शनिवार, 24 सितंबर 2011


उड़ूँ उड़ूँ उड़ूँ उड़ूँ
उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
निस्सार

मोतियों का उल्टा थाल
छू लूँ जाकर नभ का भाल
देती हिलोर मन की उमंग
क्यूँ प्यारा लगे मुझे हर रंग

उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
एक छोटा-सा परिवार

मेरे सपनों की डोर
बढ़े सूरज की ओर
थामे रहूँ एक छोर
और खींच लाऊं भोर

उड़ता ही मैं जाऊँ
पहुंचूँ बादलों के पार
जहां से दिखता ये संसार
इंद्रधनुषाकार

            प्रेमचंद की कहानी बड़े भाईसाहब के मंचन के लिए गीत 

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