गुरुवार, 8 सितंबर 2011

मुफ्त का कवि उर्फ अबे सुन बे कविता

साहेबान
बड़े हैं आप
मेहरबान
क़द्रदान हैं या नहीं
समय बताएगा
पर यह राम खैराती अपनी कविता
ज़रूर सुनाएगा

अजी इतने लोग
एक साथ
मिलते कहाँ हैं
उस पर भी सुनने को तैयार?
बिलीव नहीं होता सरकार
तिस पर भी कविता?
भई वाह!!!

बेहतर है ढाई मन अनाज ढोना
बड़ा ही मुश्किल है कवि होना
अब क्या बैठूँ लेकर रोना
अच्छा था न होना

भेजने के बाद निमंत्रण पत्र
एस एम एस भी पड़ते हैं भेजने बल्क में
अजब रिवाज चला है अपने मुल्क में
फिर फोन रिंगटोनियाने पड़ते हैं
उसके बाद भी ईमेल करने के लिए
बाज़ार में बिना काफी के कैफे की ओर
कदम बढ़ाने पड़ते हैं

आपके पास तो होगा लैपटॉप
भाई कनटोप
बचा है बस अपने पास
दादा के जमाने का
सुनने का न सुनाने का

तो फिर उसके बाद
करवाना पड़ता है बुक हाल
सजाना पड़ता है मंच
महंगा मिलता है गुलदस्तों का भी बंच

होने के लिए वाहवाही से मालामाल
खिलाना पड़ता है तर माल
नहीं तो नाश्ते के साथ चाय
वरना
यह भी कोई फंक्शन था साला
बाय-बाय

दो-एक दोस्त बुलाने पड़ते हैं
जो आपके कसीदे कढ़ते हैं
जमाने भर को लेकर कमबख्त
कवि की सूक्ष्म दृष्टि का गुण-दोष
आपके माथे मढ़ते हैं
नुक्ते में चीनी मिलकर पेश करते हैं
विशेषज्ञ का भेस धरते हैं
कुछ रुतबा होता है आपका
जिससे वे डरते हैं
मरते न
क्या करते हैं
सलाम करते हैं
नहीं तो होकर शामिल इक्वल ऑपोज़िट धडे में
बखिया उधेड़ आम करते हैं

यह सभी काम
टकराकर जाम करते हैं
रसरंजन नाम करते हैं

और साहब यहीं पर बस नहीं
प्रति एक पुस्तक की देनी पड़ती है सप्रेम
जिसे छपवाने के लिए
कितने प्रेमियों का फंड जमा किया होगा
प्रकाशक का दंड जमा किया होगा

इस सब में
कविता कहीं खो जाती है
इस-उस विमर्श की नारेबाजी हो जाती है
बेचारी-सी
हालात की मारी-मारी-सी
ग़लतफहमी में फंसी
मॉडर्न भारतीय नारी-सी

कविता
जो थी कभी
प्यारी-सी
ज़ुल्म-ओ-सितम के खिलाफ आवाज़
करारी-सी
कबीर की झीनी-झीनी बीनी चदरिया-सी
ओढा जाता रहा जतन से जिसे

तो हुज़ूर
साधुवाद
आपको एकत्र होने पर

दड़बों में घुसे रहते हो
किस दैवीय शक्ति से
खिंचे चले आए
भले आए

तो साहब
इतने पचड़े कौन उठाए
कवि हूँ खैराती
हर बार आऊँगा
मौका मिलते ही
अपनी कविता ज़रूर सुनाऊँगा
बड़े हैं आप
मेहरबान   
साहेबान

            विजय सिंह
            04 सितंबर 2011

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