सोमवार, 22 नवंबर 2021

अच्छे दिन

 #वामपंथीएजेंडेवालीपोस्ट


सब कुछ बाज़ार में तब्दील होता जा रहा है। 


हम हर काम और उद्देश्य को मुनाफ़े के अभिप्राय से देखने लगे हैं और प्राइवेट सेक्टर का आगमन हर क्षेत्र में हो चुका है। ख़ासतौर पर हम आम लोगों का वास्ता सर्विस सेक्टर से अधिकाधिक पड़ता है। वहाँ प्राइवेट सेक्टर की मौजूदगी आश्वस्त करने के बजाय आतंकित करती है। 


मिसाल के तौर पर अगर रात आठ या नौ बजे आप किसी बस स्टॉप पर खड़े हैं, तो इसकी पूरी संभावना है कि आप डीटीसी या अपने शहर की सरकारी बस की प्रतीक्षा कर रहे हों क्योंकि आपको मालूम है कि अब प्राइवेट बस अपने डिपो में जाकर खड़ी हो गई होगी। ज़ाहिर है मुनाफ़ा पीक (peak) आवर्स में ही है और सर्विस से ज़्यादा प्राइवेट वालों का सरोकार मुनाफ़े से है। 


मज़े की बात यह है कि आपसे बात की जाए और आपके जनरल विचार जाने जाएँ तो आप प्राइवेटाइजेशन के समर्थक निकलेंगे। 


प्राइवेट अस्पतालों और स्कूलों का हाल किसी से छिपा नहीं। 


सरकारी अस्पतालों और स्कूलों में इमारतें अच्छी न हो, ऐसा हो सकता है और होता भी है। पर वे डॉक्टर और टीचर अनेक परीक्षाएं पास करने के बाद ही वहाँ जगह पाते हैं इसलिए मैक्सिमम क्वालिफाइड होते हैं। 


देश में ऐसे लोगों की संख्या अधिक है जो प्राइवेट ट्रीटमेंट और एजुकेशन अफोर्ड नहीं कर सकते क्योंकि अधिकतर लोग साधनहीन हैं। अच्छा और समय पर इलाज केवल प्राइवेट में मिलता है यह मानने वाले बेचारे सर्वहारा जन अपनी ज़मीने बेचकर या गहने गिरवी रखकर या एफडी तुड़वाकर इलाज करवाने या शिक्षा हासिल करने आते हैं। 


ज़ाहिर है ऐसे पैसा ख़र्च करके जो बच्चा एजुकेशन हासिल करेगा वह पहले अपना रिटर्न हासिल करना चाहेगा न कि देश और समाज की सेवा की नीयत से अपना योगदान देना चाहेगा। प्राइवेट से सीख कर निकला ऐसा कोई एक उदाहरण आपके पास है तो कमेंट में लिखिएगा। 


प्राइवेट अस्पतालों में इलाज का एक रास्ता मेडिकल इंश्योरेंस से होकर भी गुज़रता है। लेकिन उसका प्रीमियम भरने लायक पैसे से अधिक आपके पास उस तरह सोचने की सलाहियत यानी इंश्योरेंस माइंडेडनेस आपके पास होनी चाहिए जो एक बड़े तबके के पास नहीं है। 


क्योंकि नौकरियाँ कम से और कम होती गई हैं और बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ कठिन से और कठिन। इसलिए आदमी रोज़ाना के अपने सरवाइवल के बारे में सोचेगा, मेक बोथ एंड्स मीट (making both end meet) के बारे में सोचेगा या फ्यूचर के ख़तरे के लिए सेविंग करने के बारे में? यह सेविंग गुल्लक या बैंक खाते तक ही सीमित रहती है और अब तो बैंकों का हाल भी बुरा है। 


बिज़नेस अपार्चुनिटीज़ के कठिनतर हो जाने की जो बात मैंनें की शायद आप उससे सहमत न हों। क्योंकि कहा जाता है कि मौजूदा निज़ाम व्यापार के मौक़े बढ़चढ़कर दे रहा है। इन लोगों ने तो रक्षा क्षेत्र को भी निजीकरण के लिए खोल दिया है। 


चलिए मैं आपकी बात मान लेता हूँ। लेकिन अगर मैं कोई दुकान खोलूँ और सरकार मुझे पूरी सहायता दे भी दे उस दुकान को खोलने में, तो भी प्राइवेटाइजेशन के दौर में मेरा मुक़ाबला बड़ी दुकान से है। मॉल कल्चर पसरता जा रहा है और अंततोगत्वा वह दिन दूर नहीं जब मुझे अपनी दुकान किसी मॉल में खोलनी पड़े जहाँ दुकान का पर डे (per day) किराया ही आपके लिए चुकाना भारी पड़ जाए। 


कुल मिलाकर हो यह रहा है कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाएगी और खा रही है और हम जो अधिकतर छोटी मछलियाँ हैं, इसे सही ठहरा रहे हैं यानी हम अपनी संस्कृति से विमुख होते जा रहे हैं। अपने जीने के अधिकार को ख़ुशी-ख़ुशी छोड़ रहे हैं आख़िर हो क्या गया है हमें? 


सरकार को हम उसकी हर ज़िम्मेदारी से विमुख करते जा रहे हैं न जाने किस उद्देश्य की पूर्ति के लिए! 


पढ़े-लिखे लोग इसे रिफ़ॉर्म्स कह रहे हैं। 


अगर सब कुछ प्राइवेटाइज़ होता गया तो क्या एक दिन पुलिस भी प्राइवेटाइज़ हो जाएगी? 


अगर ऐसा हुआ तो कैसा होगा वह समय और समाज? 


ऐसी पुलिस की दुकान के कस्टमर कौन होंगे?

अपराधी?


अगर हम सीधे-सादे लोग पुलिस के कस्टमर कहलाएँ तो क्या पुलिस हमसे प्रोटेक्शन मनी लेगी? यानी हफ्ता वसूलेगी!!!


मान लीजिए एक युवती प्रोबैबल (probable) बलात्कारियों से बचते हुए सड़क पर भाग रही है। एक प्राइवेट पुलिस वाला उसे दीखता है। वह उससे रक्षा की याचना करती है और पुलिस वाला पहले उसे प्रॉटेक्शन चार्जेज़ के लिए ऑनलाइन पेमेंट करने को कहता है, तो ऐसा समाज कैसा समाज होगा? 


जिन्हें मैंने ऊपर प्रॉबैबल बलात्कारी कहा है, किसी रजिस्टर्ड एंटिटी (entity) के लिए वे प्रॉमिसिंग बलात्कारी भी हो सकते हैं। 


सारी मर्यादाएँ और मूल्य तथा जज़्बात केवल नफे और नुकसान में सिमटकर रह जाएँगे। 


फिर भी टैक्स बढ़ते जाएँगे और हमारे इलेक्टेड रेप्रेज़ेंटेटिव्ज़ प्राइवेट वालों के दल्ले बनकर लुटियंस के बंगलों में रंगीन रातें गुज़ारेंगे और हम इसे देश के लिए सही मानते हुए चुपचाप होम हो जाएँगे। 


ऐसे अच्छे दिनों की सरहद में हम दाखिल हो चुके हैं।

22 November 2020

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