शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

एक न एक दिन सब यहीं छोड़ जाना है। यह तो फिर भी होटल का कमरा है।
इंसानी फितरत ही है जहाँ रुके वहाँ अपना घर बना लेने की, चाहे ट्रेन में मिली बर्थ ही क्यों न हो।
मुझे लगता है, क़ैदी भी रिहा होने से पहले, या फांसी के लिए लेकर जाए जाने से पहले, अपनी कोठरी को मुड़कर ज़रूर देखता होगा जो जैसी भी थी, घर थी।
जिस दिन आपने होटल का कमरा छोड़ना हो, उस दिन सुबह से ही कमरे से अलग वाइब्रेशन आने लगती है। एक उजाड़ जैसा महसूस होने लगता है।
कमरे से निकलने से पहले आख़िरी बार बिना ज़रूरत के, बाथरूम यूज़ कर लेने को जी सा करने लगता है।
बाहर निकलने से पहले एक बार एक नज़र पूरे कमरे और अपने बेड पर डालता हूँ और लगता है जैसे मेरे जाने को कमरा भी महसूस कर रहा है।
मैं उससे कहना चाहता हूँ दोस्त मैं फिर आऊँगा, मगर ऐसा कह नहीं पाता। 20 से 29 अप्रैल 2011 में अहमदाबाद के जिस होटल में ठहरा था, उसका नाम भी याद नहीं हालांकि लोकेशन याद है, पर ड्राइवर का कहना है उधर बहुत जाम होता है।
कमरा भी इस बात को समझता है, इसलिए कोई ज़िद या निवेदन या आग्रह नहीं है उसकी उदासी में।
अभी-अभी इस होटल में अपना आख़िरी लंच लिया है, मगर खाना बड़ी मुश्किल से गले से नीचे उतरा है। हालांकि सब कुछ वही और वैसा ही है, जैसा रोज़ होता है।
29 September 2018

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