बुधवार, 22 दिसंबर 2021

22 December 2019

 (पता नहीं लोग फोटोग्राफ को छायाचित्र क्यों कहते हैं, शायद इसके पीछे 'संसार माया है' नामक दर्शन होगा। फिलहाल मैं फोटोग्राफ को प्रकाशचित्र कहना चाहूँगा, बट दिस पोस्ट इज़ अबाउट समथिंग एल्स)


चेन्नै विमानतल पर बाहर आते हुए नटराज की प्रतिमा दीखते ही मैं स्वयं को आत्मिक सौंदर्यानुभूति में निमग्न पा रहा था।


पैठने को ही था मैं कि अचानक मुझ अकिंचन को श्रद्धा के क्षीरसागर से बाहर खींचकर डोलायमान भवसागर में अवस्थित कर दिया स्वार्थियों ने।


कुछ सहकर्मी नटराज प्रतिमा के साथ प्रकाशचित्र खिंचवाना चाह रहे थे। तो मेरे हाथ में अदृश्य शाश्वत जपमाल के स्थान पर स्थूल क्षणभंगुर मोबाइल पकड़ा दिया गया और मेरा फोकस बदल गया।


मेरे हृदय में सदा से निवास करते आए नटराज की पुनराच्छादित छवि किसी तरह सहेजता मैं हवाई अड्डे से बाहर आया लेकिन बाहर आते ही संसार की मोहमाया का कोलाज मन के तानेबाने में पुन: उभरने लगा।


तीन-दिवसीय नाट्यशास्त्र उत्सव की अंतिम संध्या में समापन-संबोधन के लिये सोनल मानसिंह जी आमंत्रित थीं। उन परम् विदूषी को सुनते हुए नटराज की छवि अपनी भव्यता के साथ मेरे हृदयपटल पर पुन: उत्कीर्ण होने लगी।


सोनल जी ने जो कुछ कहा जस-का-तस तो याद नहीं, किंतु जो मुझे समझ आया वह यह था कि नटराज के प्रथम पग में ही तीनों लोक नप गए और दूसरा पग धरने के लिए कोई स्थान न मिलने के कारण दूसरा पग उठा ही रह गया।


यह सुनकर एक भव्य विराटता का आभास मुझे हुआ। इस विराटता से भय और भक्ति दोनों भाव उत्पन्न हुए मुझ निर्लज्ज के मन में।


भय कितना था और भक्ति कितनी इसकी ठीक-ठीक नापतौल कर न पाया, संभवतः इसलिए क्योंकि यह अंतस् में सूक्ष्म जगत् के झंझावाती समुद्र में आते-जाते भाव थे। स्थायी भाव तो शांत सरोवर में ही संभव है जब ध्यानावस्था में बैठता है साधक।


यह साधक किसी गुफा या हिमालय की कंदरा में बैठने वाला पापुलर परसेप्शन वाला साधक नहीं, जो कहने को तो संन्यास धारण करता हो किंतु रीसेटल हो जाता हो मठेंद्र बनकर।


इस संघर्षशील संसार में अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करते हुए, बुद्ध होने की ओर अग्रसर साधक की बात हो रही है यहाँ।


उत्सव समापन के अगले दिन दोपहर के बाद मैं निकल पड़ा एक-दिवसीय पुदुच्चेरी दौरे के लिए जो कि मेरा पूर्वनिर्धारित निजी कार्यक्रम था।


मुझे बताया गया चिदंबरम् पुदुच्चेरी से कोई एक घंटे के सफ़र जितना ही दूर है। सो अपन वहाँ से चल पड़े सीधे चिदंबरम् के दर्शनार्थ।


मुझे बताया गया कि पंचभूतों (वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, आकाश) में निवास करने वाले महादेव, आद्य गुरू शंकर पिता यहाँ अर्थात् चिदंबरम् में आकाश रूप में, नटराज रूप में विद्यमान हैं। 


यह सुनकर एक पल को मैं चकित रह गया। चेन्नई विमानतल पर नटराज मूर्ति के दर्शन से लेकर कलाक्षेत्र  में सोनल जी के संबोधन तक, सब घटनाएँ अब मुझे संकेत प्रतीत हुई भगवान शिव के इस रूप के दर्शन निमित्त।


जी चाहा कि कहूँ - 'मुझे पिता शिव-शंकर ने बुलाया है'। किंतु मैं कह न सका। 


जब से ‘मुझे माँ गंगा ने बुलाया है’ नामक वक्रोक्ति सुनी है तब से बहुत से शब्दों और वाक्यों - जिनमें से कईयों पर से पहले ही उठा हुआ था, भरोसा उठ गया है जैसे, संविधान का पालन, मैं देश नहीं बिकने दूँगा, देशभक्ति, बहुत हुआ नारी पर वार, न्यायपालिका की निष्पक्षता, आदि। राम समेत सभी श्रद्धा प्रतीक साम्प्रदायिक सत्ता की भेंट चढ़ चुके हैं। अगर कोई हर हर महादेव का उच्चार करता है तो सुनने वाले उसमें कुछ और ही सुन लेते हैं और ऐसे लोगों को पुदुच्चेरी से वणक्कम करना पड़ता है। 


आंगिकम् भुवनम यस्य

वाचिकं सर्व वाङ्ग्मयम

आहार्यं चन्द्र ताराधि

तं नुमः (वन्दे) सात्विकं शिवम्


जब से उपरोक्त शिव-स्तुति को सुना-जाना था, आराध्य शिव के इस रूप के दर्शनों की इच्छा प्रगाढ़ होती गई थी। 


किंतु मुझ अन्जान को यह न पता था कि वे इस स्वरूप में चिदंबरम् में विद्यमान हैं। 

और चिदंबरम् पुदुच्चेरी से मात्र एक घंटे की दूरी पर है 

और जब से चेन्नई उतरा हूँ वे किसी-न-किसी संदर्भ द्वारा अपने भाव से मुझको आलोकित करते आ रहे हैं, कि।


मंदिर के विशाल प्रांगण में प्रवेश करते हुए मेरा भयशून्य चित्त वंदन-ध्वनि से तरंगित हो रहा था। 


विस्तीर्ण प्राचीरें, अट्टालिकाएँ, प्रासाद मुझमें एक आश्वस्ति का भाव उत्पन्न कर रहे थे। भवन निर्माण की अनुपम कला का विराट उदाहरण मेरे सम्मुख था। 


मंदिर में अंदर जाते हुए मन में प्रभु दर्शनों की उत्कंठा बढ़ती जा रही थी। और वह क्षण आया जब मैं मुख्य मंदिर के ठीक सामने था। भगवान जिस गर्भ गृह में सुशोभित थे। उसके बाहर बरामदा था और यह सब एक बड़े लगभग पाँच फुट ऊँचे चबूतरे पर था। चबूतरे के बाहर परिक्रमा मार्ग था और इसके इस पार नटराज प्रभु की मूर्ति के ठीक सामने हम दर्शनों की अभिलाषा में हाथ जोड़े अनारक्षित सर्वहारा जन के समूह में सम्मिलित हो गए। 


हमने देखा कि कुछ लोगों को चबूतरे (कनकसभा) पर जाने की आज्ञा है। पूछने पर मालूम हुआ कि कुछ राशि देकर (रु. 100/-  प्रति व्यक्ति) हम लोग भी कनकसभा में जाने के अधिकारी हो जाएँगे।


मुझे झटका-सा लगा। अपने प्रभु के दर्शन के लिए मुझे पैसा देना पड़ेगा!! चलिए मैं तो दे भी दूँगा और मेरे जैसे कई और भी होंगे। पर जो नहीं दे सकते उनका क्या!! 


क्या वे ईश्वर के दर्शनों के अधिकारी नहीं!! 


बात छोटी-सी ही थी पर जैसे मुझे किसी 'सत्य' का साक्षात्कार करवा रही थी। 


दूध जैसा झक्क चिट्टा मन था मेरा उनकी आलोकित छवि को समो लेने के लिए।


महादेव के दर्शनों को उतावले थे नैन पियासे। 


किंतु पैसे की बात सुनते ही जैसे दूध में किसी ने चायपत्ती डाल दी हो। चाहे थोड़ी-सी ही सही, पर दूध का रंग जैसे जाता रहा और बेशक़ वह अब भी दूध था बिना पानी मिला पर दही या मक्खन अब उसमें से न निकल सकता था। 


इस पैसे देने के मामले ने दो काम किए - 

पहला :  मुझे दर्शन का अधिकारी केवल इस बिना पर बना दिया गया कि आइ कैन अफोर्ड इट मॉनिटेरिली। 


दूसरा :  एक फीजिकल या लिटल जियोग्राफिकल दूरी पर भावभीनी श्रद्धा में हाथ जोड़े खड़े भक्तों जिनमें बच्चे, बड़े, बूढ़े, पुरुष-स्रियाँ, सम्पन्न-विपन्न सभी शामिल थे, का जो सरोवर बन रहा था उससे मैं दूर हो गया। कनकसभा में एक ऊँचाई पर खड़ा उन भक्तों को इग्नोरिंगली मैं देख रहा था और न चाहते हुए भी यह भाव मुझमें आ रहा था कि मैं उनसे अलग हूँ, शायद श्रेष्ठ हूँ, बिकॉज़ आइ कैन पे और रादर चोज़न टू पे। 


अब मन प्रैक्टिकैलिटी की ओर उन्मुख हुआ और मेरे 'श्याम मन' को ज्ञान देने लगा कि अरे मूर्ख जब पइसे दिए हैं तो आगे बढ़कर दर्शन कर। किंतु सौ रुपये दे देने के बाद भी हमारी पहुँच गर्भगृह के द्वार से कुछ बाहर तक ही थी। यानी इत्ते पैसे में इत्ता ही मिलता है। 


गर्भगृह के अंदर तो केवल पुजारी जाते हैं। आरक्षण इसी का नाम है।


मुख्य मूर्ति के कक्ष में आधुनिक आविष्कृत विद्युत आपूर्ति से चमत्कृत बल्ब अथवा ट्यूबलाइट नामक उपकरण अनुपस्थित थे और दीये के हिलजुल प्रकाश में किंचित् दृश्यमान मूर्ति के दर्शन बहुत कठिनाई से हो पा रहे थे। नटराज महाराज को आभूषण और फूलमाला से कुछ इस प्रकार अलंकृत किया गया था कि मन में बसी मूरत और सामने खड़ी प्रतिमा का मिलान करना बहुत कठिन लग रहा था। 


इतनी दूर से आकर भी, ईश्वर के इतने निकट पहुँचकर भी आस निरास भयी!! उनके उठे हुए पग को देखने का प्रयास निष्फल रहा क्योंकि दीये का प्रकाश आभास मात्र ही उत्पन्न कर पा रहा था। 


एक बात अच्छी हुई, कि विश्व में केवल यहीं स्फटिक शिवलिंग के दर्शन होते हैं और मैं जिस समय कनकसभा में प्रविष्ट हुआ स्फटिक शिवलिंग पर दूध, दही, घी, चावल इत्यादि अर्पित किए जा रहे थे। और कुछ ही समय पश्चात शिवलिंग को एक स्वर्ण मंजूषा में रख गर्भगृह में ले जाया गया। अब हमें कनकसभा से प्रस्थान करने की आज्ञा दी गई जिसका हमने पालन किया और नीचे उतरकर परिक्रमा-उपरांत नागरिक समूह में सम्मिलित हो गए। आरती के स्वरों, घंटानाद और समवेत गान से मंदिर प्रांगण गुँजायमान हो उठा और नटराज भगवान के जो दर्शन उतने सहज 'अप क्लोज़' नहीं थे, उस 'डिस्टंस' या दूरी से कुछ अधिक संभव जान पड़े। 


मुझे याद आया इसी वर्ष अप्रैल में मथुरा में द्वारकाधीश मंदिर में भी दर्शनों का कितना लोचा हुआ था। भगवान की मूर्ति के ठीक सामने आकर दर्शन करने के लिए गलियारा बंद था, बस दोनों तरफ़ की रेलिंग से उचक-उचककर दर्शन कर पाया था मैं भीड़ के धक्के झेलता हुआ उचक्का। 


मैं तो चलो नालायक था। दर्शनों का अधिकारी नहीं था। लेकिन दूर-दूर से आए और लोग भी थे। उन्हें तो दर्शन देते प्रभु। 


मंदिर में एक स्थान से आगे जाने के लिए नक़द चढ़ावा क्यों देना पड़ता है?  यह पैसा सरकार लेती है या कोई और? इसका किया क्या जाता है? लोग तो वैसे भी (इस पैसे के अतिरिक्त) दान-दक्षिणा देते ही हैं। यह किस किस्म की दादागिरी है? ऐसे प्रश्नों को अनुत्तरित छोड़ना ही उचित लगा मुझे।  


क़ैद में हैं भगवान!!

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