शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

 रूप कला पिक्चर्स के बैनर तले बनी, 1958 में आई राजकपूर और महमूद की फ़िल्म परवरिश में महमूद साहब अँडर-यूटिलाइज़्ड हैं। फ़िल्म की नामावली में भी उनका नाम छठे नंबर पर है। सागर उस्मानी लिखित इस फिल्म में माला सिन्हा और ललिता पवार प्रभावित करती हैं।


'परवरिश' (1958 वाली) के हसरत जयपुरी द्वारा लिखित और दत्ताराम द्वारा संगीतबद्ध गाने अच्छे हैं, 'मस्ती भरा है समाँ', और 'आँसूं भरी हैं ये जीवन की राहें' तो आज भी सुनने को मिलते हैं। पर 'मामा ओ मामा' और लता की आवाज़ में माला सिन्हा पर फ़िल्माया वो सोलो गीत तो ज़िक्र-ए-ख़ास होना चाहिए हालांकि मैं ख़ुद उसके बोल भूल गया अभी। हाँ याद आया - 'लुटी ज़िंदगी और ग़म मुस्कुराए, तेरे इस जहाँ से हम बाज़ आए'।

फिल्म की कहानी शुरू में ही आपको जकड़ लेती है पर धीरे-धीरे आप निश्चिंत-से होकर फ़िल्म देखने लगते हैं क्योंकि निर्देशक एस बैनर्जी की दिलचस्पी इसे रहस्य-रोमांच वाली फ़िल्म बनाने में है ही नहीं। यही कारण है कि माला सिन्हा का शराब पीने के नाटक वाला मामला जहाँ बिगड़कर अपने जलाल पर पहुँचना चाहिए था वहीं जाकर वह ईज़ीली सॉर्ट आउट हो जाता है (और सच्ची बोलूँ तो मज़ा ख़राब हो जाता है)।
फि़ल्म देखते हुए थोड़ी देर में आपको अंदाज़ा हो जाता है कि फलां एक्टर कैसे-कैसे एक्सप्रेशन देगा; क्या-क्या रिएक्शन देगा और फ़िल्म के दृश्य किस-किस लोकेशन पर हैं। जैसे ही यह एहसास हो, फ़िल्म देखना छोड़कर बस सुनना शुरू कर सकते है और अपना सफ़र भी जारी रख सकते हैं।

यह जो फ़िल्म सुनने का कॉन्सेप्ट है, मैंने रेडियो की वजह से भी अपनाया। अब एक ख़बरिया चैनल के तौर पर घिसटने को मजबूर कर दिये गए दिल्ली के मशहूर रेडियो चैनल एआईआर एफ़ एम गोल्ड 100.1 (जो कभी 106.4 था) मेगाहर्ट्ज़ पर रेडियो मैटिनी शो में फिल्म की कहानी सुनाई जाती थी। बचपन में जब फ़िल्म देखना एक ख्वाब जैसा होता था, तो फि़ल्में देख चुके अपने दोस्तों और बड़ों से भी फिल्मों की कहानी सुनने में मज़ा आता था। 'शोले' मैंने देखने से पहले सुनी थी।

पिछले दिनों मैंने फिल्म 'इजाज़त' सुनी। केवल उसका लास्ट सीन देखा। और उस अंतिम दृश्य में नसीर साहब ने जो ग़ज़ब अभिनय किया है, उसे सुनना नहीं देखना ही ज़रूरी था। जब शशि कपूर और रेखा को जाते हुए वे देखते हैं तो उनके चेहरे पर जो भाव हैं उन्हें वर्णन कर पाना मुश्किल है। आपने देखे ही होंगे। अगर नहीं, तो देख लीजिए।

बैक टू 1958 वाली 'परवरिश'।

यह मीनू कत्रक जो गाने और पार्श्व संगीत रेकॉर्ड करते हैं, लगता है हर फिल्म में इन्होंने काम किया है। गायक शैलेंद्र ने भी अपने एक इंटरव्यू में इनका ज़िक्र किया था। उन्होंने शैलेंद्र को काम दिलवाया था।

'परवरिश' में परवरिश होते हुए कहीं भी नहीं दिखाई गई। एकाध दृश्य छोड़कर सीधे बच्चों को बड़ा दिखा दिया।

फ़िल्म एक बड़ा मैसेज देती है कि सबके ख़ून का रंग लाल ही है और इसका किसी वंश, ख़ानदान, जाति, धर्म, लिंग, क़बीले अथवा राष्ट्रीयता से कुछ लेना-देना नहीं है। ज़ात-पात, ऊँचे ख़ानदान, इत्यादि सब बकवास हैं।

मैसेज अच्छा है। यह फ़िल्म इल्म इतना तो देने में सफल हो ही जाती है।

5 November 2020


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