सोमवार, 8 जुलाई 2013

रात जो जवाँ थी
थिरकती और धड़कती थी
धीरे-धीरे ढलान पर है
फिसलती जा रही है
जैसे आंसुओं का जमा हुआ कोई ग्लेशियर हो

जाने कब से छाए हैं आँखों में ग़मों के बादल
और एक घुटन है जो बहकर बाहर आना चाहती है धीरे-धीरे
और इस घुटन को रात का बड़ा सहारा है
ताकि बाहर आते हुए
टप-टप कर आँसू बनकर गिरते हुए
मन के ज़ख्मों से रिस-रिसकर बहते हुए
इसे कोई देख न ले

ढलान पर है रात
जो जवाँ थी
थिरकती थी
अब सूखे पत्ते-सी कांपती है
एक सुनहरी झील में समां जाने से पहले
धीरे-धीरे डूबती-उतराती
ये रात आख़िर एक धुंधलके में सिमटकर
रह जाएगी जिसने अभी थोड़ी देर पहले तक
उस नशे को समेट रखा था अपने आग़ोश में
जिसे मुहब्बत कहते हैं।

बेदर्द उजियारा
इस रात को हमसे छीन लेगा
हमारे दामन में सिमटी
ये बेहद अपनी-सी सखी-सी प्यारी-सी रात
बेशक ये वक़्त का तकाज़ा है।

लेकिन इस रात ने जो ख्वाब दिखाए
वो दिन के उजियारे में खो न जाएं
ख़याल रखना मेरे दोस्त

संभलकर चलना दिन में
क्योंकि ज्यादा रौशनी से भी
आँखों के आगे अँधेरा छा जाता है
और दिन में तो गिरते हुए को सँभालने को
कोई हाथ नहीं बढ़ता
क्योंकि सब-के-सब बंधे हुए हाथों से
बेड़ी डले पैरों से
चले जा रहे हैं बाज़ार में बिकने की ख़ातिर
कमज़ोर कन्धों पर
जाने कितनी उम्मीदों का बोझ उठाए

दिन की जद्दोजहद के बाद
रात के आने की उम्मीद न छोड़ना
ख़ुद के पास जाने की उम्मीद न छोड़ना
जब तक खुद तुम्हारी नींद तुम्हें तरसाती रहे
आंसुओं के ग्लेशियर पर लेटे-लेटे
चाँद को ढँकते-छुपते देखते हुए
धीरे-धीरे फिसलते जाना
सुनहरी झील की तरफ    
   

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