गुरुवार, 20 दिसंबर 2018

Draft long overdue, so publishing it as it is: 

इस शहर में  क्यों गया मैं
क्यों करता हूँ जद्दोजहद 
होने के लिए इसका हिस्सा  
क्यों डरता हूँ इस किले में आकर  

चील-कौओं के शहर के दिन फिरने की आस कब तक लगाऊं 
चला जाऊं इसे छोड़कर 

गीदड़ों के क़िले के उजड़ने और ध्वस्त होने का न करूं इंतज़ार 

चला जाऊँ छोडकर

अनंत अँधेरी कालरात्रियों में आंखेँ फाड़कर चहुं ओर बियाबाँ में सहमे कबूतर की तरह आस की दृष्टि से कब तक टुकुर-टुकुर ताकता रहूँ बिना तेल वाले दीपक की मद्धम पड़ चुकी ज्योति को
और क्यों सोचूँ कि दिन बहुरेंगे 
कि रंग होगा सबका साथ संग होगा दुनिया हमारी का एक नया ढंग होगा 
चला जाऊं छोड़कर 

छोड़कर चला जाऊं 
इस श्मशान को 
अपनी अधजली लाश अपने ही कन्धों पर उठाए अपने पूरी तरह कटने से बचे रह गए झुके सिर  पर गंगा के जल में डूबकर और भारी हो चुकी पापों की गठड़ी उठाए लडखडाता लहूलुहान मैं 
जीवन की अनसुलझी अबूझ पहेलियों को हल करने में मुर्दों से हार मानता मैं आखिर कितनी बार छला जाऊं अबकी बार चला ही जाऊं जी चाहता है.

बिना प्रयत्न सब हो जाएगा ठीक 


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें