शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

अब हुआ क्या कि मेरे मन में बात आई कि एक जींस की पैंट और दो जोड़ी राष्ट्रीय पोशाकें ख़रीद ली जाएँ। एक्चुअली दिल्ली में रहते हुए समय तो मिलता नहीं। प्रोमिला भी वर्किंग वुमन होने के नाते ज़्यादा कुछ कर नहीं पाती। और मेरी बनियान वग़ैरह अभी भी मेरी मम्मी ख़रीद के लाती हैं।


आजकल टूअर पर इतना रहना पड़ रहा है कि शिमला से आके जब मैं एक-दो दिनों में ही सिल्चर और वहाँ से गुवाहाटी गया तो रवि तनेजा वीर जी ने मुझसे पूछ ही लिया, 'यार इतने कपड़े थे भी तेरे पास (कि तू एक शहर से दूसरे में बिना रुके छलांगे मारता फिरे)!!!??'


टूअर पर रहते हुए अपने कपड़े ख़ुद धो लेने की आदत अब मेरे घर में रहते हुए भी कुछ-कुछ काम में आने लगी है। 


लेकिन कपड़ा प्रेस करना मेरे लिए जी का जंजाल है। यहाँ की सिलवट समेटता हूँ तो वहाँ की मुँह चिढ़ाने लगती है, सो भी ख़ास तौर पर तब जब मैं प्रेस करके शर्ट पहन चुका होता हूँ। पैंट प्रेस करना ज़्यादा आसान है। कई बार होटलों में प्रेस करवानी पड़ती है या लोकल बंदा ढूँढना पड़ता है। लोकल तो मिलता नहीं और समय भी नहीं होता। मजबूरन होटल में प्रेस करवाने पर एक कपड़े के पच्चीस रुपए तक देने पड़ जाते हैं। सोचिए, मुझ जैसा आदमी जो बस का किराया बचाने के लिए दो स्टॉप पैदल चल लेता है, कपड़े प्रेस करवाने के पच्चीस रुपए देते हुए कैसा महसूस करता होगा। 


तो सिर्फ इश्क़ ही ऐसी चीज़ नहीं जिसके बारे में कहा जाए कि नहीं आसां 

कपड़े आयरन करना भी नाको तले लोहे के चने चबाना है 

बस इतना समझ लीजे कि कपड़े को आग के दरिया में डूब के जाना है और ख़ुद को जलने से बचाना है। ख़ैर....


बहुत वर्षों तक कमीज़ें घर पर सिली पहनता रहा और अब मम्मी-डैडी की सेहत ठीक नहीं रहती तो उन्हें मजबूरन मुझे इजाज़त देनी पड़ी कि मैं रेडीमेड कपड़े ख़रीद लिया करूँ। पर ऐसा कुछ भी ख़रीदता हूँ, तो उन्हें दिखाए बिना अपने कमरे में ले जाता हूँ, क्योंकि वो कीमत पूछेंगे और यही कहेंगे कि मैं महंगा ले आया। बाप की आँखों का सामना करने की हिम्मत मेरी तो पड़ती नहीं सो मैं आएं-बाएं करके टाल देता हूँ जब सवाल रेट का उठता है तो। 


शर्ट पैंट इत्यादि ख़रीदने का अपन को यही तरीका सूझा है कि जब टूअर पर हो तो उसी शहर या कस्बे में एक कमीज़ इत्यादि ख़रीद लो। 


यह पोस्ट लिखते समय जो शर्ट मैंने पहन रखी है वो त्रिशूर में ख़रीदी थी और जो जींस की पैंट मैं धोकर डाल आया हूँ वह मैंने शिमला में खरीदी थी। इस पोस्ट को लिखते समय पहनी हुई जींस की पैंट शायद मैंने कनाट प्लेस से खरीदी थी। 


तो यहाँ गुब्बी में सोचा एक जींस की पैंट ख़रीद ली जाए। जींस की पैंट कई दिन चलती है और लोग उसे फैशन या आधुनिकता मानकर आपको अपने पास बैठने देते हैं। आप भी कोन्फिडेंट बने रहते हैं। 


कृपया कोन्फिडेंट की इस्पेलिंग को नज़रअंदाज़ करें। पर नज़रअंदाज़ की स्पेलिंग ठीक है।


तो मैं कपड़े की एक बड़ी सी कस्बाई-एथोस से ओत-प्रोत दुकान में अपने एक स्थानीय साथी के साथ गया। दुकान में सेल्समैन ने कह दिया देखते ही कि मुझे 36 की कमर चलेगी। वैसे मेरा पेट न जाने किस बात की गवाही देने को बाहर को निकला हुआ है जिससे मुझे लगता है कि इस कमबख़्त को तो चालीस की भी न बांध पाए। 


मुझे पैंटें दिखाई गईं सभी तंग मोरी की थीं, और एक जो मेरे टेम्परामेंट के सबसे नजदीक जान पड़ती थी, मैंने चुनकर ट्रायल रूम की ओर रुख किया। एक छोटे-से कैबिन में घुसने के लिए दरवाज़ा खोलते ही मैं हैरान हो गया। दरवाजे के उस पार भी मैं ही खड़ा मिला मुझे। मैं डूइंग माय ओन स्वागत!!! तो गोया इत्ती सी जगह थी कि खड़ा हुआ जा सके। मैंने आदमक़द आईने में ख़ुद से कहा, 'अबे फैब इंडिया में आया ऐ क्या तू जो नखरे दिखा रहा है।' 


आत्मसम्मान की वजह से नहीं बल्कि मेरी अकर्मण्यता के गवाह पेट के निकले होने की वजह से झुकना बड़ा मुश्किल हो चला है मेरे लिए आजकल। और नई पतलून को पहनकर देखने के लिए पुरानी पतलून उतारनी ज़रूरी थी। पतलून उतारने के लिए जूते के तस्में खोलना ज़रूरी था और जूते के फीते खोलने के लिए बैठना या झुकना ज़रूरी था। झुकना हो न पाना था तो मैंने पैर से रिक्वेस्ट की कि खुद ही उठकर पेट की ऊँचाई तक चला आए। यानी मुझे एक पैर पर खड़ा होना था। ज़ाहिर था मैं लड़खड़ाने लगा। सहारा लेने के लिए आदमक़द आईने पर हाथ रखा तो आईना टूटते-टूटते बचा। दरअसल आईना दीवार में चस्पा नहीं किया गया था केवल सहारा लेकर खड़ा कर दिया गया था। आईना टूट जाता तो मेरा भी टूटना तय था। एक जूता उतारा फिर दूसरा। और पैंट उतारकर पहले तो जी भरकर गहरी साँसे लीं और फिर खुद को योकोजुमा पहलवान स्टाइल में आईने की तरफ देखा। 


अब हमने तंग मोरी पैंट में अपनी टांग घुसाने की शुरुआत की। एक जब ठीक-ठाक घुस गई तो दूजी घुसाई और इस सफलता पर गर्व करते हुए एकम-एक बटन लगाने की कोशिश की। काज बहुत संकरा था और बटन को घुसाने में हमारे अंगूठे को नानी याद आ गई। उसके बाद हमने ज़िप ऊपर को खींचने की कोशिश की लेकिन ज़िप सातवें वेतन आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने की मांग पर अड़ गई हो जैसे। 


हमने तौबा की और जींस की पैंट की ज़िप वापिस नीचे करने में काफी मशक्कत के बाद सफलता पा ली। बटन खोलने में तो मुझसे पसीना आ गया। आखिर मैंने सेल्समैन को बुलवाकर उससे बटन खुलवाया। 

24 Dec 2017


जींस की पैंट को वापिस सलीके से उतारना हमारे बस का न था सो ज़ोर लगाके हईसा किया और छिलके या केंचुली की तरह, या फिर स्कूल से लौटे बेचैन बच्चे की तरह हमने उस पैंट को उतार फेंका और वापिस पुरानी जींस में आ गए। इस बार जूते पहनने के लिए झुकने में कुछ कम कष्ट हुआ। इस सब एक्सरसाइज़ में ऐसा लगा गोया ट्रायल रूम से नहीं बल्कि जिम से बाहर निकल रहे हों।


जींस खरीदने गए थे, कच्छा ख़रीद के लौटे।

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