साहित्य कला परिषद् दिल्ली द्वारा 18 से 25 मार्च 2013 के दौरान श्री राम सेंटर में आयोजित भारतेंदु नाट्य उत्सव का समापन सर्किल थियेटर की प्रस्तुति 'सेवेंटींथ जुलाई' के मंचन से हुआ। इस नाटक का निर्देशन बापी बोस ने किया है।
मन में बेहद जिज्ञासा थी इस नाटक को देखने की। इसका आरंभिक प्रदर्शन दिसंबर में हो चुका था, पर तब उसे मैं देख नहीं पाया था। चूंकि इस शीर्षक के किसी नाटक से मैं पहले वाकिफ नहीं था इसलिए मैं बस यह कयास लगा रहा था कि यह किसी सत्रह जुलाई को घटी किसी घटना से सम्बंधित होगा। फिर एक दिन बहावलपुर हाउस, भगवानदास रोड के मुख्य द्वार के पास बाहरी दीवार पर नाटक का होर्डिंग देखा। पीटर पॉल रूबेन की पेंटिंग ‘द रेप ऑफ डाटर ऑफ लूसीप्पस’ के बैकड्रॉप वाले इस होर्डिंग को पढ़कर पता चला कि 'सेवेंटींथ जुलाई' भारत में एक दशक पूर्व वहशियाना ढंग से अंजाम दिये गए नरसंहार में मारे गए बेकसूर लोगों को समर्पित था।
मन में यह शंका उत्पन्न हुई कि कहीं यह नाटक एक नारेबाजी तो नहीं बन जाएगा। लेकिन बापी-दा द्वारा निर्देशित एक अन्य नाटक 'परमपुरुष' दो वर्ष पूर्व (अप्रैल 2011 में) अहमदाबाद में देखा था जिसका सात्विक प्रभाव अभी तक मन में बना हुआ था, और बापी-दा के काम करने की धुन को देखते हुए यह तय था कि प्रस्तुति कुछ विशेष होगी - और वही हुआ भी।
इस नाटक के लेखक ब्रात्य बसु ने यह नाटक उत्पल दत्त के एक नाटक मानुषेर अधिकारे से प्रेरित होकर लिखा है जो स्वयं जॉन वेक्सले के एक नाटक 'दे शैल नॉट डाई’ से अनूदित था। लेकिन ‘सेवेंटींथ जुलाई’ आज का नाटक है, हमारे समय का - हमारे आसपास और कई बार हममें घटता हुआ।
नाटक अपनी शुरुआत से ही सभागार में मौजूद दर्शकों को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। घुप्प अंधेरे में भागती दो लड़कियों की चीख और उनके पीछे पड़े कुछ गुंडों की आवाज़ें। अंधेरे में लड़कियां दर्शकों के बीच से भागती हैं और मंच पर जाकर गुम हो जाती हैं। फिर हाल में अल्ट्रावैलेट रौशनी की जाती है। इस रौशनी में मंच पर प्रकट होता है एक विशालकाय अजगर जो हाल में बैठे दर्शकों की ओर आता है और समूचे हाल में मानों अपनी ज़हरीली साँसें छोडता हुआ, जीभ लपलपाता हुआ इर्द-गिर्द घूमता है। जितनी मेहनत से इसे बनाया गया था उतनी ही मेहनत से इसे आकाश खत्री, अमित कुमार, जीतू नागर, मधुमिता बारिक, अमर शाह और राहुल गाबा ने काले कपड़े पहनकर इसका संचालन भी किया था ताकि अल्ट्रावैलेट रोशनी में केवल अजगर दिखे। दर्शक सांस रोके बैठे हैं। सुरोजित डे द्वारा बनाए गए इस लंबे अजगर के पुतुल को वे मन ही मन सराह भी रहे हैं और अवचेतन में उसका संदेश भी ग्रहण कर रहे हैं। साइक्लोरामा पर एक वीडियो दिखाया जाता है जिसमें एक 3-4 साल का बच्चा बता रहा है के उसके परिवार वालों को कैसे मारा गया। आगे चलकर यह बच्चा कहता है कि बड़ा होकर वह हिंदुओं को मारेगा। प्रश्न पूछने वाले के यह पूछने पर कि ‘मैं भी तो हिन्दू हूँ क्या मुझे भी मार दोगे’ उस बच्चे का सादगी और भोलेपन से कहना कि ‘आप तो मुसलमान हो’ हमारे तथाकथित समावेशी समाज की असलियत उघेड़कर रख देता है।
बलात्कार के एक झूठे केस में फंसे आसिफ मिर्ज़ा और उसके कुछ मुस्लिम साथियों पर मुकद्दमें की सुनवाई को दिखाता यह नाटक आज के भारत की राजनैतिक तस्वीर प्रस्तुत करता है। घटनाएँ और परिस्थितियाँ गुजरात के पंचमहल जिले की एरोल तहसील में घटित होती हैं। इन सबको को आधार बनाकर लिखा गया यह नाटक सांप्रदायिक कट्टरता और आस्था के राजनीतिकरण को नकारता है।
लेकिन यहाँ एक बात मन में उठती है। मान लीजिये कि आपको भारत की राजनैतिक तस्वीर से कुछ लेना-देना नहीं। न ही आपको हिन्दू-मुस्लिम झगड़े से कोई मतलब है। आप तो बस एक अच्छा नाटक देखने आते हैं। ज़ाहिर है आपको पता है कि नाटक है तो कुछ धीर-गंभीर संदेश भी होगा। सो उससे आपको गुरेज नहीं। उसे आप ग्रहण भी करेंगे और सराहेंगे भी। लेकिन साथ ही एक अच्छा नाटक भी तो होना ही चाहिए। इस मानदंड पर अपने आदि-मध्य-अंत के साथ यह नाटक खरा उतरता है। मंच पर होती घटनाओं से आप जुडते जाते हैं और उत्सुकता बरकरार रहती है। दर्शक इसी मुद्दे पर दम साधे बैठे रहते हैं कि आसिफ और उसके दोस्तो को न्याय मिल पाएगा या नहीं। हम सभी आसिफ के प्रति सहानुभूति रखते हैं क्योंकि मुक़द्दमे का क्रूर मज़ाक हमारी आँखों के सामने हो रहा है, विधि-सम्मत प्रक्रिया की धज्जियां हमारे सामने उड़ रही हैं।
मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान भारतीय राजनीति का असल चेहरा सामने आता है जो ऊपर से देखने में हमारे धर्मनिरपेक्ष संविधान के सिद्धांतों के स्वर्णिम फ्रेम में जड़ी नज़र आती है परन्तु सांप्रदायिकता का अजगर जिसे अपने पाश में बुरी तरह जकड़े बैठा है। दुःख की बात यह है कि सभी 'स्टेकहोल्डर्स' अपने-अपने तर्कों से अपनी साम्प्रदायिकता को जायज़ ठहराते हुए दुसरे गिरोह की साम्प्रदायिकता का हवाला देते हैं।
सियासी फायदा लेने के लिए सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काकर लोगों को कैसे गोलबंद किया जाता है इसे बिना लाग लपेट के बिल्कुल बेबाक दिखाया गया है। दो वकीलों पंकज पारिख और राकेश चटर्जी की आपसी बहस के माध्यम से वैचारिक टकराव को भी दर्शाया गया है। लेकिन साथ ही विवेकपूर्ण, न्यायसंगत सचेतन आवाजें कभी शांत नहीं होंगी यह भी सन्देश इस नाटक के द्वारा दिया गया है।
मंच पर एक पुलिस स्टेशन, अदालत और एक ड्राइंग रूम के दृश्य हैं जिनके सेट लगभग हर समय मंच पर मौजूद रहते हैं। ऐसा लगता है मंच छोटा पड़ गया है पर धीरे-धीरे अदालत ही मुख्य हो जाती है। प्रकाश अभिकल्पन के लिए तो बापी-दा जाने ही जाते हैं। एक मल्टी मीडिया प्रस्तुति होते हुए भी कोई गिमिक्स नहीं बल्कि विशुद्ध नाटक ही उभरकर सामने आता है जिसके केंद्र में अभिनेता है, न कि डिज़ाइन।
तीन घंटे के नाटक को अभिनेताओं ने अपनी पूरी प्रतिभा और ऊर्जा से इस कामयाबी के साथ अंजाम दिया कि रात 8 बजे घड़ी देखने लगती और घर के लिए खिसकने की आदत वाली दिल्ली की आडियन्स पूरे नाटक के दौरान बैठी रही – मध्यांतर के बाद भी हाल सहृदय दर्शकों से भरा रहा। आसिफ मिर्ज़ा के किरदार में प्रकाश चंदर, नाथीबेन और चिंताबेन के किरदारों में क्रमशः गौरी देवल और मधुमिता बारीक, पंकज पारिख के किरदार में स्वप्न विश्वास और राकेश चटर्जी के रोल में दिगंबर प्रसाद या फिर भीम भाई रावी के चरित्र में मदन डोगरा और आर एस एस के काडर गोविंद मोदी (जो एक होटल का वेटर भी है) के चरित्र में आकाश खत्री – सभी ने जानदार अभिनय किया। बंगला लहजे वाले अभिनेताओं ने गुजरात की सेटिंग में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। दरअसल नाटक की विषयवस्तु पूरे देश को छूती है इसलिए यह अखरता नहीं। अब जबकि ज़्यादातर सोलो या फिर कम पात्रों वाले नाटक ढूँढे और खेले जा रहे हैं, बापी-दा ने अपने सीमित संसाधनों में एक समय में लगभग 25-30 लोगों की टीम के साथ काम किया है और बड़े सेट और सामग्रियों वाले इन नाटकों को प्रस्तुत किया है।
इस नाटक में घटनाओं का इतना बेबाक निर्भीक चित्रण पूरे रंगमंचीय कौशल और दक्षता के साथ निभाना बापी-दा के ही बूते की बात थी। हिन्दू-मुसलमान की बहस जो हमारे घरों में घुसी हुई है उसे जस-का-तस पेश करना और राजनीतिक नेताओं के नाम खुलेआम लेना एक बेहद जोखिम भरी कोशिश थी। नाटक मानों तलवार की धार पर चलता है।
‘सेवेंटींथ जुलाई’ मानवता के दृष्टिकोण के साथ कुछ ऐसे सवाल पूछता है जिन्हें किसी मंच से पूछने से बहुसंख्यक लोग बचते आए हैं, जैसे – क्या इस देश की हर समस्या के लिए मुसलमान जिम्मेदार हैं? क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र नहीं है? हिन्दुत्व विचारधारा वाले वकील द्वारा बार-बार मुसलमानों के लिए पाकिस्तानी शब्द का सम्बोधन और अदालत में मौजूद दर्शकों द्वारा ऐसे संबोधनों पर तालियाँ पीटना एक तथाकथित पॉपुलर सोच को प्रगट करता है और इस सोच के लिए हम कहीं-न-कहीं शर्मिंदा भी होते है। ज़ाहिर है कि धर्म अलग होने से हमारी समस्याएँ अलग नहीं हो गई हैं और असल जड़ कहीं और है। पर इतनी सीधी-सी बात किसी को समझ क्यों नहीं आती?
श्री राम सेंटर में इमारत के मुख्य फोयर में इस नाटक से संबन्धित एक इंस्टलेशन भी लगाई थी जिसे दुर्भाग्यवश मैं देख नहीं पाया और वहाँ कुछ रिकॉर्ड किए गए इंटरव्यू भी सुने जा सकते थे जो गुजरात दंगों के पीड़ित मुस्लिम भाईचारे के सदस्यों के थे।
‘सेवेंटींथ जुलाई’ कुल मिलाकर यही कहता है कि जितनी जल्दी हो सके और जितनी दृढ़ इच्छाशक्ति से हो सके फिरकापरस्ती के अजगर से छुटकारा पाया जाना चाहिए। हमें मिलकर ऐसे विकास की ओर देखना होगा जो सबके लिए हो जिसमें सबके लिए जगह हो। बेशर्म राजनैतिक हितों के खेल के इस दौर में किसी कृति से और क्या आशा की जा सकती है?
20 April 2013
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