शनिवार, 12 दिसंबर 2020

 नॉरमली अपनी फोटो लगाता नहीं मैं फेसबुक पर अपनी पोस्टों के साथ। पर आज दो-दो लगा रखी हैं। थोड़े-बहुत अंतर के साथ दोनों लगभग एक जैसी हैं। चाहता तो था मैं सिर्फ़ हिमाचली टोपी की फोटो लगाना, पर बिना सिर के कैसे दिखाऊँ इस कोशिश में दो-तीन फोटो खींची भी पर मज़ा न आया। सोचा जब पहनकर ही दिखानी है तो सिर के साथ थोबड़ा भी आ ही जाए तो कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए।

तो मेरी इस पोस्ट की वजह यह हिमाचली टोपी है जिसे मैंने कुछ और टोपियों के साथ नवंबर 2018 में शिमला से ख़रीदा था। आज इस ऋतु में पहली बार पहनकर जब मैं लुटियंस की दिल्ली में अशोक रोड पर टहलते और तमाशा-ए-अहले करम देखने की नाकाम कोशिश में चलता हुआ मंडी हाउस की जानिब आते हुए जनपथ के गोलचक्कर से ज़रा पहले पहुँचा ही था कि मेरे पीछे से आते एक ऑटो वाले ने बेसाख़्ता मेरे पास पहुँचकर कुछ कहा।
मुझे लगा कि या तो वह मुझे कोई संभावनाओं से लबरेज़ कोई सवारी समझ रहा है या दिल्ली के इस हिस्से में अक्सर न चलने के कारण कोई रास्ता, या कोठी नंबर, इत्यादि पूछ रहा है।
अपने कानों में 70 रुपये वाला (माफ करना) चाइनीज़ हेडफोन ठूँसे हुए मैं आकाशवाणी की ख़बरें सुनता हुआ जो दिख जाए उसे देख लेने की हसरत लिये बिना कहीं पहुँचने की जल्दबाज़ी के मंथर गति से कदमताल कर रहा था।
चूंकि मैंने उसे देख लिया था और नोटिस कर लिया था कि वह कुछ कह रहा है, अतः लाज़मी था कि मैं रुकता, अपनी दुनिया से बाहर आता और उस ऑटो वाले की दुनिया और अपनी दुनिया के बीच की द्विपक्षीय किंतु सार्वजनिक दुनिया में उससे संवाद करता और पूछता - हाँ भाई क्या है।
मैंने अपने मोबाइल को ऑन किया। उसका लॉक खोला। आकाशवाणी के डाउनलोडेड ऐप में पहुँचकर उसमें चल रहे समाचार बुलेटिन को रोकने के लिये पॉज़ का बटन दबाया और फिर कानों में पैबस्त किसी चाइनीज़ कंपनी के 70 रुपये वाले ईयरफोन, जिसके माध्यम से मैं सुन रहा था कि पूर्वी लद्दाख में भारत-चीन सरहदी इलाक़े में बने तनाव और वर्तमान स्थिति पर हमारे विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने क्या कहा है, को अपने कानों के कुछ देर के लिये जुदा करने के बाद मैंने उस ऑटो वाले से प्रश्नवाचक स्वर में कहा - जी कहिए क्या बात है?
उसने हिमाचली में कहा (जो मुझे समझ आती है पर बोलने का अभ्यास नहीं है हालाँकि प्रोमिला जब अच्छे मूड में होती है तो मुझसे हिमाचली में ही बात करती है) कि आप कहीं जा रहे हैं तो छोड़ दूँ।
अजनबियों को अपना से लगने वाले और अपनों को अजनबी से लगने वाले इस शहर-ए-दिल्ली में अचानक आपके पास आकर कोई अनजान आदमी जब इस तरह का प्रपोज़ल दे तो उसे अक्सर इन-डीसेंट माना जाता है।
लेकिन मेरे अंदर जो देहाती आदमी है (हालांकि मैं पैदा हुआ और पला बढ़ा दिल्ली में ही पर न जाने क्यों मुझे लगता है कि मैं कोई गँवई थाट का राग हूँ, जिसे अभी तक गाया नहीं गया) उसने बात को एकदम समझ लिया। मैंने हँसते हुए कहा - इरादा तो मेरा पैदल जाने का था, किंतु अब आप आकर रुके हैं तो चलिए मंडी हाउस के गोलचक्कर तक छोड़ दीजिए। इस पर भी ऑटो वाले ने पूछा कि क्या मुझे हिमाचल भवन जाना है।
मैंने अपनी आदत के मुताबिक उससे पूछा तो उसने बताया कि वह हमीरपुर का है। उसने कहा आप देखने में हिमाचली लगते हो और आपकी टोपी देखकर मैंने ऑटो रोक लिया सोचा आप मेरे पहाड़ी भाई हो तो चलो आपको कहीं छोड़ देता हूँ। उसने काम्प्लीमेंट दिया - सर जी मैं हिमाचली हूँ पर आप तो मुझसे भी ज़्यादा हिमाचली लग रहे हो। मैंने इस तारीफ़ को मन-ही-मन स्वीकारते हुए अपने आपसे कहा आजकल होने का नहीं, लगने का ही ज़माना है।
मुझे मंडी हाउस पर उतारकर सकुचाते हुए वाजिब राशि बोहनी के नाम पर स्वीकार कर वह ऑटोवाला वापिस चला गया।
मगर उस ऑटो वाले से मुलाक़ात से कुछ पहले एक और घटना हुई थी।
पटेल चौक पर गोल डाकख़ाने के सामनेवाले चौड़े और लुटियाना-भव्य खुलेपन से सुसज्जित फुटपाथ पर चलते हुए मुझ को सामने से एक व्यक्ति आता दिखा। वह कोई पच्चीस से तीस बरस के बीच का कोई नौजवान था मगर लुटा-पिटा। इस कोहरेदार सुबह और धीरे-धीरे बढ़ती सर्दी में वह शख्स फटेहाल तो नहीं पर अपने अल्प वस्त्रों में थोड़ा-बहुत कांपता चलता हुआ, शायद अपने भीतर जलता हुआ फिर भी बेखबर और चिंताओं से भरी किसी अन्य दुनिया में दाखिल चल रहा था। उसने मेरी ओर देखकर भी नहीं देखा, जैसे आमतौर पर सड़क पर चलते हुए हम करते हैं। किंतु मैं उसकी ओर देखकर उसे अनदेखा न कर पाया। मन में ख़याल आया क्या मैं उसके लिये कुछ कर सकता हूँ? शायद आपने भी महसूस किया होगा कि आजकल ऐसे दिखने वाले लोगों की संख्या अचानक से बहुत बढ़ गई है।
तो मुझे लगा कि शायद भूख लगी हो उसे तो चाय और एक ब्रेड पकौड़ा उसे ऑफ़र करूँ। पर यह हो कैसे? उससे सीधे-सीधे तो पूछा नहीं जा सकता था। हारा हुआ-सा वह नौजवान अपनी नियति से जूझ रहा था। पर ऐसा भी नहीं था कि उसने मेरी ओर सहायता की याचना-भरी दृष्टि से एक बार भी देखा हो।
तो पहल मुझे ही करनी थी। मैं उसके रास्ते में आया और मुझे अपनी ओर आता देखकर उस व्यक्ति में एक असहजता और अपनी ख़याली दुनिया से बाहर आने की जद्दोजहद नज़र आई। वह व्यक्ति मेरे स्वागत को तैयार न था कि मुझसे पूछे जी बताएँ मैं आपके लिये क्या कर सकता हूँ। पर यकायक मेरे सामने पड़ जाने पर उसका मुझसे कोई छुटकारा भी न था।
उसने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा। मैंने कहा - यहाँ आसपास कहीं ब्रेडपकौड़ा बनता है क्या?
उसने असंपृक्त लापरवाही और मेरे प्रश्न की व्यर्थता पर मानों हल्की-सी चिढ़ के साथ बड़े ही बेमन से फिर भी बिना असभ्य हुए जवाव दिया - बनता होगा। और मुझे वहीं खड़ा छोड़ वह अपने रास्ते चलता गया। उसने जो एक पुरानी सी और घिसी हुई ट्रैक पैंट जैसा जेबों वाला कई दिनों से पहना हुआ पायजामा पहन रखा था, उसकी जेब में से बीड़ी का बंडल और माचिस झाँक रहे थे।
मैं कुछ देर के लिये वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। अपनी असमर्थता से टक्कर हो जाने पर लाचार-सा मैं पुनः चलने लगा।


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