शनिवार, 20 मार्च 2021

मनोहर पर्रिकर साहब को नमन

20 मार्च 2019


पर्रिकर साहेब इस दुनिया-ए-फानी को अलविदा कह गए हैं।

फेसबुक उन्हें दी जाने वाली श्रद्धांजलियों से पटा पड़ा था।
यहाँ तक कि जो कभी गोवा न गये हों, न ही मनोहर पर्रिकर ने क्या-क्या काम किए इसके बारे में उन्हें ठीक से मालूम हो, वे भी श्रद्धा अर्पित करने में पीछे न रहे होंगे, दिस इज़ मेरा मानना।
इट लुक्ड लाइक ही वाज़ द हरमन प्यारा नेता अॉफ द कंट्री, मतलब नेशन।
तो मेरे मन में प्रश्न उभरा,
वे देश के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बने?
भाजपा जो उनके बारे में आमूलचूल जानती रही होगी, क्यों नहीं उन्हें अपने पीएम कैंडिडेट के रूप पेश कर पाई?
शायद इसलिए क्योंकि बंदे में कब्रिस्तान और श्मशान वाली किलर इंस्टिंक्ट नहीं थी।
(बड़े-से-बड़े भक्तेंद्र भी चुपचाप स्वीकार करते मिलेंगे कि पोल्टिक्स तो काम ही ग़ुंडो का ऐ जी!!)
अगर मनोहर पर्रिकर होते हमारे पीएम तो क्या देश की तस्वीर कुछ अलग न होती?
वे हमारी सेनाओं और इंस्टिट्यूशंस का पॉलिटिकल इस्तेमाल नहीं करते।
भारतीय सेनाओं की कामयाबी को बीजेपी की कामयाबी न बताते और न ही हर बात के लिए नेहरू को कोसकर साफ़ बच निकलने की भगौड़ी रणनीति अपनाते।
कुछ भी अगड़म-बगड़म बोल जाने वाले मोदी को जिस तरह मरी-गिरी और मोदी की नाकामियों से फिर से लगभग जी उठी काँग्रेस की चौकीदार वाली पिच पर आकर बैटिंग करनी पड़ रही है, वो न हो रहा होता अगर पर्रिकर देश के नेता होते तो।
क्या रोज़गार के सवाल पर वे आपसे पकौड़े तलवाते?
पाँच साल में जो अकूत दौलत हासिल की गई है, उससे तिकड़मबाज़ी कर भाजपा जीत भले जाए, पर माहौल पिछली बार का दस फीसदी भी नहीं है।
यह अजब बात है कि
दो वक्त की रोटी का जो मुश्किल से जुगाड़ कर पाता है
वही मतदाता चुनाव में भारत भाग्य विधाता कहलाता है।
मेरे ख़्याल में पर्रिकर को सच्चा श्रद्धा अर्पण यही होगा कि भारत भाग्य विधाता इस सरकार से पूछे -
राफेल डील में पीएमओ द्वारा रक्षा मंत्रालय को दरकिनार कर पैरेलल फील्डिंग क्यों की जा रही थी?
पुलवामा में मारे गये सीआरपीएफ जवानों को अपने परिवार के सदस्य समझकर हम बार-बार यह सवाल उठाते रहें कि चूक के लिए कौन ज़िम्मेदार है? और वोट देते समय भी यही बात मन में रखें।
किसी पार्टी से ऊपर रखें देश को, भले ही नोटा दबाना पड़े।
अंत में, मेरा भी पर्रिकर साहब को सिम्पल-सा नमन है।

मंगलवार, 2 मार्च 2021

किरण मैम के लिये

एक न एक दिन तो जाना ही था तुम्हें

 

तुम

जो अनंतकाल से बाट जोह रही थी कि न आओ

तो आ गया वो दिन कि जब तुम नहीं हो

 

क्या इसी दिन के लिए ही तो नहीं की थी वापसी मैंने

कि देखने को फिर से खाली नए शीशे से चमचमाता टेबल

कि खाली-खाली-सा मैं और चुप दराजें, और फ़ाईले

 

क्या फिर उन क्षणों को खींच लाने या उनमें जीने की चाह करूँ

असफल

अंतिम विदा बाक़ी है अभी

जिसे लेने कि तुम्हारी बेचैनी को समझ सकते हुए भी नहीं चाहता मैं समझना

 

मैं रुक कर तुम्हारी अनुपस्थिति से सिक्त होना चाहता हूँ

भीगता था जो तुम्हारी मौजूदगी में भी... 


2 मई 2011