांगने में एक क्षण नहीं लगाता और पिछले दसेक वर्षों में तो ख़ुद को बेहद बदलने की कोशिश की है मैंने। 


एक अच्छी बात यह रही कि हमारे बीच लड़ाई-झगड़े बेहद आम सी बातों पर हुए न कि किसी गैर औरत या मर्द के पीछे। और न ही यह लड़ाई कभी पैसे के पीछे और न ही उसके मायके वालों को लेकर हुई। दहेज-वहेज का मामला भी रहा नहीं कभी। 


और यह भी कि इस पोस्ट को लिखते समय बिस्तर बिछाने की बात पर हमारी लड़ाई होते-होते बची। 


पोस्ट ठीक से लिख पाऊँ और सच स्वीकारने का माद्दा मुझमें रहे इसलिए प्रोमिला ने खजूर, गुड़ के सेव, पापड़ी और सफ़ेद मीठे फुल्ले-से जिन्हें कई बार चने के साथ खाया जाता है, मेरे पास रख दिये हैं ताकि मैं खाते-खाते लिखूँ और स्टेमिना न लूज़ कर जाऊँ। 


मेरे जीवन में जो चंद बेहद अच्छी बातें-चीज़ें हुई हैं प्रोमिला उनमें से एक बेहद आशीर्वाद-स्वरूप मुझे मिली है। उसे क्या मिला है, वो जाने। 


अब मैं किसको जाकर पाठ पढ़ाऊँ और किसकी निंदा-आलोचना कर ख़ुद को उल्लू का पट्ठा प्रगतिशील साबित करूँ।

गुरुवार, 20 मई 2021

 दिल की पुकार तुम तक पहुँचाने में फेफड़े भी मिरे हलकान हुए

पर तुम्हारे कानों में सुनने का जिगर गुर्दा न था।



24 May 

हलकान हुए फेफड़े भी मिरे
पहुँचाने को आवाज़-ए-दिल
पर तुम्हारे कानों में
सुनने का जिगर गुर्दा न था।

शनिवार, 10 अप्रैल 2021

अनुपमा धर्मेंद्र देवर और देवेन वर्मा

 हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित हिंदी फ़िल्म  'अनुपमा' देख रहा था कि फ़िल्म में देवेन वर्मा की एन्ट्री आते ही फ़िल्म आगे देखने के बजाय, इस फ़िल्म को देखने पर जो दिलचस्पी बढ़ रही है आपसे शेयर करने का लोभ हुआ।

10 अप्रैल 2020

मैं हैरान हूँ कि यह फ़िल्म मैंने अब तक क्यों नहीं देखी थी। शायद इसलिए क्योंकि मैंने बहुत कम फ़िल्में देखी हैं। 


संभवतः यह हृषिकेश दा की पहली निर्देशित फिल्म है। इसे उन्होंने बिमल दा ( विमल रॉय) को समर्पित किया है जिनके वे असिस्टेंट थे।


अभी तक की फ़िल्म बेहद नपीतुली है। खिड़की के परदे तक आधा इंच फ़ालतू नहीं हिलते। अभिनेताओं की भाव-भंगिमाएं ग़ज़ब तौर पर संयत और स्वाभाविक हैं। कैमरा मूवमेंट बिल्कुल स्मूद और सधी हुई। कैमरा प्लेसमेंट भी मन के भावों को उभारती हुई। हेमंत कुमार का  संगीत फ़िल्म की गरिमा और भावों को और स्पष्टता से मन तक ले जाता है।  


फ़िल्म में जैसे ही देवेन वर्मा दाखिल होते हैं, मुझे याद आया शर्मिला टैगोर, देवेन वर्मा और धर्मेंद्र ने फ़िल्म 'देवर' में भी एक साथ काम किया है। 


फ़िल्म 'देवर' 'अनुपमा' से पहले आई थी या बाद में, यह मुझको ध्यान नहीं। चूंकि मैंने पहले 'देवर' देखी है, इसलिए कृपया मेरी क्रोनोलॉजी इसी प्रकार से समझिए।


'देवर' अपने कथ्य को लेकर मेरे लिए एक हिंदी फ़िल्मों के संबंध में एक इलहाम जैसी थी। भला किस फ़िल्म में ऐसा देखा होगा कि शादी के लिए लड़की देखने आया हीरो लड़की से मोंपासा के साहित्य पर सवाल पूछे? और ख़ास बात यह कि हीरो को ख़ुद मोंपासा के साहित्य का कोई अता-पता नहीं है, इस बात पर वह नर्वस है। प्लीज़, मैं फ़िलहाल जेंडर क्वेश्चन को यहाँ डिस्कोर्स में नहीं ला रहा। वरना बात किसी अन्य दिशा में मुड़ जाएगी। 


तो 'देवर' में देवेन वर्मा ने जिस तरह का खलनायकी क़िरदार निभाया है वह उनकी अभिनय क्षमता की बेहतरीन बानगी पेश करता है। इससे पहले मैं उन्हें हास्य कलाकार ही जानता था। 


'देवर' से पहले धर्मेंद्र की एक फ़िल्म आई थी 'फूल और पत्थर'। निर्देशक ने धर्मेंद्र की हीमैन जैसी, ग्रीक गॉड्स से मेल खाती शानदार पर्सनैलिटी को इस फ़िल्म में अत्यंत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया था। यह फ़िल्म धर्मेंद्र के लिए भी संग-ए-मील साबित हुई। धर्मेंद्र चाहते तो एंग्री यंग मैन जैसी छवि में बंध सकते थे लेकिन नहीं। 'फूल और पत्थर' के बाद 'देवर' आई जिसमें संस्कारों और परिस्थितियों के आगे मजबूर व्यक्ति का सजीव चित्रण धर्मेंद्र ने अपनी अदाकारी के ज़रिए किया है। 


धर्मेंद्र अभिनीत 'फूल और पत्थर' के सामने अमिताभ बच्चन अभिनीत 'ज़ंजीर' फिल्मांकन, कथ्य और उद्देश्य के दृष्टिकोण से काफ़ी कमज़ोर फ़िल्म है बाय द वे। धर्मेंद्र जिस प्रतिष्ठा के हक़दार थे वह उन्हें नहीं मिली। जिस तरह की फ़िल्में उन्हें ध्यान में रखकर लिखी जानी चाहिए थी, नहीं लिखी गई। कहना चाहिए कि धर्मेंद्र की ज़मीन से जुड़े रहने की प्रकृति और स्वाभाविक विनम्रता भी उनकी अपनी संपूर्ण संभावनाओं का खनन करने में बाधा बनी होगी। ख़ैर...। 


बैक टू 'अनुपमा'

शर्मिला टैगोर का पर्सोना एस्टैब्लिश हो चुका है। 

देवेन वर्मा अपने पात्र की पृष्ठभूमि के साथ पट पर प्रस्तुत हो गए हैं। धर्मेंद्र अभी तक नहीं आए हैं। आने वाले होंगे। 

फ़िल्म देखने में मज़ा आने वाला है।

शनिवार, 20 मार्च 2021

मनोहर पर्रिकर साहब को नमन

20 मार्च 2019


पर्रिकर साहेब इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गए हैं।

फेसबुक उन्हें दी जाने वाली श्रद्धांजलियों से पटा पड़ा था।
यहाँ तक कि जो कभी गोवा न गये हों, न ही मनोहर पर्रिकर ने क्या-क्या काम किए इसके बारे में उन्हें ठीक से मालूम हो, वे भी श्रद्धा अर्पित करने में पीछे न रहे होंगे, दिस इज़ मेरा मानना।
इट लुक्ड लाइक ही वाज़ द हरमन प्यारा नेता अॉफ द कंट्री, मतलब नेशन।
तो मेरे मन में प्रश्न उभरा,
वे देश के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने?
भाजपा जो उनके बारे में आमूलचूल जानती रही होगी, क्यों नहीं उन्हें अपने पीएम कैंडिडेट के रूप पेश कर पाई?
शायद इसलिए क्योंकि बंदे में कब्रिस्तान और श्मशान वाली किलर इंस्टिंक्ट नहीं थी।
(बड़े-से-बड़े भक्तेंद्र भी चुपचाप स्वीकार करते मिलेंगे कि पोल्टिक्स तो काम ही ग़ुंडो का ऐ जी!!)
अगर मनोहर पर्रिकर होते हमारे पीएम तो क्या देश की तस्वीर कुछ अलग न होती?
वे हमारी सेनाओं और इंस्टिट्यूशंस का पॉलिटिकल इस्तेमाल नहीं करते।
भारतीय सेनाओं की कामयाबी को बीजेपी की कामयाबी न बताते और न ही हर बात के लिए नेहरू को कोसकर साफ़ बच निकलने की भगौड़ी रणनीति अपनाते।
कुछ भी अगड़म-बगड़म बोल जाने वाले मोदी को जिस तरह मरी-गिरी और मोदी की नाकामियों से फिर से लगभग जी उठी काँग्रेस की चौकीदार वाली पिच पर आकर बैटिंग करनी पड़ रही है, वो न हो रहा होता अगर पर्रिकर देश के नेता होते तो।
क्या रोज़गार के सवाल पर वे आपसे पकौड़े तलवाते?
पाँच साल में जो अकूत दौलत हासिल की गई है, उससे तिकड़मबाज़ी कर भाजपा जीत भले जाए, पर माहौल पिछली बार का दस फीसदी भी नहीं है।
यह अजब बात है कि
दो वक्त की रोटी का जो मुश्किल से जुगाड़ कर पाता है
वही मतदाता चुनाव में भारत भाग्य विधाता कहलाता है।
मेरे ख़्याल में पर्रिकर को सच्चा श्रद्धा अर्पण यही होगा कि भारत भाग्य विधाता इस सरकार से पूछे -
राफेल डील में पीएमओ द्वारा रक्षा मंत्रालय को दरकिनार कर पैरेलल फील्डिंग क्यों की जा रही थी?
पुलवामा में मारे गये सीआरपीएफ जवानों को अपने परिवार के सदस्य समझकर हम बार-बार यह सवाल उठाते रहें कि चूक के लिए कौन ज़िम्मेदार है? और वोट देते समय भी यही बात मन में रखें।
किसी पार्टी से ऊपर रखें देश को, भले ही नोटा दबाना पड़े।
अंत में, मेरा भी पर्रिकर साहब को सिम्पल-सा नमन है।

मंगलवार, 2 मार्च 2021

किरण मैम के लिये

एक न एक दिन तो जाना ही था तुम्हें

 

तुम

जो अनंतकाल से बाट जोह रही थी कि न आओ

तो आ गया वो दिन कि जब तुम नहीं हो

 

क्या इसी दिन के लिए ही तो नहीं की थी वापसी मैंने

कि देखने को फिर से खाली नए शीशे से चमचमाता टेबल

कि खाली-खाली-सा मैं और चुप दराजें, और फ़ाईले

 

क्या फिर उन क्षणों को खींच लाने या उनमें जीने की चाह करूँ

असफल

अंतिम विदा बाक़ी है अभी

जिसे लेने कि तुम्हारी बेचैनी को समझ सकते हुए भी नहीं चाहता मैं समझना

 

मैं रुक कर तुम्हारी अनुपस्थिति से सिक्त होना चाहता हूँ

भीगता था जो तुम्हारी मौजूदगी में भी... 


2 मई 2011 

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

गुलाब, प्रपोज़ डे और चॉकलेट डे को समर्पित मेरी वैसी ऐसी पोस्ट

 

#मेरीवैसीऐसीपोस्ट



कल सोचा था कि तुम्हें गुलाब भेंट करूँगा, लेकिन तुम्हें बड़ौदा हाउस से 6.40 वाली बस मिल गई और मेरे आने से पहले तुमको बस की खिड़की के बगल वाली सीट मिल चुकी थी और रेल के इंजन के मॉडल के पास खड़ा, जाती हुई बस को देखता रह गया मैं।


रेल के उस इंजन के मॉडल को रोज़ धो-पोंछकर, दुलारकर, पेंट वगैरह करके चमका कर रखा जाता है मगर वो इंजन न तो किसी डिब्बे के काम का है न ही उस कमबख़्त को ख़ुद अकेले ही कहीं जाना है। उसे बस खड़े-खड़े वहीं सीटी मारकर ख़ुश हो लेना है। उस इंजन के पास खड़ा मैं ख़ुद को बहुत बेइंजन महसूस कर रहा था – बिफोर इंटरवल 'छोटी सी बात' के अमोल पालेकर जैसा। मैं दुआ कर रहा था कि बस की खिड़की से बाहर देखती तुम 'न जाने क्यूँ होता है ये ज़िंदगी के साथ' गाने की पंक्तियाँ गुनगुना रही हो।  


मंडी हाउस के कोपरनिकस मार्ग पर लुटियंस की दिल्ली के बाक़ी हिस्सों की तरह सेंट्रल विस्टा का काम चल रहा है। इस कारण सारे फुटपाथ खुदे पड़े हैं। जब तक उन्हें अपने डगमगाते क़दमों से मैं पूरा नाप पाता तब तक तुम निकल गईं।


वह गुलाब आज भी मेरे बैग में है। सोचा, वेस्ट क्यों करूँ। आज ले लोगी न कल का गुलाब?

 

मैं आज तुम्हें प्रपोज़ करना चाहता हूँ कि तुम जब भी गुलाब का फूल लोगी, मुझी से लोगी। अगर तुम स्वीकार कर लो तो बड़ौदा हाउस से ऑटो लेकर अपन दोनों कस्तूरबा गाँधी मार्ग से होते हुए कनॉट प्लेस चलेंगे और रिवोली के पास हनुमान मंदिर पर कुल्हड़ में चाय पियेंगे।

 

और सुनो, चॉकलेट मुझे पसंद नहीं है, डैडी बचपन से ही कहते आए हैं चॉकलेट खाने से दाँत ख़राब हो जाते हैं। वो कहते हैं कोई फ्रूट वग़ैरह खाना चाहिए। सेहत बनाने वाली चीज़ें खानी चाहिए। इसलिये कल चॉकलेट डे पर मैं डेयरी मिल्क की सत्तर रुपये वाली चॉकलेट ख़रीदने की बजाय मदर डेयरी से 70 रूपये का पैक पनीर ख़रीद लूँगा। हम दोनों सेंट्रल पार्क में धूप सेंकते हुए पनीर पर काला नमक छिड़ककर खाएँगे। टूथपिक तुम लेती आना, मुझसे गुम जाती हैं।

 

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

नमस्ते-प्रहार

15 जनवरी 2020

हवाई जहाज़ में दाखिल होने पर 

एयरहोस्टेस या होस्ट स्वागत के लिए खड़े रहते हैं। और कामों के अलावा यह भी इनका रोज़मर्रा का काम होता है। 


यात्राओं में साथ रहकर, यात्रा की थकन के बावजूद इन्हें फ्रेशम्-फ्रेश दिखना होता है और चेहरे पर मुस्कान चस्पा यूं रखनी होती है मानों अभी-अभी स्पा से आए हों।


लेकिन साहब रोज़म-रोज़ एक जैसा काम करके बोरियत अगर नहीं भी आए तो भी मशीनीकरण तो हो ही जाता है बंदे का। 


एयर इंडिया में ख़ास तौर पर 

और दीगर एयरलाइनों में आमतौर पर नमस्ते करने के लिए खड़े यह व्यक्ति कुछ यूँ नमस्ते करते हैं गोया ट्रेडमिल पर ख़ासम-ख़ास पीसेज़ की पहचान कर रहे हों। 

 

यात्री अभी जहाज़ की देहरी से कुछ ही फ़ासले पर होता है कि यह अँदाज़ा लगा लेते हैं कि इसे नमस्ते मारनी है कि नहीं। 

यदि नहीं, तो इधर-उधर मुँह घुमाकर बिज़ी हो जाते हैं और अगले शिकार को ताड़ने लगते हैं। 


यदि आप इनके नमस्ते-प्रहार से बच गए हैं तो इसका मतलब है आप भाषा में न सही, भेस में भी न सही, पर दिखने में भदेस हैं। 


इस प्रकार एनआरसी के इस सैंपल टेस्ट में ख़ुद को पास समझिए।